भारत में स्थानीय स्व-शासन के उद्भव व विकास पर टिप्पणी कीजिए।
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भारत में स्थानीय स्व-शासन का उद्भव एवं विकास (Origin and Development of Local-Self Government in India)
भारत में स्थानीय स्वशासन के विकास का संकेत वैदिक काल से मिलता है। कालान्तर में मौर्य तथा गुप्त शासकों ने इनके विकास पर पर्याप्त ध्यान दिया।
पंचायत शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के ‘पंचायतन’ से हुई है जिसका अर्थ होता है। पाँच व्यक्तियों का समूह। गाँधीजी ने भी पंचायत का शाब्दिक अर्थ गाँव के लोगों द्वारा चुने हुए पाँच व्यक्तियों की सभा से लिया गया है। वैदिक काल के साहित्य में सभा व समितियों का वर्णन किया गया है। ये सभा व समितियाँ लोगों की भलाई के लिए कार्य करती थी। इनके अलावा वैदिक काल में विदथ तथा गण नामक संस्थाएँ थी जो कि स्थानीय स्वराज्य से सम्बन्धित थी।
महाकाव्य काल के साहित्य में भी इस प्रकार की सभाओं और समितियों का उल्लेख मिलता है। मनुस्मृति के अनुसार गाँव के अधिकारी को ‘ग्रामिक’ कहते थे। उसका कार्य कर आदि की वसूली करना था। दस गाँव के ऊपर एक और कर्मचारी होता था जिसे ‘दशिक’ के नाम से जाना जाता था। 200 गाँव के ऊपर के कर्मचारी को ‘विशाधिप’ कहते थे। सौ गाँवों के ऊपर के कर्मचारी का नाम ‘शतपाल’ था। एक हजार गाँव के ऊपर के कर्मचारी का नाम ‘सहस्त्रपति’ था। विसेण्ट स्मिथ ने चोल शासक परान्तक ‘प्रथम’ (907 ईसवी से 949 ईसवी) के विषय में कहा है कि स्थानीय कार्यकलाप जैसे प्रशासन व न्याय सुव्यवस्थित समितियों या पंचायतों के द्वारा राज्य के आदेश से प्रशासित होता था। इस समय के शिलालेख बताते हैं कि स्थानीय समस्याओं को निपटाने के लिए बाग निरीक्षण, तालाब निरीक्षण, न्याय निरीक्षण तथा स्वर्ण निरीक्षण समितियों का गठन किया जाता था। प्रो. आलतेकर ने भी विभिन्न शिलालेखों का अध्ययन करने के बाद बताया कि गुजरात, महाराष्ट्र व कर्नाटक में ग्रामों की समस्याएँ सुलझाने के लिए ग्राम सभाएँ होती थी। चाणक्य ने अपने ‘अर्थशास्त्र’ ने आदर्श गाँव की चर्चा की है। इससे विदित होता है कि मध्य युग में स्थानीय प्रशासन व्यवस्था का चलन था। इस प्रकार हम देखते है कि प्राचीन भारत से लेकर मध्य युग के विभिन्न भागों में ऐसे स्वायशासी निकाय थे जो कि गाँव या गाँवों के समूह को प्रशासत करते थे। संक्षेप में, प्राचीन भारत ग्राम-पंचायतो के देश के रूप में जाना जाता रहा है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नागरिक सेवक सर चालर्स मेटकाफ ने 1830 में इन समुदायों के सम्बन्ध में कहा था, “ इन छोटे गणतन्त्रों में सभी इच्छित आवश्यकताएँ उपलब्ध थीं, विदेशी सम्बन्धों में ये लगभग स्वतन्त्र थे; ये ग्राम-समुदाय अपने आप में स्वतन्त्र छोटे राज्य थे, जिन्होने भारत के लोगो को होने वाली क्रान्तियों और परिवर्तनों में सुरक्षित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।” प्राचीन काल में आपसी झगड़ों के फैसले पंचायते ही करती थी। मुगलों ने भी प्रारम्भ में इस स्थानीय प्रशासनिक व्यवस्था में कोई हस्तक्षेप नहीं किया। उन्होंने इसका उपयोग अपने शासन को मजबूत करने के लिए किया। मुस्लिम सुल्तानों ने भारत की परम्परागत ग्राम संस्थाओं का उपयोग करना ही उचित समझा। लेकिन जब मुस्लिम शासकों के पैर यहाँ अच्छी तरह जम गये तो उन्होने जागीरदारी प्रथा आरम्भ की। इस अवस्था में जागीरदार राजस्व एकत्र करता था। इसने प्राचीन परम्परागत स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था को कमजोर किया और धीरे-धीरे पंचायती व्यवस्था का विनाश प्रारम्भ हो गया।
विकेन्द्रित प्रशासन के रूप में नगरीय संस्थाओं का संकेत चोल काल से मिलता है। नगरीय संस्थाओं की स्थापना सबसे पहले ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा की गयी थी। ब्रिटिश सरकार ने सर्वप्रथम 1688 में मद्रास के लिए नगर निगम नामक स्थानीय संस्था की स्थापना की। कलकत्ता और बम्बई ने 1772 और 1792 में स्वयं के नगर निगम स्थापित किये। ऐसी अन्य नगरीय स्थानीय सरकारे 1842 के बाद स्थापित हुई। नगर प्रशासन का उद्देश्य सार्वजनिक स्वास्थ्य और सफाई तक सीमित था ।
