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जिला नियोजन पद्धति
जिला नियोजन पद्धति केन्द्र तथा राज्य दोनों द्वारा स्थापित किया जाता है। परन्तु भारत में इस प्रकार की अवधारणा का सर्वथा अभाव रहा है। योजना तथा कार्यक्रम के क्रियान्वयन में लोकप्रिय सहभागिता की चेतना का अभाव नया नहीं है। प्रथम पंचवर्षीय योजना के मूल्यांकन में यह भय प्रकट किया गया कि लोग विकास कार्यों को “शासन का दायित्व” मानते हैं और स्वयं मूकदर्शक या तमाशा देखने वाले बने रहते हैं। द्वितीय पंचवर्षीय योजना के प्रारम्भ से ही जिला नियोजन के विचार का प्रादुर्भाव हुआ। 1950 में सामुदायिक विकास के समय प्रारम्भ से चतुर्थ पंचवर्षीय योजना-अवधि में विकास केन्द्रों के पाइलट रिसर्च प्रोजेक्ट, * पंचायत संस्थानों द्वारा नियोजन के प्रारम्भिक प्रयास, 1969 में योजना आयोग द्वारा प्रसारित जिला नियोजन मार्गदर्शन, 1970 में ब्लॉक स्तरीय नियोजन वार्ता, 1978 में दाँतवाला समिति प्रतिवेदन तथा 1984 में जिला नियोजन परर हनुमन्तराव प्रतिवेदन की अवधि में जिला या क्षेत्रीय नियोजन के असफल होने पर भी विकेन्द्रीय नियोजन की आवश्यकता बारम्बार अनुभव की जाती रही। ऐसा विकेन्द्रीय नियोजन स्त्रोतों की गत्यात्मकता एवं उसके वितरण में अधिक कुशलता लाने तथा प्रजातन्त्र की जड़ों व लोगों तक सत्ता पहुँचाने की दृष्टि से उपयोगी माना जाता है। सिंघवी समिति द्वारा प्रस्तुत संकल्पना पत्र (1986) में पंचायती राज को पुनः शक्ति प्रदान करने हेतु जिला नियोजन को रचनात्मक ग्रामीण विकास और राष्ट्र-निर्माण प्रक्रिया की कड़ी प्रतिपादित किया गया। राज्य सरकारों ने योजना आयोग द्वारा प्रस्तुत मार्गदर्शिका को अनुपालन में जिला प्रशासन एवं परामर्शदात्री संस्थाओं को विकसित तथा सम्मिलित कर नियोजन-प्रक्रिया को अधिक राजनीतिक, उद्देश्यपूर्ण और सहभागी बनाने का प्रयास किया।
तृतीय एवं चतुर्थ पंचवर्षीय योजनाओं के काल में जिला नियोजन के निर्माण की प्रक्रिया इस प्रकार थी – विभिन्न राज्य-स्तरीय विभागाध्यक्षों को अधिकार था कि वे जिले के लिए उपलब्ध राशियों की सूची बना सकें। उनको यह कार्य राज्य योजना विकास बोर्ड के निरीक्षण में करना पड़ता था और यह आवश्यक था कि यह कार्य राष्ट्रीय योजना के उपागम प्रपत्र के अनुसार हो । 1970 के प्रारम्भ में जिला योजना के प्रति अभिरूचि दिखायी पड़ी। इण्डियन जर्नल ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा बहुस्तरीय नियोजन (1973) और जर्नल ऑफ लालबहादुर शास्त्री नेशनल अकादमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा जिला नियोजन (1975) पर विशेषांकों का प्रकाशन इसका उदाहरण है। केन्द्र शासन के कार्मिक प्रशासन विभाग द्वारा प्रकाशित अन्यान्य ग्रन्थों में समग्र क्षेत्रीय विकास पर प्रशिक्षण ग्रन्थ निकाला गया। महाराष्ट्र सरकार ने पंचायत पर राज्य स्तरीय मूल्यांकन समिति के प्रतिवेदन (1971) के प्रतिपालन में 1972 में जिला नियोजन बोर्ड का गठन किया। महाराष्ट्र के प्रयोग से प्रेरित होकर 1970 के उत्तरार्द्ध में