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सूक्ष्म-शिक्षण का अर्थ, परिभाषा, अवधारणा, विशेषताएँ, उपयोगिता एवं महत्त्व

सूक्ष्म-शिक्षण का अर्थ, परिभाषा, अवधारणा, विशेषताएँ, उपयोगिता एवं महत्त्व
सूक्ष्म-शिक्षण का अर्थ, परिभाषा, अवधारणा, विशेषताएँ, उपयोगिता एवं महत्त्व

सूक्ष्म-शिक्षण से आप क्या समझते हैं ? इसकी अवधारणा, विशेषताओं एवं उपयोगों का उल्लेख कीजिए। 

सूक्ष्म-शिक्षण का अर्थ (Meaning of Micro Teaching)

सूक्ष्म-शिक्षण का उदय 1960 में स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में हुआ था। जैसा कि सूक्ष्म शिक्षण’ के नाम से विदित होता है। सूक्ष्म शिक्षण का तात्पर्य छोटे या लघु रूप या आकार में शिक्षण करने की प्रक्रिया से है। सूक्ष्म शिक्षण को हम ‘वृहत् शिक्षण’ (Macro Teaching ) का विलोम कह सकते हैं क्योंकि जहाँ वृहत् शिक्षण में कक्षा का आकार बड़ा, पाठ्य-वस्तु बहुत, समय अधिक, कौशल अधिक तथा छात्र अधिक होते हैं, वहाँ सूक्ष्म-शिक्षण में कक्षा का आकार छोटा, पाठ्य-वस्तु थोड़ी, समय कम, कौशल कम तथा छात्र कम होते हैं। वास्तव में यह एक ऐसी शिक्षण-प्रशिक्षण की लघु प्रक्रिया है जो छात्राध्यापकों के कला-शिक्षण सम्बन्ध कार्यों एवं व्यवहारों में सुधार एवं परिवर्तन लाती है और इस आधार पर हम इसे एक ‘उपचारात्मक शिक्षण प्रविधि (Remedial Teaching Technique) के नाम सम्बोधित कर सकते हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि सूक्ष्म-शिक्षण शिक्षक प्रशिक्षण की एक ऐसी छोटी प्रक्रिया है जिसमें कक्षा प्रकरण, समय, कौशल, आदि सभी का रूप छोटा होता है।

सूक्ष्म शिक्षण शिक्षक-शिक्षा कार्यक्रम के क्षेत्र में शिक्षण कार्य के उन्नयन के लिए एक महत्त्वपूर्ण नवाचार है। इसका विकास स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय अमेरिका में सन् 1961 में रुचीसन बुश तथा एलेन ने सर्वप्रथम नियन्त्रित रूप में “संकुचित अध्ययन अभ्यास क्रम” प्रारम्भ करके किया। सन् 1963 ई. में ए. डब्ल्यू. ड्वेट एलन (A. W. Dwight Allen) ने इस उपागम की विस्तृत व्याख्या की तथा इसे सूक्ष्म शिक्षण की संज्ञा प्रदान की। अतः डी. एलेन को सूक्ष्म शिक्षण का जन्मदाता माना जाता है। इस सूक्ष्म शिक्षण के अन्तर्गत प्रत्येक छात्राध्यापक 10 छात्रों को एक छोटा-सा पाठ पढ़ाता था और अन्य छात्राध्यापक विभिन्न प्रकार की भूमिका का निर्वहन करते थे। इसके अन्तर्गत वीडियो टेप रिकॉर्डर (Video Tape Recorder) का प्रयोग भी छात्राध्यापकों के शिक्षण व्यवहार में वांछित परिवर्तन के लिए किया जाता है। इस प्रविधि का उपयोग शिक्षक प्रशिक्षणों के व्यवहार परिवर्तन और उनमें विशिष्ट शिक्षण कौशलों के विकास के लिए किया जाता हैं। वास्तविक कक्षा शिक्षण की जटिलताओं को कम करते हुए शिक्षण कार्य को लघुरूप में सम्पन्न करना ही इसका महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। इसमें कक्षा के आकार, विषय-वस्तु के प्रकरण, शिक्षण के समय को छोटा कर लिया जाता है किन्तु कौशल विशेष का कार्य अपेक्षाकृत अधिक व्यापक बना लिया जाता है जिससे कि प्रशिक्षणार्थी को प्रत्येक शिक्षण कौशल में सिद्धहस्त बनाया जा सके।

सूक्ष्म-शिक्षण की परिभाषाएँ (Definitions of Micro Teaching)

