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गुरुकुल प्रणाली (GURUKUL SYSTEM)
प्रस्तावना (Introduction)
गुरुकुल प्रणाली में ऐसे विद्यालय आते है जहाँ विद्यार्थी अपने परिवार से दूर गुरू के परिवार का हिस्सा बनकर शिक्षा प्राप्त करता है। भारत के प्राचीन इतिहास में ऐसे विद्यालयों का बहुत महत्त्व था। प्रसिद्ध आचार्यों के गुरुकुल में पढ़े हुए छात्रों को सभी स्थानों पर बहुत सम्मान मिलता था। श्री रामचन्द्र जी ने गुरू वशिष्ठ के यहाँ रहकर शिक्षा प्राप्त की थी। इसी प्रकार पाण्डवों ने गुरू द्रोणाचार्य के यहाँ रहकर शिक्षा प्राप्त की थी।
प्राचीन भारत में तीन प्रकार की शिक्षा संस्थाएँ प्रचलित थी-
1) गुरुकुल – जहाँ विद्यार्थी आश्रम में गुरू के साथ रहकर विद्याध्ययन करते थे।
2) परिषद् – जहाँ विशेषज्ञों द्वारा शिक्षा दी जाती थी।
3) तपस्थली – जहाँ बड़े-बड़े सम्मेलन होते थे तथा सभाओं तथा प्रवचनों से ज्ञान अर्जन होता था। नैमिषारण्य भी एक ऐसा ही स्थान है।
कालान्तर में गुरुकुल आश्रम प्रणाली में हजारों विद्यार्थी रहने लगे। इन आश्रमों के प्रधान ‘कुलपति’ कहलाते थे। रामायण काल में गुरु वशिष्ठ का वृहद् आश्रम था जहाँ राजा दिलीप तपश्चर्या करने गए थे। वही विश्वामित्र को ब्रह्मत्व प्राप्त हुआ था इसी प्रकार का एक प्रसिद्ध गुरुकुल प्रयाग में भारद्वाज मुनि का था।
गुरुकुल प्रणाली का इतिहास (History of Gurukul System)
गुरुकुल का शाब्दिक अर्थ है गुरू का परिवार अर्थात् गुरू का वंश । गुरुकुल प्रणाली सदियों से भारत वर्ष में शिक्षा संस्था के रूप में व्यवहृत होती रही है। गुरुकुलों के इतिहास में भारत की शिक्षा व्यवस्था एवं ज्ञान विज्ञान की रक्षा का इतिहास समाहित है। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में गुरुकुलों का महत्त्वपूर्ण योग था।
गुरुकुल प्रायः ब्राह्मण गृहस्थों द्वारा गाँवों या नगरों के भीतर तथा बाहर दोनों ही स्थानों में चलाए जाते थे। अर्थशुल्क के रूप में शिक्षार्थी ब्रह्मचारी बालक पुरस्कारस्वरूप गुरू एवं उसके परिवार की सेवा करते थे या शिक्षा सम्पन्न होने की अवस्था में अर्थशुल्क ही देते थे। परन्तु ऐसे आर्थिक पुरस्कार एवं अन्य वस्तुओं वाले उपहार दीक्षा के बाद ही दक्षिणास्वरूप दिए जाते थे तथा गुरू विद्या दान प्रारम्भ करने के पूर्व आगन्तुक विद्यार्थियों से न तो कुछ माँगते थे तथा न ही आर्थिक अभाव के कारण किसी छात्र को अपने आश्रम से लौटाते ही थे। अमीर एवं गरीब सभी योग्य विद्यार्थियों के लिए गुरुकुलों के द्वारा खुले रहते थे। गुरुकुल में रहने वाले छात्रों का जीवन सादा, श्रद्धापूर्ण, भक्तिपरक एवं त्यागमय होता था। गुरू एवं शिष्य के आपसी व्यवहारों की एक संहिता होती थी उसका पूर्णतः पालन किया जाता था। गुरुकुलों में सभी प्रकार के शास्त्र एवं विज्ञान पढ़ाए जाते थे। शिक्षा पूर्ण हो जाने पर गुरू शिष्य की परीक्षा लेता तथा समावर्तन संस्कार सम्पन्न करके छात्र को उसके परिवार में भेजता था।
भारतवर्ष में गुरुकुलों की व्यवस्था बहुत दिनों तक जारी रही। राज्य अपना यह कर्तव्य समझता था कि गुरुकुलों का खर्च राज्य द्वारा वहन किया जाए। प्रसेनजित जैसे राजाओं ने वेद निष्णात ब्राह्मणों को कई गाँव दान में दिए थे। तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला एवं वल्लभी विश्वविद्यालय गुरुकुल के ही विकसित रूप हैं। 19वीं शताब्दी में प्रारम्भ होने वाले भारतीय राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक पुनर्जागरण के युग में प्राचीन गुरुकुलों के आधार पर अनेक गुरुकुल स्थापित किए गए तथा राष्ट्रभावना के प्रसार में उनका महत्त्वपूर्ण योग रहा। यद्यपि आधुनिक अवस्थाओं में प्राचीन गुरुकुलों की व्यवस्था को यथावत् पुनः प्रतिष्ठित तो नहीं किया जा सकता, फिर भी उनके उनके आव आदशों को यथावश्यक परिवर्तन के साथ अवश्य अपनाया जा सकता है।
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