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लोकपाल से आप क्या समझते हैं?
लोकपाल (Ombudsman) – ओम्बड्समैन का अर्थ ‘एक प्रतिनिधि, अभिकर्ता, अधिकारी अथवा आयुक्त है।’ ओम्बुड्समैन को ही भारत में लोकपाल कहा जाता है।
गार्नर के अनुसार “ओम्बुड्समैन अथवा लोकपाल का अर्थ संसद के एक अधिकारी से है जिसका संसद के अभिकर्ता के रूप में प्राथमिक कर्तव्य नागरिकों को प्रशासकीय शक्ति के दुरुपयोग से सुरक्षित रखना है।”
वस्तुतः लोकपाल का अभिप्राय एक ऐसे स्वतन्त्र व निष्पक्ष अधिकार सम्पन्न अधिकारी से है जो शीर्ष प्रशासनिक अधिकारियों व मंत्रियों के भ्रष्ट व अन्यायपूर्ण आचरण एवं व्यवहार की जाँच कर नागरिकों की रक्षा कर सके और स्वस्थ प्रशासन दे सके।
ओम्बड्समैन का सूत्रपात सर्वप्रथम सन् 1809 में स्वीडन में हुआ। इस पद पर नियुक्त करने का अधिकार वहाँ की संसद ‘रिक्सडैग’ (Riksdag) को है। इस पद पर किसी ऐसे व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है जिसे अपनी प्रशासनिक योग्यता और विधि प्रक्रिया सम्बन्धी गहन अनुभव के कारण ख्याति प्राप्त हो। इसका अर्थ यह है कि स्वीडन में ओम्बड्समैन का पद अत्यन्त उच्च और गरिमापूर्ण है। जिस व्यक्ति का इस पद पर चयन किया जाता है वह संसद द्वारा नियुक्त होने के कारण वहाँ के प्रशासनिक और विधायनी कार्यों पर अपनी दृष्टि रखता है और उस सम्बन्ध में उत्पन्न किसी भी प्रकार की शिकायत या कठिनाई को वैज्ञानिक ढंग से दूर करने का प्रयत्न करता है। स्वीडन की भाँति अन्य देशों में भी पद का सृजन किया गया।
भारत में लोकपाल –
भारतवर्ष में प्रशासनिक अव्यवस्था अनियमितताओं को रोकने के लिए अनेक गम्भीर कदम उठाए गए। सन् 1966 में प्रशासनिक सुधार आयोग (Administrative Reforms Commission) की नियुक्ति की गई जिसने प्रशासन में व्याप्त अव्यवस्था, कमियों, अनियमितताओं को दूर करने के लिए व्यापक सुझाव दिए। आयोग के सम्मुख जो प्रशासनिक कठिनाइयाँ रखी गईं उनमें से एक प्रशासनिक शिकायतों की निपटारे से सम्बन्धित भी थी । अतः आयोग ने यह सुझाव दिया कि प्रशासनिक शिकायतों और कठिनाइयों के निपटारे के लिए अन्य पश्चिमी देशों में प्रचलित ओम्बड्समैन की भाँति भारतवर्ष में भी लोकपाल और लोक आयुक्त (Lokpal and lok Ayukt) पद का सृजन किया जाए। लोकपाल का कार्य मन्त्रियों और सचिव (Ministers and Secretaries) के प्रशासनिक कार्यकलापों से सम्बन्धित शिकायतों की जाँच करना है और लोक आयुक्त का कार्य सचिवों के अधीनस्थ कर्मचारियों के प्रशासनिक कृत्यों से सम्बन्धित शिकायतों को सुनना और निपटाना है। भारत सरकार ने आयोग की सिफारिशों को मान लिया और लोकसभा में सन् 1968 में लोकपाल और लोक आयुक्त बिल 1968 (Lokpal and Lok Ayukt Bill 1968) प्रस्तुत किया गया। बिल को लोकसभा की अनुमति मिल गई परन्तु राज्यसभा का अनुमोदन होने से पूर्व ही लोकसभा भंग हो गई अतः बिल पारित होने से रह गया। इसके पश्चात् 1971, 1977, 1985 1989, 1996, 1998, 2001, 2005, व 2008 में लोकपाल विधेयक पेश किया गया परन्तु किसी न किसी कारण से यह पारित नहीं हो सका। 11 वीं बार 2011 में लाये गये लोकपाल विधेयक को 27 दिसम्बर 2011 को पारित कर दिया किन्तु राज्य सभा में इसे उस समय प्रवर समिति को सन्दर्भित किया गया जिसके द्वारा प्रस्तुत संशोधनों को स्वीकार कर 17 दिसम्बर 2013 को राज्य सभा में पारित किया गया और इन संशोधनों के साथ लोक सभा में इसे 18 दिसम्बर 2013 को पारित किया गया। इस प्रकार 46 वर्षों की प्रतीक्षा के पश्चात् देश में लोकपाल की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हो सका और लोकपाल एवं लोकायुक्त विधेयक 2011 पारित हो सका।