(1) सूक्ष्म विधि के जन्मदाता डी. एलेन (D. Allen) ने जो संयुक्त राज्य अमेरिका का स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के कार्य करते थे, 1966 में सूक्ष्म शिक्षण की इस प्रकार व्याख्या की, “सूक्ष्म शिक्षण एक विश्लेषित शिक्षण है जिसमें शिक्षण की प्रक्रिया लघु रूप में कम विद्यार्थियों वाली कक्षा के सामने अल्प समय में सम्पन्न की जाती है। इसका प्रयोग सेवारत एवं सेवापूर्व शिक्षकों के व्यावसायिक विकास के लिए किया जाता है। सूक्ष्म शिक्षण, अध्यापकों को शिक्षण के अभ्यास के लिए ऐसी स्थिति प्रदान करता है जिससे कक्षा-शिक्षण की सामान्य जटिलताएँ कम हो जाती हैं। इसमें अध्यापक बहुत अधिक मात्रा में अपने शिक्षण व्यवहार के लिए प्रतिपुष्टि प्राप्त करता है।”

(2) एम० एस० ललिता (M. S. Lalita) के अनुसार, “सूक्ष्म-शिक्षण वह प्रशिक्षण विधि है, जिसके द्वारा छात्र-अध्यापक एक सम्प्रत्यय का शिक्षण विशिष्ट शिक्षण कौशल के प्रयोग द्वारा थोड़े से छात्रों के लिए और थोड़े समय में करे।”

(3) बी० के० पासी के अनुसार, “शिक्षण कौशल, छात्रों के सीखने के लिए सुगमता प्रदान करने के विचार से सम्पन्न की गई सम्बन्धित शिक्षण क्रियाओं का समूह है।”

(4) फिलिप एवं अन्य विद्वान- “सूक्ष्म शिक्षण अध्यापक प्रशिक्षण की एक लघु प्रक्रिया जिसमें शिक्षण परिस्थितियों को सरल रूप में प्रस्तुत किया जाता है और जिसके अन्तर्गत विशिष्ट कौशल का अभ्यास कराया जाता है। इसमें कक्षा का आकार शिक्षण कालांश तथा प्रकरण का रूप लघु होता है।”

(5) उर्विन- “सूक्ष्म-शिक्षण वास्तविक कक्षा-शिक्षण की अपेक्षाकृत एक प्रेरणात्मक शिक्षण है।”

(6) डी० एलन – “सूक्ष्म-शिक्षण किसी शिक्षण का एक अति लघु रूप होता है, जिसमें कक्षा का आकार काफी छोटा होता है और शिक्षण समय भी कम होता है।”

सूक्ष्म-शिक्षण की अवधारणा (Concept of Micro Teaching)

शिक्षण के लिए शिक्षण व्यवहार के प्रारूप अति आवश्यक होते हैं। पृष्ठपोषण (Feed Back) द्वारा अपेक्षित व्यवहारों का विकास किया जा सकता है। यह प्रणाली उपचारात्मक (Remedial) है। इसकी अवधारणायें निम्नलिखित हैं-

  1. अध्यापक प्रशिक्षक के रूप में जाना जाये।
  2. अध्यापकों को शिक्षण कौशलों के प्रशिक्षण के लिए अपनाया जाना आवश्यक है।
  3. इसमें एक समय में एक ही व्यक्ति को नियन्त्रित परिस्थितियों में किसी एक कौशल का अभ्यास करने का अवसर मिलता है।
  4. सूक्ष्म-शिक्षण की समाप्ति पर शिक्षक को उसके शिक्षण के सम्बन्ध में तुरन्त सूचना प्रदान की जाती है।

सूक्ष्म-शिक्षण की प्रकृति एवं विशेषताएँ (Nature and Characteristics of Micro Teaching)

  1. इस प्रविधि में शिक्षण कौशल, पाठ्यवस्तु तथा कक्षा अनुशासन आदि कक्षा के हर पक्ष को सरल किया जा सकता है।
  2. इसमें व्यवहारों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाता है। इसीलिये वांछित परिवर्तनों तक इस प्रविधि द्वारा शीघ्र पहुँचा जा सकता है।
  3. पाठ के तुरन्त बाद ही छात्राध्यापक को पृष्ठपोषण मिल जाता है।
  4. इस पृष्ठपोषण के आधार पर ही छात्रों को अपना पाठ पुनर्नियोजित (Replanned) करने तथा सुधार करने का तुरन्त अवसर मिलता है।
  5. शिक्षण तथा शिक्षण की परिस्थितियों पर इसमें अधिक प्रभावशाली नियन्त्रण रखा जा सकता है।
  6. छात्रों के विभिन्न पाठों की तुलना करने का अवसर मिलता है, क्योंकि इसमें पुनर्नियोजित पाठ को दोहराया जाता है।
  7. पाठ का निरीक्षण निरीक्षक द्वारा ही सम्भव है।
  8. छात्र तथा अध्यापक अपनी कमियों को दूर करने के लिये एक कौशल का बार-बार अभ्यास कर सकते हैं ।

