कानून और व्यवस्था की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।
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कानून और व्यवस्था की अवधारणा
कानून और व्यवस्था से आशय है ऐसी स्थिति जहां अव्यवस्था एवं अशान्ति न हो अर्थात् समाज में ऐसी परिस्थितियां न हों जो मानव मात्र के व्यक्तित्व के निर्माण में बाधक हो। ऐसी दशाओं का निर्माण जो राज्य के उद्देश्य की पूर्ति में सहायक हों, किसी व्यवस्था की सर्जना जिसमें कानून का शासन रह सके।
कानून और व्यवस्था की सकारात्मक धारणा को राज्य के ‘उद्देश्यों’ के सन्दर्भ में अधिक स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना तथा राज्य के नीति निदेशक तत्वों में राज्य के लक्ष्य और उद्देश्यों को स्पष्ट किया गया है। प्रस्तावना में राज्य का घोषित लक्ष्य देश के सर्वोच्च कानून के अन्तर्गत समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष, शोषणविहीन मानव-स्वतन्त्रताओं से युक्त समतावादी समाज की रचना करना स्वीकार किया गया है। राज्य के नीति निदेशक तत्वों में राज्य का लक्ष्य घोषित करते हुए उससे यह अपेक्षा की गई है कि राज्य एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था के निर्माण द्वारा लोगों के कल्याण में वृद्धि का प्रयास करेगा जिसमें देश के सभी लोगों और राष्ट्रीय जीवन धारा की समस्त समस्याओं को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय उपलब्ध हो सके।
राज्य के इन लक्ष्यों की प्राप्ति की दशाओं का निर्माण कानून और व्यवस्था के सकारात्मक अर्थ का एक पक्ष है। इसका दूसरा पक्ष है, किसी व्यवस्था का निर्माण्या जिससे कानून का शासन सम्भव हो।
भारतीय संविधान में वर्णित निदेशक तत्त्व राज्य के उद्देश्यों को स्पष्टतः क्रान्ति के प्रति वचनबद्ध होने का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करते हैं। न्यायमूर्ति हेगड़े के अनुसार “संविधान क्रान्ति के माध्यम से कुछ सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करना चाहता है। ऐसी क्रान्ति एक अहिंसक द्वारा संविधान न केवल आम आदमी की आवश्यकताओं को ही पूरा करना चाहता है अपितु हमारे समाज के वर्तमान ढांचे में भी परिवर्तन की राह दर्शाता है।”
एक ओर संविधान के घोषित लक्ष्यों के अनुरूप समाज की रचना का प्रश्न है और दूसरी ओर स्वाधीनता के बाद हमारे पास प्रशासन (नौकरशाही) की विद्यमान व्यवस्था का वह स्वरूप है जिसे इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उत्तरदायी बनाया गया है। हमारा वर्तमान प्रशासनतन्त्र जो कि औपनिवेशिक शासन काल की विरासत है, इसकी बुनियादी विशेषताएं अब भी वे ही हैं जो उस सामन्ती, साम्राज्यवादी अथवा औपनिवेशिक शासन के लक्ष्यों की सम्पूर्ति के लिए आवश्यक समझी गई थीं। हमने स्वाधीनता के नए राजनीतिक परिवेश में नूतन राजनीतिक-आर्थिक लक्ष्य तो स्वीकार कर लिए, किन्तु उन लक्ष्यों को मूर्त रूप देने वाले प्रशासनतन्त्र में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं किए। जहां एक ओर नवीन सर्वोच्च कानून, शोषणविहीन, स्वतन्त्र समाजवादी तथा सामाजिक-आर्थिक न्याय पर आधारित समाज की परिकल्पना करता है वहीं हमारी पारम्परिक प्रशासनिक व्यवस्था ने सदैव शोषण, अन्याय पूंजीवादी और सामन्ती हितों का संवर्द्धन किया है। फलतः संविधान निर्दिष्ट लक्ष्यों को जब-जब भी शासन अथवा लोकचेतना ने मूर्त रूप देना चाहा, प्रशासनतन्त्र में उसकी टकराहट हो गई।
