प्रशासन के सांस्कृतिक परिवेश की विवेचना कीजिए।
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प्रशासन के सांस्कृतिक परिवेश
संस्कृति की परिभाषा करते हुए पं. जवाहर लाल नेहरू ने लिखा है- “संस्कृति शारीरिक या मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण, दृढीकरण या विकास अथवा उससे उत्पन्न अवस्था है। यह मन, आचार अथवा रूढ़ियों की परिष्कृति या शुद्धि है। यह सभ्यता का भीतर से उठना है।”
“वस्तुतः भारतीय संस्कृति की कहानी एकता, समाधनों के समन्वय एवं प्राचीन परम्पराओं के पूर्व सहयोग तथा उन्नति की कहानी है। भारतीय संस्कृति का प्रवाह अविरल है। मार्ग में व्यवधान आए और उसे अवरुद्ध करने का प्रयास किया। वे व्यवधान भारतीय संस्कृति के प्रवाह को मन्थर तो कर सके, किन्तु उसे पूर्णतया अवरुद्ध नहीं कर सके। संक्षेप में, भारतीय संस्कृति का प्रवाह अविरल बना रहा. पूर्णतया शुष्क नहीं हो सका।
भारतीय संस्कृति की धारा कभी-कभी और कहीं-कहीं अवरुद्ध तो हुई, किन्तु समय- समय पर भारतीय महापुरुषों ने उन्हें पुनः एकता के सूत्र में गठित कर दिया। आधुनिक स्वरूप प्रदान किया तथा पुनः एक सजीव धारा के रूप में प्रवाहित कर उसे शाश्वत बना दिया। संक्षेप में, भारतीय संस्कृति की अग्रलिखित विशेषताएँ हैं-
उदारता – भारतीय संस्कृति विभिन्न संस्कृतियों के समागम से बनी एक ऐसी संस्कृति है जो सबकी विशेषताओं से संयुक्त है। यह समन्वय इसलिए सम्भव हो सका क्योंकि यहाँ की संस्कृति में अपार सहिष्णुता के तत्व हैं जो समन्वय की प्रक्रियाओं को बल देते हैं। आर्य लोगों ने सिन्धु सभ्यता के तत्त्वों को स्वीकार कर लिया और सिन्धु सभ्यता आयों के जीवन में शनैः- शनै समा गयी। यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रही। यद्यपि इस्लाम की विचारधारा तत्कालीन संस्कृति से भिन्न-भिन्न रहने की थी, फिर भी इस्लाम तथा भारतीय संस्कृति ने एक-दूसरे को प्रभावित किया और दोनों में काफी परिवर्तन आ गया।
अनेकता में एकता – अनेकता में एकता भारतीय संस्कृति की अपूर्व विशेषता है। भारत एक ऐसा देश है जिसमें अनेक धर्म, जाति, भाषा और उप-संस्कृति के लोग निवास करते हैं। जहाँ पंजाब में सिखों की काफी संख्या है, वहाँ जम्मू-कश्मीर में मुसलमान धर्मावलम्बी मिल जाएंगे तो उत्तरी भारत में जैन धर्मावलम्बी काफी संख्या में निवास करते हैं। भाषा की विविधता भारतीय समाज की विलक्षणता है। उत्तर भारत का निवासी दक्षिण की भाषा नहीं समझ पाता और न ही दक्षिण का निवासी उत्तर की भाषा। भारत के संविधान में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है। भारत में क्षेत्रीय विविधता भी पायी जाती है। भारत में हिन्दू दीपावली और होली मनाते हैं तो मुसलमान ईद का त्यौहार तथा ईसाई क्रिसमस ।
इन सब विविधताओं के बावजूद भारतीय संस्कृति विभिन्न संस्कृतियों का समन्वित रूप है। इसके अन्तर्गत अनेक संस्कृतियों का रस समाहित है।
हिन्दू संस्कृति की पाचन शक्ति बड़ी प्रचण्ड मानी गई है। इसमें लचीलेपन का ऐसा गुण था कि नीग्रो से लेकर हूणों तक वाली इस देश में सभी जातियां इसी लचीलेपन के कारण हिन्दू समाज में खप गईं। कालक्रम में हिन्दू धर्म के भीतर से ही उसके विरुद्ध एक प्रचण्ड सांस्कृतिक विद्रोह उठा, जिसे हम बौद्ध धर्म के नाम से जानते हैं, किन्तु धीरे-धीरे वह विद्रोह भी लौटकर उसी धर्म में समा गया जिससे उसका जन्म हुआ था। हिन्दू संस्कृति ने अनेक संस्कृतियों को पीकर अपनी ताकत बढ़ायी है- यहाँ तक कि इस्लाम जो अपने व्यक्तित्व को स्वतंत्र रखने का मंसूबा लेकर चला था, वह भी भारत में आकर बहुत कुछ परिवर्तित हो गया। यद्यपि भारतीय मुसलमान धर्म के मामले में अपनी सत्ता को स्वतंत्र रखने में बहुत दूर तक कामयाब हुए, लेकिन संस्कृति की दृष्टि से वे भी अब भारतीय हैं।