सूक्ष्म-शिक्षण चक्र (Micro Teaching Cycle)

सूक्ष्म-शिक्षण चक्र का समय विभाजन निम्न प्रकार से प्रस्तावित किया जाता है-

  1. शिक्षण (Teaching) = 6 मिनट
  2. पृष्ठपोषण (Feed Back) = 6 मिनट
  3. पुनर्पाठ योजना (Re-lesson Plan) = 12 मिनट
  4. पुनः शिक्षण (Re-Teach) = 6 मिनट
  5. पुनः पृष्ठपोषण (Re-Feed Back) = 6 मिनट
सूक्ष्म-शिक्षण चक्र (Micro Teaching Cycle)

सूक्ष्म-शिक्षण चक्र (Micro Teaching Cycle)

सूक्ष्म-शिक्षण की उपयोगिता (Utility of Micro Teaching)

(1) सिद्धान्त और व्यवहार एकीकरण- सूक्ष्म अध्यापन का आधार मनोविज्ञान के अधिगम नियम (Laws of Learning) और शैक्षिक समाजशास्त्र का व्यावहारिक पक्ष है। छात्राध्यापकों में अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया की सफलता हेतु उचित एवं पर्याप्त अभिप्रेरणा (Motivation) होना आवश्यक है। अध्यापन-अभ्यास के विस्तृत एवं दीर्घकालीन कार्यक्रम की अपेक्षा घटक- कौशल के छोटे-छोटे संक्षिप्त चक्रों में अधिक अभिप्रेरणा होगी। अलग-अलग कौशल में पर्याप्त अभ्यासोपरान्त सभी कौशल योग्यताओं का एकीकरण (Integration) विस्तृत पाठ (Macro Lesson) में किया जाता है। इस प्रकार ‘अंश से पूर्ण’ (From Part to Whole) सिद्धान्त के आधार पर अध्यापन कला में प्रवीणता प्राप्त की जाती है। इस प्रणाली से कुशल एवं प्रभावशाली अध्यापक आसानी से व कम समय में प्रशिक्षित किये जाते हैं।

(2) व्यावसायिक परिपक्वता – व्यावसायिक परिपक्वता प्राप्त करने हेतु अनुभवी अध्यापक भी सूक्ष्म अध्यापन प्रणाली का एक सुरक्षित साधन के रूप में उपयोग कर सकते हैं। विशिष्ट विषय अथवा अध्यापन प्रणाली का चयन कर इस विधि से कम समय में अभ्यास कर वे उसके प्रभाव एवं सफलता का मूल्यांकन कर सकते हैं। इससे व्यावसायिक लाभ के साथ-साथ परिपक्वता भी विकसित होती है।

(3) सेवारत प्रशिक्षण हेतु उपयोग- सेवा पूर्व अध्यापन प्रशिक्षण में तो सूक्ष्म अध्यापन का ही उपयोग हो ही रहा है, सेवारत (Inservice) प्रशिक्षण में भी शालाओं में सेवारत अध्यापकों के कौशल परिष्कार हेतु इस तकनीक का प्रयोग किया जाता है। सेवारत अध्यापकों के व्यवहारों में कई बार कठोरता (Rigidity) भी आ जाती है और कुछ बातें उनकी आदत भी बन जाती हैं। इस कठोरता को कम करने और इन आदतों में सुधार लाने हेतु भी सूक्ष्म अध्यापन का उपयोग किया जाता है।

(4) निरन्तर प्रशिक्षण- अध्यापन एक कला है और अध्यापक एक कलाकार है। जैसे कला में निरन्तर अभ्यास और प्रशिक्षण से कलाकार की शैली में निखार आती है उसी प्रकार अध्यापक के निरन्तर प्रशिक्षण से उसके अध्यापन में निखार और कार्यकुशलता आती है। अध्यापकों को सूक्ष्म अध्यापन शैली से कम समय में वांछित कौशल व प्रणाली का प्रशिक्षण दिया जा सकता है।

(5) स्वमूल्यांकन- सूक्ष्म अध्यापन में अध्यापन के विभिन्न कौशलों को ध्यान में रखते हुए अध्यापक अपने पाठ का स्वयं-मूल्यांकन व स्वालोचन करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। टेपरिकॉर्डर की सहायता से अपने पाठ की रिकॉर्डिंग करके वह स्वयं सुनकर उसमें सुधार की योजना बनाता है। आत्मसुधार के दृष्टिकोण से यह बहुत ही मूल्यवान एवं अत्यन्त उपयोगी विधि है।