कानून और व्यवस्था के निर्वहन में केन्द्रीय सरकार की भूमिका
भारतीय संविधान के सातवें अनुभाग में ‘पुलिस’ विषय की प्रविष्टि ‘पब्लिक आर्डर’, ‘जेल’ तथा न्याय प्रशासन एंव सुधार गृह, आदि के साथ ही राज्य सूची के अन्तर्गत आती है। पुलिस प्रशासन से सम्बद्ध इन सारे विषयों को राज्य सूची में रखना यह संकेत देता है कि देश के पुलिस प्रशासन से भारत की केन्द्रीय सरकार का कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं हैं, किन्तु यदि तीनों सूचियों की प्रविष्टियों को गम्भीरता से देख जाऐ तो केन्द्र के अधिकार क्षेत्र में ऐसे कितने ही गम्भीर, आवश्यक एवं नाजुक विषय हैं जिन पर केन्द्रीय सरकार का प्रभाव या अधिकार राज्यों के पुलिस प्रशासन को नाना प्रकार से प्रभावित करता रहता है। उदाहरण के लिए, केन्द्रीय सूची के कुछ विषय हैं- आग्नेय एवं विस्फोटक पदार्थों का प्रशासन, अन्तर्राष्ट्रीय पुलिस, बेतार व्यवस्था, केन्द्रीय सतर्कता, अखिल भारतीय पुलिस सेवा से सम्बद्ध विषय तथा राजकीय क्रियाकलापों की अन्य राज्यों में वैधता, इत्यादि ।
इसी प्रकार राज्यों के पुलिस प्रशासन को समर्थन देने के लिए केन्द्रीय सरकार ने अपने संरक्षण में अनेकानेक केन्द्रीय पुलिस इकाइयों का सृजन किया। इनमें से कुछ हैं- बी. एस. एफ. सी. बी. आई., सी. आई. बी., सी. आर. पी. असम राइफल्स, एस. बी. बी., नेशनल पुलिस अकादमी तथा फॉरेन्सिक परीक्षण शालाएं, इत्यादि। इसी क्रम में यह भी उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान की समवर्ती सूची में भी ऐसे अनेक निर्णायक वर्चस्व बनाए रखती है। ये विषय हैं- दण्ड विधि एवं कार्य पद्धति, निवारक नजरबन्दी, दवाएं एवं विभिन्न प्रकार के विष, श्रमिक संघ, घुमक्कड़ जनजातिया तथा समाचार पत्र, आदि-आदि। यहां पर भी स्पमरणीय है कि केन्द्रीय गृह मन्त्रालय भी केन्द्र प्रशासित क्षेत्रों में पुलिस प्रशासन की व्यवस्था करने के लिए पूर्णतः उत्तरदायी है। हमारे देश की संवैधानिक व्यवस्था संस्थात्मक स्तर पर तो संघीय है, परन्तु हमारे संविधान की आत्मा एकात्मक है, परिणामतः व्यवहार में हमारी पुलिस व्यवस्था राष्ट्रीय एवं एकीकृत प्रकृति बनाए रख सकती है। फलतः चाहे राज्यों में विद्यमान पुलिस व्यवस्था हो अथवा विकास व्यवस्था हो, सभी को संविधान में व्याप्त ‘केन्द्रीकृत संघवाद’ की सीमाओं में ही कार्यरत रहना होगा।
हमारे देश के पुलिस प्रशासन में केन्द्रीय सरकार की अप्रत्यक्ष, किन्तु महत्वपूर्ण भूमिका, जो कि संघीय संसद और गृह मन्त्रालय के माध्यम से प्रकाश में आती है, निम्न रूपों में प्रकट है:
भारतीय संविधान की व्यवस्थाएं इस प्रकार की हैं कि यद्यपि पुलिस विषय राज्यों के पास हैं, लेकिन विशेष परिस्थितियों में केन्द्र पूरा छा जाता है। भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861, दीवानी प्रक्रिया संहिता, 1856, हिन्दू और इस्लामी कानून आदि में संशोधन करने का अधिकार भारतीय संसद को है और इस माध्यम से राज्यों का पुलिस प्रशासन केन्द्र के प्रभाव में आ जाता है। संघ एवं राज्य सम्बन्धों में प्रशासनिक पहलू को लें तो हम स्पष्ट रूप से देखते हैं कि राज्यों में पुलिस प्रशासन के कार्यान्वयन में केन्द्रीय सरकार की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है और वह केन्द्रीय गृह मन्त्रालय के माध्यम से अभिव्यक्त होती है। केन्द्रीय गृह मन्त्रालय