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नवीन लोक-प्रशासन से आप क्या समझते हैं? उसका विकास किस प्रकार हुआ, विस्तार से वर्णन कीजिए।
संयुक्त राज्य अमेरिका में पनपी एवं प्रचारित हुई नवीन लोक प्रशासन की धारणा सर्वथा नई नहीं है बल्कि यह परम्परागत प्रशासनिक सिद्धान्तों तथा युवा पीढ़ी के अध्येताओं की मान्यता का समन्वित स्वरूप है। यह विचारधारा वियतनाम युद्ध तथा वाटरगेट काण्ड के पश्चात् अमेरिका में इस माँग के साथ लोकप्रिय हुई कि लोक प्रशासन को जन समस्याओं के समाधान के क्रम में ठोस एवं व्यावहारिक भूमिका निर्वाहित करनी चाहिए। बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक में लोक प्रशासन के सिद्धान्त एवं व्यवहार में सुधार हेतु बुद्धिजीवियों में व्यक्तिगत स्तर, विद्वानों तथा प्रशासकों के संयुक्त प्रयासों से इस विषय पर पुनर्विचार प्रारम्भ हुए जो नवीन लोक प्रशासन आन्दोलन के नाम से जाने जाते हैं।
नवीन लोक प्रशासन का विकास इस प्रकार हुआ-
1. विश्व परिदृश्य पर प्रभुत्व प्राप्त अमेरिका की आन्तरिक सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक परिस्थितियाँ जब सामाजिक तनाव एवं असंतोष से परिपूर्ण होने लगीं तो यह बहस प्रारम्भ हुई कि सरकारी नीतियाँ तथा प्रशासन किस सीमा तक जन साधारण के प्रति चिन्तनशील है ? परिवर्तित होते सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा प्रशासनिक क्षमताओं में वृद्धि करना आवश्यक हो गया था। अतः नए आयामों एवं समाधानों को ढूँढ़ने की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई।
2. सार्वजनिक सेवाओं सम्बन्धी उच्च शिक्षा एवं हनी प्रतिवेदन (1967)- अमेरिकन लोक प्रशासन सोसायटी से सम्बद्ध एक संस्था ने सन् 1966 में प्रो. जॉन सी. हनी से यह आग्रह किया था कि वे संयुक्त राज्य अमेरिका के विश्वविद्यालयों में लोक प्रशासान के एक स्वतंत्र विषय के रूप में अध्ययन कराने की सम्भावनाओं हेतु शोध कार्य सम्पादित करें। सन् 1967 में प्रो. हनी ने अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हुए लोक प्रशासन की वास्तविक स्थिति को उजागर किया तथा इसके क्षेत्र को व्यापक बनाने पर बल प्रदान किया। उन्होंने लोक प्रशासन का कार्य क्षेत्र कार्यपालिका, न्यायपालिका तथा विधायिका तक विस्तृत माना। हनी प्रतिवेदन में लोक प्रशासन विषय की चार समस्याओं का वर्णन किया गया था-
(क) विश्वविद्यालयों में स्वतंत्र विषय के रूप में अध्ययन एवं शोध के लिए धन का अभाव।
(ख) विषय से सम्बन्धित बौद्धिक मतभेद अर्थात् लोक प्रशासन एक विषय (अनुशासन) है या एक विज्ञान या एक व्यवसाय ?