लोकपाल की संरचना एवं नियुक्ति –
प्रस्तावित लोकपाल में अध्यक्ष के अतिरिक्त अधिकतम 8 सदस्य होंगे। सर्वोच्च न्यायालय का कोई पूर्व मुख्य न्यायाधीश या सेवानिवृत्त न्यायाधीश या फिर कोई अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति इसका अध्यक्ष हो सकेगा। सदस्यों में से आधे न्यायिक पृष्ठभूमि से होने चाहिए इसके अतिरिक्त कम-से-कम आधे सदस्य अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ी जाति, अल्पसंख्यकों और महिलाओं में से होने चाहिए। कोई संसद सदस्य या किसी राज्य या केन्द्रशासित प्रदेश की विधान सभा का सदस्य या कोई ऐसा व्यक्ति जिसे किसी किस्म के नैतिक भ्रष्टाचार का दोषी पाया गया हो या कोई ऐसा व्यक्ति जिसकी उम्र अध्यक्ष या सदस्य का पद ग्रहण करने तक 45 वर्ष न हुई हो या किसी पंचायत या निगम का सदस्य ऐसा व्यक्ति जिसे राज्य या केन्द्र सरकार की नौकरी से बर्खास्त या हटाया गया हो, इसका सदस्य नहीं हो सकता।
लोकपाल कार्यालय में नियुक्ति समाप्त होने के बाद अध्यक्ष और सदस्यों लिए कुछ काम करने के लिए प्रतिबन्ध होगा। इनकी अध्यक्ष या सदस्य के रूप में पुनर्नियुक्ति नहीं हो सकती, इन्हें कोई कूटनीतिक जिम्मेदारी नहीं दी जा सकती इनके अतिरिक्त ऐसी कोई भी जिम्मेदारी या नियुक्ति इन्हें नहीं मिल सकती जिनके लिए राष्ट्रपति को अपने हस्ताक्षर और मुहर से वारंट जारी करना पड़े। पद छोड़ने के पाँच वर्ष बाद तक ये राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, संसद के किसी सदन, किसी राज्य विधान सभा या निगम या पंचायत के सदस्य के रूप में चुनाव नहीं लड़ सकते।
लोकपाल के अध्यक्ष व सदस्यों के लिए चयन समिति में प्रधानमंत्री अध्यक्ष होंगे, जबकि लोक सभा के अध्यक्ष, लोक सभा में विपक्ष के नेता, मुख्य न्यायाधीश या उनकी अनुशंसा पर नामित सुप्रीमकोर्ट के एक न्यायाधीश तथा राष्ट्रपति द्वारा नामित कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति सदस्य होंगे।
लोकपाल के कार्य-
लोकपाल के कार्य-क्षेत्र के अन्तर्गत उन सभी परिवादों को सुनना तथा जाँच करना है जिनके कारण किसी को हानि पहुँची है। लोकपाल किसी भी लोक कृत्यकारी के सम्बन्ध में किसी अभिकथन या आरोप के जाँच में यदि आवश्यक समझे तो किसी अन्य व्यक्ति के कार्य अथवा आचरण की जाँच कर सकता है। जहाँ कोई मामला अथवा अभिकथन पूर्ण रूप से अथवा आंशिक रूप से साबित नहीं होता तो लोकपाल उस मामले को बन्द कर देगा। यदि परिवाद में उल्लिखित अपराध किए जाने के पाँच वर्ष के भीतर परिवाद दायर किया गया है तभी लोकपाल उसकी जाँच करेगा। परिवाद एक विहित प्रारूप में होगा, तथा उसमें कथित अपराध का विवरण होगा। यदि परिवाद के बारे में प्रारम्भिक जाँच करने के बाद लोकपाल जाँच का पुन: प्रस्ताव रखता है तो वह-