का यह विशेष दायित्व है कि वह राज्यों में आपराधिक अथवा फौजदारी प्रशासन और कानून तथा व्यवस्था की विशिष्ट समस्याओं से सम्बन्धित मामलों में राज्यों को सहायता दे और उनका मार्गदर्शन करे। इस प्रक्रिया में केन्द्रीय गृह मन्त्रालय राज्य पुलिस संगठनों में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस से अथवा अन्य राज्यों से अतिरिक्त पुलिस बल नियुक्त कर सकता है । गृह मन्त्रालय के अधीन अनेक ऐसे कार्यालय हैं जो पुलिस से सम्बन्धित और उससे मिलते-जुलते विशिष्ट दायित्वों का निर्वाह करते हैं। अनेक ऐसे केन्द्रीय अधिनियम हैं जो देश में पुलिस कार्यों का नियन्त्रण और निर्देशन करते हैं। ये आधारभूत अधिनियम हैं- दि इण्डियन पैनल कोड, दि कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर एवं दि इण्डियन एवीडेंस एक्ट । आई. पी. एस. पदाधिकारियों की सेवा शर्तों, उनके अधिकारों और कर्त्तव्यों तथा वेतन आदि निर्धारण में गृह मन्त्रालय की भूमिका सर्वोच्च है। यद्यपि अधिकांश आई. पी. एस. अधिकारी अपने सेवाकाल का अधिकांश भाग राज्य सरकारों में व्यतीत करते हैं, लेकिन उनकी भर्ती, पदोन्नाति, प्रशिक्षण और अनुशासन एवं दण्ड, आदि से सम्बन्धित मामलों में राज्य सरकारों का व्यवहारतः कोई नियन्त्रण नहीं होता । केन्द्रीय गृह मन्त्रालय का यह भी विशेष दायित्व है कि वह राज्यों में पुलिस विभागों से सहयोग बैठाते हुए होमगार्डों का जाल बिछाए और एक नागरिक सुरक्षा संगठन कायम करे।
पड़ोसी देशों के साथ लगी भारतीय सीमा की चौकसी करने के लिए बहुत पुलिस बलों के स्थान पर 1965 में सीमा सुरक्षा बल का गठन किया गया था। किन्तु व्यवहार मैं कहानी बिल्कुल दूसरी है । गृह मन्त्रालय की सरकारी रपट में स्वीकार किया गया है कि सीमा सुरक्षा बल न केवल ‘सीमाओं की सुरक्षा’ को सुनिश्चित करने की ‘बहुमुखी भूमिका निभा रहा था बल्कि उसने कानून और व्यवस्था बनाए रखने में राज्यों के पुलिस दल की भी सहायता की। गृह मन्त्रालय ने 1.974-75 की अपनी रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया है कि कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए सीमा सुरक्षा बल का इस्तेमाल विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, गुजरात और विरोधी दलों के आन्दोलन के गवाह रहे और केन्द्र सरकार ने ऐसे आन्दोलनों का सामना से राज्य अपने अर्द्ध-सैनिक संगठनों की सहायता में किया।
वर्ष 1992 में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल को परिवर्तित करके उन्हें त्वरित कार्यबल (Rapid Action Force) के नाम से पुनर्गठित किया। इस विशिष्ट बल का गठन सर्वाधिक तात्कालिकता से दंगों, विशेषकर साम्प्रदायिक दंगों एवं दंगों जैसी स्थितियों से निपटने तथा इनके शिकार लोगों की मदद करने के प्रयोजनार्थ किया गया था। त्वरित कार्यबल की बटालियनें साम्प्रदायिक दृष्टि से संवेदनशील 10 स्थानों पर अवस्थित की गई हैं ताकि बल की तैनाती की मांग की तत्काल पूर्ति की जा सके।
स्वाधीनता के बाद 70 वर्षों के दौरान केन्द्र सरकार के अर्द्ध-सैनिक संगठनों द्वारा निभाई गई भूमिका पर चर्चा से निम्नलिखित मुद्दे सामने आते हैं : हड़ताली कर्मचारियों अथवा विद्यार्थियों द्वारा पैदा की गई आम व्यवस्था की समस्याओं से निपटने के लिए केन्द्र सरकार की एजेन्सियों का व्यापक रूप से इस्तेमान किया गया है।
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