(ग) लोक प्रशासन के विभागों में व्याप्त अपूर्णताएं।
(घ) लोक प्रशासन विषय के विद्वानों तथा प्रशासन में कार्यरत प्रशासकों के मध्य खाई।
हनी प्रतिवेदन पर अमेरिका में मिश्रित प्रतिक्रियाएं हुईं क्योंकि जहाँ एक ओर इस रिपोर्ट में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए गए थे वहीं दूसरी ओर कुछ मूलभूत प्रश्न जैसे विभाजित एवं उथल- पुथल के काल में लोक प्रशासन की भूमिका इत्यादि मुद्दों की चर्चा तक नहीं थी।
3. लोक प्रशासन के सिद्धान्त एवं व्यवहार सम्बन्धी सम्मेलन (1967)- लोक प्रशासन विषय में शीघ्रातिशीघ्र विकास तथा संश्लेषण की आवश्यकता होने पर दिसम्बर, 1967 में “अमेरिकी राजनीति विज्ञान तथा समाज विज्ञान परिषद्” ने एक सम्मेलन आयोजित किया “लोक प्रशासन के सिद्धान्त एवं व्यवहार- क्षेत्र, उद्देश्य तथा पद्धति” विषयक इस सम्मेलन की अध्यक्षता जेम्स सी. चार्ल्सवर्थ ने की। इसे फिलाडेल्फिया सम्मेलन भी कहा जाता है। इस सम्मेलन में यह राय उभर कर सामने आई कि लोक प्रशासन के सम्बन्ध में दृढ़ एवं संक्षिप्त उपागम अपनाया जाना चाहिए तथा व्यापक दार्शनिक संदर्भ में लोक प्रशासन के महत्व को समझा जाना चाहिए। यद्यपि इस सम्मेलन में यह विवाद का विषय था कि क्या लोक प्रशासन केवल मानसिक सिद्धि है या शासन का व्यावहारिक यंत्र है तथा इसकी सर्वमान्य परिभाषा क्या हो सकती है तथापि कतिपय बिन्दु ऐसे थे जिन पर लगभग आम सहमति बनी थी, जैसे-
(i) लोक कल्याणकारी राज्य के प्रवर्तन के पश्चात् प्रशासन के कार्यों तथा आयामों में आशातीत वृद्धि हुई है। अतः लोक प्रशासन के अध्ययन की कठोर सीमाएँ तय करना अनुचित है। इसके विकास इस विषय का क्षेत्र लचीला ही होना चाहिए। चूँकि नीति निर्माण, कार्यान्वयन तथा मूल्यांकन में लोक प्रशासन की महती भूमिका है, अतः सरकार के अध्ययन एवं लोक प्रशासन के अध्ययन के बीच द्विविभाजन नहीं रहना चाहिए।
(ii) प्रशासनिक संगठनों में आन्तरिक प्रक्रियाओं तथा पदसोपान की पूर्णता पर अत्यधिक बल देने से प्रशासनिक कार्य निष्पादन में कठोरता उत्पन्न होती है। अतः तेजी से बदलते परिदृश्य में यह व्यवस्था अप्रासंगिक तथा अकुशल सिद्ध होती है। इसलिए संगठनात्मक नवीनता तथा. प्रबन्धात्मक नमनीयता ही उचित है।
(iii) लोक प्रशासन के विषयों में सामाजिक समानता भी एक विषय होना चाहिए क्योंकि समाज में अनेक प्रकार के वर्ग भेद तथा सामाजिक-आर्थिक असमानताएँ व्याप्त हैं। अतः लोक प्रशासन में कार्यकुशलता तथा उत्तरदायित्व के विद्यमान मूल्यों के साथ-साथ समानता को भी प्रशासनिक मूल्य के रूप में स्थापित किया जाना चाहिए।
(iv) लोक प्रशासन में शिक्षा तथा प्रशिक्षण कार्यक्रमों का उद्देश्य मात्र प्रबन्धात्मक तथा तकनीकी कुशलताओं का विकास न होकर राजकीय अभिकरणों में कार्यरत लोक सेवकों तथा प्रशिक्षार्थियों में सामाजिक संवेदना तथा चेतना का विकास होना चाहिए। इसमें मनोविज्ञान, वित्त, समाजशास्त्र तथा मानव शास्त्र को भी सम्मिलित करना चाहिए।
(v) नौकरशाही सम्बन्धी अध्ययन संरचनात्मक प्रकार्यात्मक दोनों प्रकार के होने चाहिए।
(vi) एक व्यवसाय के रूप में लोक प्रशासन को राजनीति विज्ञान के अनुशासन (विषय) तथा व्यवसाय से पृथक् ही रहना चाहिए।
(vii) लोक प्रशासन एक अनुशासन (विषय) तो है किन्तु इसके अध्ययन के लिए समकालीन समाज विद्वानों द्वारा प्रतिपादित सभी अध्ययन-पद्धतियों का उपयोग नहीं किया जा सकता है। लोक प्रशासन के कुछ भाग पर वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग सम्भव है जबकि अन्य भागों पर ऐसा सम्भव नहीं है।