(6) पर्यवेक्षण का नया स्वरूप- अध्यापन अभ्यास की परम्परागत पर्यवेक्षक प्रणाली में छात्राध्यापन को सर्वव्यापी दृष्टिकोण से सम्पूर्ण विधियों (Devices) को ध्यान में रखते हुए जाँचा जाता है। थोड़े से समय में सभी प्रकार के सुधारों के एक साथ सुझाव दिये जाने से छात्राध्यापक की बौखलाहट स्वाभाविक है। इसके विपरीत सूक्ष्म अध्यापन में थोड़े समय का सम्पूर्ण पाठ देखकर एक ही कौशल पर ध्यान केन्द्रित कर पर्यवेक्षक सुझाव देता है जिसे हृदयंगम कर छात्राध्यापक शीघ्र ही सुधारकर पुनः पाठ पढ़ाने की स्थिति में आ जाता है। पर्यवेक्षक विविध उप-कौशल पर समुचित ध्यान देता है। छात्राध्यापक जिनका प्रयोग सही करता है, उनके लिये उसकी प्रशंसा की जाती है और जिनके प्रयोग में कमी हो, उनके लिये सुझाव दिये जाते हैं। इस प्रकार यह पर्यवेक्षण वस्तुनिष्ठ होता है।

(7) आदर्श पाठ- अच्छे व कुशल अध्यापकों द्वारा पढ़ाये गये विभिन्न कौशलों पर आधारित आदर्श पाठों की वीडियो-टेप तैयार कर ली जाती है। इन टेपों के सहारे छात्राध्यापकों को आदर्श पाठ दिखाये व सुनाये जाते हैं जिन्हें वे चाहे जितनी बार देख-सुन सकते हैं। इस प्रकार विशिष्ट कौशल के सम्बन्ध में उन्हें पूर्ण व गहन जानकारी प्राप्त हो जाती है

सूक्ष्म-शिक्षण का महत्त्व (Importance of Micro Teaching)

सूक्ष्म-शिक्षण तकनीक का महत्त्व निम्न पहलुओं में निहित है-

(1) इसमें छात्र-अध्यापक का विशिष्ट कौशलों पर एक के बाद एक अभ्यास करने में ध्यान एकाग्र होता है। यह कौशल विभिन्न शिक्षण व्यवहारों से बनते हैं जिन पर परम्परावादी विधियों से भिन्न तौर पर अमल किया जा सकता है, निरीक्षण व नियन्त्रण भी रखा जा सकता है।

(2) परम्परावादी अध्यापक प्रशिक्षण विधि में हमें कक्षाओं तथा छात्रों के लिए विद्यालयो के सहयोग पर निर्भर रहना पड़ता है, जबकि इस उपागम में छात्र अध्यापक शिक्षण कला को अनुरूपित परिस्थितियों में सीखता है।

(3) परम्परावादी शिक्षण कार्यक्रम में शिक्षण की समस्त परिकल्पना ली जाती है, परन्तु सूक्ष्म-शिक्षण उपागम में शिक्षण की जटिल प्रक्रिया को विशिष्ट तथा सुपरिभाषित कौशलों में विभाजित किया जाता है और एक समय में एक ही कौशल पर आधिपत्य माना जाता है। -अस्तु यह उपागम विश्लेषणात्मक है।

(4) शिक्षण कौशलों पर आधिपत्य पाने की दिशा में यह तकनीक समय तथा शक्ति की बचत उपलब्ध कराती है।

(5) इस तकनीक के कारण शिक्षण योग्यता में सुधार लाने के लिये पद्धति-पूर्ण निरीक्षण तथा तात्कालिक प्रतिपुष्टि (Feedback) सम्भव है।

(6) सामान्य कक्षा शिक्षण की जटिलताओं को कक्षा के आकार, पाठ की अवधि को घटाकर नीचे लाया जाता है तथा शिक्षण की एक घटक कौशल का अभ्यास तथा आधिपत्य सम्भव होता है।

(7) इसमें शोधकर्ताओं को अन्तःक्रिया (Inter-action Analysis) विश्लेषण के माध्यम से अध्यापक के व्यवहार के प्रति प्रयोग करने के लिये व्यापक क्षेत्र प्रदान किये हैं और इस प्रकार से व्यावहारिक शिक्षण में नवीन कल्पनायें सुझाई हैं।

(8) अपनी ही गति से चलकर प्रशिक्षार्थी को व्यक्तिगत रूप से शिक्षण कौशल का अभ्यास तथा प्रभुत्व पाकर उनके एकीकरण करने का अवसर प्रदान करता है।

(9) यह अनुदेशनात्मक तकनीक (Instructional Techniques) पर आधिपत्य पाने के लिए अनेक कौशल व्यूह रचनाओं द्वारा प्रयोग करने पर ध्यान एकाग्र करने के अवसर प्रदान करता है।

(10) यह तकनीक न केवल भावी अध्यापक को शिक्षण कौशल को सीखने में सहायता करती है, अपितु सेवारत अध्यापकों के अपने शिक्षण में सुधार व अधिक प्रभावी बनाने में सहायक है।

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Anjali Yadav

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