कुछ अन्य राज्यों में इसका अनुसरण किया गया। हनुमन्त राव समिति पर इसका सर्वाधिक प्रभाव पड़ा। बहुत से राज्यों में, कुछ सीमा तक, राव के प्रतिवेदन के आधार पर जिला स्तरीय नियोजन प्रारम्भ करने के उद्देश्य से जिला सेक्टर हेतु धन देने का प्रयास हुआ। इस प्रकार का जिला नियोजन केवल कुछ राज्यों में ही अंशतः सफल हुआ। फलस्वरूप जिला नियोजन पर जोर दिया जाने लगा। विगत तीन- चार वर्षों की सार्वजनिक बहस के बावजूद भी विद्यमान भारतीय परिस्थितियों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त एवं सफल विकेन्द्रित जिला नियोजन के यथार्थ प्रतिमान पर स्पष्ट चिन्तन नहीं हो सका। पंचायती राज एवं जिला नियोजन पर दिसम्बर 1987 और जून, 1988 के मध्य आयोजित पाँच अखिल भारतीय जिलाधीश कार्यशालाओं तथा जिलाधीशों के सुगठित समूह द्वारा छठे निष्कर्ष सत्र द्वारा तैयार 1988 में प्रस्तुत प्रतिवेदन में दो (सामान्यीकृत तथा अन्तरिम) वैकल्पिक प्रस्तुत किये गये। बहुत से राज्यों में ‘अन्तरिम प्रतिमान’ का समर्थन किया। इसमें जिला परिषद के पृथक नियोजन इकाई की संस्तुति की गयी। इस पर हनुमन्त राव प्रतिवेदन की अनुशंसा और गुजरात एवं महाराष्ट्र के प्रयोग का प्रभाव परिलक्षित है। संसद में प्रस्तुत चौंसठवाँ संविधान संशोधन विधेयक (क्रमांक 50, 1989) सभी राजनीतिक दलों द्वारा पूर्णतः स्वीकृत नहीं किये जाने के कारण शासन के अन्तिम निर्णय की मान्यता प्राप्त नहीं कर सका। 1991 में सम्पन्न लोकसभा चुनावों के उपरान्त नये योजना आयोग ने विकेन्द्रित नियोजन पर अधिक जोर देने का निर्णय लेते हुए भी अपना दृष्टिकोण पूर्वतः अभिव्यक्त नहीं किया। आठवीं योजना प्रारूप उपागम प्रलेख में दो उद्देश्यों- विकेन्द्रीकरण एवं प्रक्रिया में लोगों की सहभागिता पर जोर दिया गया। यह भली- भाँति समझ लेना चाहिए कि उत्तम और प्रभावशील नियोजन योजना-प्रक्रिया के विकेन्द्रीकरण द्वारा ही सम्भव है और इसके लिए जिले का चयन सर्वथा उचित और उपयुक्त है। इस प्रकार अब लगभग सभी राज्यों में योजना आयोग है जिनका मुख्य कार्य राज्य योजनाओं का निर्माण, क्रियान्वयन और मूल्यांकन करना है।
संविधान के 74वें संशोधन के अनुच्छेद 243 ZD के अनुसार, प्रत्येक राज्य में जिला स्तर पर एक जिला योजना परिषद गठित की जायेगी। परिषद का कार्य पंचायतों एवं नगरपालिकाओं के लिए तथा समस्त जिले के लिए योजना बनाना होगा।
जिला योजना परिषद की संरचना राज्य की विधानसभाओं द्वारा पारित कानून के अनुसार होगी। कानून में इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि जिला योजना परिषद के स्थान पर किस प्रकार भरे जायेंगे। परन्तु, 4/5 सदस्य पंचायतों और नगरपालिकाओं के चुने हुए सदस्यों में से होगे। कानून में जिला योजना परिषद के कार्यों का वर्णन एवं अध्यक्ष चुनने का वर्णन आवश्यक है।
जिला योजना परिषद पंचायतों एवं नगरपालिकाओं के सामान्य हित, भौगोलिक स्थिति, प्राकृतिक साधनों, पर्यावरण को ध्यान में रखकर योजना विकास प्रारूप तैयार करेगी।
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