4. मित्रोबुक सम्मेलन (1968) – फिलाडेल्फिया सम्मेलन को मित्रोब्रुक सम्मेलन का पूर्वगामी तथा पथ प्रदर्शक सम्मेलन माना जाता है क्योंकि फिलाडेल्फिया सम्मेलन में उठाए गए अधिकांश मुद्दे एवं विचारणीय विषय, मित्रोब्रुक सम्मेलन में भी छाये रहे। मिन्नोब्रुक सम्मेलन के लिए दो कारक मुख्य रूप से उत्तरदायी माने जाते हैं। प्रथमतः 1960 का दशक, अमेरिकी समाज, राजनीति तथा प्रशसन के लिए उथल-पुथल का समय था। इस दशक में उठी समस्याएँ। लोक प्रशासन के लिए चुनौती बन गई थीं। इसी समय 1968 में पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन रिव्यू नामक जर्नल में ड्वाइट वाल्डो का लेख ‘क्रान्तिकाल में लोक प्रशासन’ प्रकाशित हुआ जिसमें इन समस्याओं पर प्रकाश डाला गया था। लोक प्रशासन के युवा विद्वान, नवविचारों तथा क्रान्तिकारी सुझावों में प्रशासनिक तंत्र में सुधार चाहते थे। मित्रोब्रुक सम्मेलन युवा पीढ़ी का सम्मेलन था जिसने नवीन लोक प्रशासन को जन्म दिया मैथ्यू केवनस ने इस सम्मेलन के निर्णयों को स्पष्ट करते हुए कहा है कि इस सम्मेलन में मुख्यतः यह चर्चा हुई है लोक प्रशासन को सामाजिक परिवर्तन के अभिकर्ता के रूप में कार्य करना चाहिए तथा प्रशासनिक संगठनों को अपने पर्यावरण के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। इसी प्रकार लोक प्रशासन के आदेशात्मक आयाम की महत्ता को मिन्नोब्रुक सम्मेलन में भी रेखांकित किया गया तथा समाज में लोक प्रशासन की भूमिका को सार्थक एवं प्रभावी बनाने पर चर्चा हुई। महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह था कि क्या लोक प्रशासन को मूल्य निरपेक्ष होना चाहिए अथवा किसी नीति या विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए।
5. (क) यह भी माना जाता है कि सन् 1967 में प्रकाशित एफ. सी. मोशर की सम्पादित कृति Governmental Reorganization: Cases and Commentaries में प्रशासनिक क्षमताओं एवं उत्तरदायित्वों को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से प्रशासनिक पुनर्गठन तथा सुधार की साझी समस्या को उठाया गया जो नवीन लोक प्रशासन की विचारधारा का आरम्भिक वैचारिक प्रयास था।
(ख) सन् 1971 में फेंक मेरिनी द्वारा सम्पादित पुस्तक “एक नवीन लोक प्रशासन की ओर मिन्नोब्रुक परिप्रेक्ष्य (Towards a New Public Administration Minnow-brook Perspective) प्रकाशित हुई जो नवीन लोक प्रशासन पर प्रथम पुस्तक मानी जाती है।
(ग) सन् 1971 में ही ड्वाइट वाल्डो द्वारा सम्पादित पुस्तक “उथल-पुथल के काल में लोक प्रशासन (Public Administration in a Time of Turbulence) प्रकाशित हुई जो नवीन लोक प्रशासन की विचारधारा को आगे बढ़ाती है।
(घ) सन् 1980 में एच. जॉर्ज फ्रेडरिक्शन की पुस्तक “Public Administration Development as a Discipline” में भी नवीन लोक प्रशासन सहित इस विषय के विविध विचारणीय, पक्षों पर सामग्री प्रस्तुत की गई है।”
(ङ) सन् 1980 में ड्वाइट वाल्डो की एक नई कृति “Enterprise of Public Administration” सामने आई जिसमें उन्होंने लोक प्रशासन के तीन परिप्रेक्ष्यों यथा-नागरिक उन्मुख नौकरशाही, प्रतिनिधि नौकरशाही तथा जनप्रतिनिधित्व पर बल देते हुए कहा है कि यदि इन सार्वजनिक परिप्रेक्ष्यों को लोक प्रशासन में सही प्रकार से लागू किया जा सके तो लोक प्रशासन अधिक लोकतान्त्रिक स्वरूप ग्रहण कर सकेगा।
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