लोक प्रशासन के महत्व को निर्धारित कीजिए।
आधुनिक सामाजिक विज्ञानों में, लोक प्रशासन सर्वाधिक लोकप्रिय, उपयोगी तथा व्यावहारिक ज्ञान पाप्ति में अग्रणी विषय सिद्ध हो रहा है क्योंकि लोक प्रशासन न केवल एक सैद्धान्तिक विषय है बल्कि सभ्य समाजों में व्यक्ति तथा सरकार के मध्य औपचारिक सम्बन्धों को स्पष्ट करने वाला आवश्यक ज्ञान भी है। भारतीय शिक्षा प्रणाली में लोक प्रशासन, उन गिने चुने विषयों में सम्मिलित है जो अध्ययन के पश्चात् किसी भी व्यक्ति को व्यावहारिक जीवन में मार्गदर्शन एवं सहायता भी प्रदान करने में सक्षम हैं।
प्रस्तुत विवरण में लोक प्रशासन के क्रियात्मक स्वरूप को आधुनिक राज्यों के संदर्भ में विश्लेषित किया जा रहा है। चार्ल्स आस्टिन बीयर्ड कहते “प्रशासन से अधिक महत्वपूर्ण अन्य कोई विषय नहीं हो सकता है। मेरे विचार से शासन तथा हमारी सभ्यता का भविष्य इसी बात पर निर्भर करता है कि सभ्य समाज के कार्यों की पूर्ति के लिए प्रशासन का दार्शनिक, वैज्ञानिक तथा व्यावहारिक स्वरूप कितना विकसित होता है।” जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हस्तक्षेप कर चुका, लोक प्रशासन ही आधुनिक सभ्यताओं, संस्कृतियों तथा मानव सहित समस्त जीव जगत् का भविष्य है। लोक प्रशासन के महत्व को निम्नांकित बिन्दुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है-
( 1 ) राज्य का व्यावहारिक तथा विशिष्ट भाग- सुप्रसिद्ध विचारक अरस्तू के अनुसार- “राज्य, जीवन के लिए अस्तित्व में आया तथा अच्छे जीवन के लिए उसका अस्तित्व बना हुआ है।” दरअसल आधुनिक युग में ‘राज्य’ को एक बुराई के रूप में नहीं बल्कि मानव कल्याण तथा विकास के लिए एक अनिवार्य रूप में देखा जाता है। वर्तमान विश्व के प्रत्येक राष्ट्र में, चाहे वहाँ कैसा भी शासन हो, राज्य का कर्त्तव्य जनकल्याण ही है। अनादिकाल से ही राज्य की इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रशासन ही एकमात्र माध्यम रहा है। यद्यपि राजशाही व्यवस्थाओं में प्रशासन का स्वरूप आज की भाँति उत्तरदायी तथा विकासपरक नहीं था तथापि प्रशासन, राज्य की व्यावहारिक अभिव्यक्ति था। राज्य के लिए कार्य करते-करते अथवा जन सेवाएँ सुलभ कराते- कराते कतिपय ऐसे प्रशासनिक सिद्धान्त, नियम तथा प्रक्रियाएँ विकसित हो गईं जो आज राज्य के प्राणत्व सिद्ध हो रही हैं। राज्य के कार्यों की पूर्ति के लिए कारगर हथियार होने के कारण ही प्रशासन तथा राज्य समानार्थी हो गए हैं।
(2) जन कल्याण का माध्यम- आधुनिक विश्व में राज्य का स्वरूप न्यूनाधिक मात्रा में लोकतांत्रिक तथा जन कल्याणकारी है। हाईट के अनुसार, “कभी ऐसा भी समय था जब जनता सरकार (राजा के) अधिकारियों से दमन के अतिरिक्त और कोई अपेक्षा नहीं करती थी। कालान्तर में आम जनता ने यह सोचा कि उसे स्वतंत्र तथा किस्मत के भरोसे छोड़ दिया जाए किन्तु आज का समाज, प्रशासन से सुरक्षा तथा विभिन्न प्रकार की सेवाओं की आशा करता है। भारत का संविधान भी नीति-निर्देशक तत्त्वों के माध्यम से समाज के दीन-हीन तथा निर्योग्यताग्रस्त व्यक्तियों के लिए राज्य द्वारा विशेष प्रयासों तथा कल्याण कार्यक्रमों के निर्देश लोक प्रशासन को देता है। चिकित्सा, स्वास्थ्य, परिवार कल्याण, शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, जन संचार, परिवहन, ऊर्जा, सामाजिक सुरक्षा, कृषि, उद्योग, कुटीर उद्योग, पशुपालन, सिंचाई, डाक तथा आवास इत्यादि समस्त मूलभूत मानवीय सामाजिक सेवाओं का संचालन प्रशासन के माध्यम से ही सम्भव है। इसी कारण आज का राज्य प्रशासकीय राज्य भी कहलाता है।
( 3 ) रक्षा, अखण्डता तथा शांति व्यवस्था- राजशाही शासन व्यवस्थाओं में राजा का मुख्य ध्येय अपने राज्य की सीमाओं में निरन्तर विस्तार का रहता था जो वर्तमान संदर्भों में दम तोड़ चुका है। आज का राज्य विस्तारवादी होने के स्थान पर जनकल्याणकारी है। लेकिन इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि राज्य, अपनी सीमाओं की रक्षा नहीं करता। परमाणु हथियारों के विकास, प्रायोजित आतंकवाद के विस्तार तथा परिवर्तित होते राजनयिक एवं कूटनीतिक सम्बन्धों विदेश नीति तथा रक्षा नीति के समक्ष नित्य नई चुनौतियाँ प्रस्तुत की हैं। यद्यपि युद्ध के समय सीमाओं तथा राष्ट्र की रक्षा करना ‘सैनिक प्रशासन’ का दायित्व है किन्तु शांति काल में सीमाओं की चौकसी तथा राष्ट्र की आंतरिक अखण्डता, शान्ति काल में सीमाओं तथा राष्ट्र की रक्षा करना ‘सैनिक प्रशासन’ का दायित्व है। शान्ति व्यवस्था, साम्प्रदायिक सौहार्द्र तथा समरसता बनाए रखने का दायित्व लोक प्रशासन का है। फाइनर के शब्दों में- “कुशल प्रशासन, सरकार का एकमात्र सशक्त सहारा है। इसकी अनुपस्थिति में राज्य क्षत-विक्षत हो जाएगा। न्याय, पुलिस, सशस्त्र बल, हथियार निर्माण, अन्तरिक्ष, परमाणु ऊर्जा, बहुमूल्य खनिज, विदेशी सम्बन्ध तथा गुप्तचर इत्यादि गतिविधियाँ ऐसी हैं जो किसी भी राष्ट्र की बाहरी एवं भीतरी सुरक्षा को स्पष्ट तथा प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती हैं।
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