(क) सम्बन्धित अधिकारी को परिवाद की एक प्रति तुरन्त भेजेगा।
(ख) जाँच से सुसंगत दस्तावेजों की निरापद अभिरक्षा के बारे में ऐसे आदेश करेगा। जो वह ठीक समझे।
(ग) परिवाद की एक प्रति वह सम्बन्धित जनसेवक को भेजेगा और उसे अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर देगा।
ऐसी प्रत्येक जाँच बन्द कमरे में की जायेगी जब तक कि समुचित आधार पर लोकपाल ऐसा न करने का निर्णय ले लेगा।
लोकायुक्त के कार्य-क्षेत्र के अन्तर्गत प्रशासनिक अधिकारी के ऐसे कुप्रशासन की जाँच करना भी जिससे किसी व्यक्ति को क्षति पहुँची हो। इसके अन्तर्गत प्रशासनिक अधिकारी का गलत या गैर-कानूनी व्यवहार भी हो सकता है। इसमें मुख्य रूप से निम्न बातें सम्मिलित हैं-
(1) कोई भी अनुचित विवेकहीन और भेदभावपूर्ण प्रशासनिक कृत्य (Administrative Act) हो सकता है।
(2) किसी विषय पर प्रशासनिक अधिकारी ने कार्यवाही करने में लापरवाही बरती हो या भूल की हो या विलम्ब किया हो।
अधिकार क्षेत्र-
लोकपाल को प्रधानमंत्री, केन्द्रीय मंत्रियों एवं सचिव स्तर तक की शिकायतें सुनने एवं उनकी जाँच पड़ताल करने का अधिकार है। इसके अतिरिक्त दीवानी प्रक्रिया. संहिता 1908 के तहत किसी वाद का विचारण करते समय न्यायालय की निम्न शक्ति भी प्राप्त होंगी-
(i) किसी व्यक्ति को समन जारी कर उसे हाजिर कराना और शपथ पर उसकी परीक्षा करना।
(ii) किसी दस्तावेज के प्रकटीकरण और पेश किए जाने की अपेक्षा करना।
(iii) शपथ पत्र पर साक्ष्य ग्रहण करना ।
(iv) किसी न्यायालय या कार्यालय से किसी लोक अभिलेख या उसकी प्रति को मँगवाना।
(v) साक्षियों या दस्तावेजों की परीक्षा के लिए कमीशन निकालना ।
(vi) ऐसे अन्य विषय जो विहित किए जाएँ।
यदि लोकपाल को यह विश्वास करने का कोई कारण है कि कोई दस्तावेज जो उसकी राय में जाँच के लिए सुसंगत है किसी स्थान में छिपाई हुई है तो वह अपने अधीनस्थ किसी अधिकारी या अन्वेषण अभिकरण के किसी अधिकारी को ऐसे दस्तावेजों के लिए तलाशी और उनका अभिग्रहण करने के लिए प्राधिकृत कर सकता है। पुनः यदि वह किसी जाँच के प्रयोजनों के लिए साक्ष्य समझता है और उसे अपनी अभिरक्षा में रखना आवश्यक समझता है तो उक्त दस्तावेज़ को ऐसी जाँच के पूरा होने तक रख सकता है।
लोकपाल के समक्ष कार्यवाही भारतीय दण्ड संहिता की धारा 193 के अर्थ में न्याययिक कार्यवाही समझी जाएगी। लोकपाल के समक्ष की कार्यवाही में बाधा पहुँचाना अथवा उसका अपमान करना एक संज्ञेय अपराध होगा । यदि कोई व्यक्ति लोकपाल के विरुद्ध अपवचन करता है तो ऐसा व्यक्ति दण्ड का भागी होगा।
लोकपाल के समक्ष की कार्यवाही न्यायिक रूप में संरक्षित रहेगी। कोई वाद अभियोजन अथवा विधिक कार्यवाही लोकपाल अथवा उसके अधीनस्थ किसी अधिकारी अथवा कर्मचारी अथवा अभिकरण के विरुद्ध उसके द्वारा सद्भाव से किए गए किसी कृत्य के लिए न्यायालय में नहीं दायर की जाएगी।
यद्यपि लोकपाल की व्यापक आलोचना भी होती है परन्तु 2011 के लोकपाल विधेयक के पारित होने के पश्चात् यह उम्मीद बँधी है कि, भारत में भी एक लोकपाल की नियुक्ति शीघ्र होगी जो देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को कम करने में सहयोग कर सकेगा।
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