ग्रामीण स्वराज्य स्थापित करने की दिशा में 19वीं सदी में बम्बई और मद्रास में प्रारम्भिक प्रयास किये गये। किन्तु जिला अधिकारियों ने इसे प्रोत्साहित नही किया। 1864 में लॉर्ड लॉरेन्स ने इस सत्य को स्वीकार किया कि भारत के लोगों में अपने स्थानिय मामलों को चलाने की क्षमता है। 1871 और 1874 में निर्वाचित नगर संस्थाओं के लिए कानून पारित हुए। भारत में इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम 1882 में लॉर्ड रिपन के प्रस्ताव द्वारा उठाया गया । स्थानीय सरकार के इतिहास में दूसरा महत्वपूर्ण कदम 1909 में रॉयल कमीशन की रिपोर्ट के तहत विकेन्द्रीकरण पर उठाया गया। इसने स्वायत्त प्रशासन के विकास की सिफारिश प्रशासनिक हस्तान्तरण के साधन के रूप में की। 1919 के भारत सरकार अधिनियम में एक भाग स्थानीय स्वायत्त सरकार के प्रसार से सम्बन्धित था। द्वैध शासन (1921-37) के तहत प्रान्तीय सरकारों ने स्थानीय स्वशासन के विकास की दिशा में काफी रूचि दिखायी। ग्राम पंचायतों के विकास के लिए विभिन्न प्रान्तीय सरकारों ने कानून पारित किया। 1935 के अधिनियम के तहत प्रान्तीय स्वायत्तता के काल में स्थानीय संस्थाओं को लोकतान्त्रिक और शक्तिशाली बनाने की दिशा में प्रयास किये गये । स्वतन्त्रता के समय विभिन्न प्रान्तों में स्थानीय स्वशासन का स्वरूप लगभग एक जैसा था। जिला स्तर पर जिला परिषद, तहसील स्तर पर स्थानीय बोर्ड, नगरों में नगर परिषद, छोटे नगरों में अधिसूचित क्षेत्र समितियाँ तथा शहरों में नगर निगम स्थापित थे।
स्वाधीनता के बाद भारत में पंचायतों के महत्व को स्वीकार किया गया। भारत के संविधान निर्माता भी पंचायतों के महत्व से परिचित थे। अतः उन्होने 1950 के संविधान में निर्देश दिया कि “ग्राम-पंचायतों के निर्माण के लिए राज्य कदम उठायेगा और उन्हे इतनी शक्ति और अधिकार प्रदान करेगा कि वे (ग्राम-पंचायते) स्वशासन की इकाई के रूप में कार्य कर सकें।” इस प्रकार पंचायत का विषय राज्य के नीति-निर्देशक तत्वो के अन्तर्गत 40वें अनुच्छेद मैं समाविष्ट किया गया। अतः स्थानीय सरकार को संवैधानिक महत्व प्रदान किया गया परन्तु उन्हे संवैधानिक दर्जा प्रदान नहीं किया गया। स्वतन्त्रता के पश्चात् विभिन्न राज्यों में विभिन्न राजनीतिक दल सत्ता में आये। उन्होने पंचायतें स्थापित करने एवं उन्हे सशक्त बनाने के प्रयास किये, पंचायतें गठित भी हुई, परन्तु वास्तव में जमीनी तौर पर कुछ नही हुआ। वास्तव में स्वायत्त शासन की संस्थाएं नहीं बन सकी। अगर विभिन्न राज्यों में पंचायते बनी भी तो उन पर राज्य का नियन्त्रण रहा। पंचायतें अपने अस्तित्व के लिए राज्य सरकार पर निर्भर थी। इसलिए जो कार्य पंचायतों को सौपे गये उन्हे वे पूर्ण नहीं कर सकी और कुल मिलाकर सत्ता के विकेन्द्रीकरण की बात कागजों तक सीमित होकर रह गयी। दूसरे ग्राम स्तर पर पंचायत-नेतृत्व के प्रशिक्षण की उपेक्षा की गयी। अतः पंचायतों का जो हाल स्वतन्त्रता के पूर्व था उसमें कोई खास अन्तर नहीं आया । हाँ, स्वतन्त्र भारत की सरकार पर विभिन्न समितियों का गठन अवश्य किया गया। अप्रैल, 1949 में स्थानी य वित्तानुसन्धान समिति की रिपोर्ट प्रस्तुत की गई और 1953 में कर जाँच समिति की रिपोर्ट। स्वतन्त्रता के बाद योजनाओं का युग प्रारम्भ हुआ। देश के समक्ष अनेक समस्याएँ थीं। सरकार ने गाँवों में अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति का काम स्वयं अपने हाथ में ले लिया। इसलिए 1952 सामुदायिक विकास कार्यक्रम की शुरूआत हुई। वर्ष 1953 में सारे देश में ‘राष्ट्रीय विस्तार सेवा’ स्थापित की गयी। परन्तु 1990 के दशक में ही स्थानीय संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
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