धर्म निरपेक्षता- भारत में सभी धर्मों के मानने वालों को न केवल सम्मान और इज्जत के साथ अधिकार और संरक्षण की गारण्टी प्राप्त है बल्कि वे देश के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में सक्रिय रूप से भाग ले रहे हैं। इस बात को कोई भूल नहीं सकता कि मौलाना अबुल कलाम आजाद और रफी अहमद किदवई भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख सेनापतियों में से थे। दो प्रमुख मुस्लिम नेता डॉ. जाकिर हुसैन और फखरुद्दीन अली अहमद और एक सिख ज्ञानी जैलसिंह राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद को सुशोभित कर चुके हैं। एयर चीफ मार्शल लतीफ मुसलमान, एयर मार्शल अर्जुनसिंह सिख थे। हमारे एकमात्र फील्ड मार्शल मानेकशा पारसी हैं।
सांस्कृतिक एकता- भारत की संस्कृति भारत की राष्ट्रीय एकता को जन्म देती है। सांस्कृतिक एकता ने भारत को बनाए रखा है। सांस्कृतिक एकता की जड़ें भारत में इतनी गहरी हो गयी हैं कि बाह्य विविधता निरर्थक ही सिद्ध होती है।
राजनीतिक संस्कृति- किसी राजनीतिक संस्कृति में उस समाज की अभिवृत्तियां, विश्वास, भावनाएं और सत्य शामिल होते हैं जिनका राजनीतिक व्यवस्था और राजनीतिक मुद्दा से सम्बन्ध होता है। जब हम भारत के संदर्भ में राजनीतिक संस्कृति की चर्चा करते हैं तो हमारा अभिप्राय भारत के लोगों की अभिवृत्तियों, विश्वासों, भावनाओं और मूल्यों से है अर्थात् भारत के लोगों की राजनीतिक संस्थाओं, प्रक्रियाओं और संरचनाओं के बारे में क्या धारणाएं हैं?
भारत के लोगों के विश्वास हैं- कोई भी शासक हो, हमें क्या लेना-देना, जनता और नेता लोकतांत्रिक व्यवस्था के रहते हुए भी सामन्ती तथा अर्द्ध-सामन्ती मूल्यों से चिपके रहते हैं, भारत की जनता पुलिस और कलक्टर को आज भी ‘माई-बाप’ मानती है। यहाँ नागरिकों का मानस अधीनस्थता का है, राजनीति और परिवार व्यक्ति-प्रधान हैं। ऐसे सांस्कृतिक माहौल में प्रशासक मालिक बन जाता है और जनता सेवक, प्रशासक उच्च हो जाता है और जनता निम्न अधीनस्थ है। प्रशासन में जन उदासीनता के कारण व्यापक रूप से भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी बढ़ती है।
ऐसी सांस्कृतिक विरासयत वाले देश में स्वाधीनता के बाद प्रशासन की क्या भूमिका हो ? स्वाधीनता के बाद अनेक कारणों से भारत की एकता संकट में पड़ी है, विभाजनकारी प्रवृत्तियाँ तीव्रतम हुई हैं, धार्मिक और साम्प्रदायिक उन्माद एवं कट्टरता के कारण धर्म निरपेक्षता पर आंच आने लगी है। अतः ऐसे परिवेश में लोक प्रशासन का दायित्व राष्ट्रीय एकता को बनाए रखना, मिली-जुली सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करना तथा धर्म निरपेक्ष स्वरूप को सुदृढ़ करना है। संविधान निर्माताओं ने सांस्कृतिक एंकता को पुष्ट करने के लिए प्रशासनिक एकरूपता पर बल दिया है। इसीलिए संविधान में अखिल भारतीय सेवाओं का प्रावधान किया गया है तथा साथ ही निर्वाचन आयोग, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, संघ लोक सेवा आयोग, एकीकृत न्याय व्यवस्था आदि अभिकरणों की व्यवस्था की है।
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