लोक प्रशासन के आर्थिक परिवेश का विश्लेषण कीजिए।
लोक प्रशासन के आर्थिक परिवेश
स्वाधीनता के बाद भारत ने विकसित देशों से उधार ली गई अत्यधिक पूंजी प्रधान टेक्नोलॉजी को अपनाया। भारी उद्योगों के निर्माण के लिए विदेशी सहायता लेनी पड़ी और देश की अर्थव्यवस्था विदेशी निगमों के शिकंजे में फंसने लगी। आज देश की अर्थव्यवस्था पर बड़े औद्योगिक घरानों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों’ का प्रभाव सर्वत्र परिलक्षित होता है। जॉन कार्लसन और पीटर नीसें लिखते हैं कि “सरकार पर निजी क्षेत्र के व्यापारियों का प्रभाव बढ़ने के पीछे तथ्य यह है कि बहुधा महत्वपूर्ण उद्योगपति भी वैसे ही परिवार से आते हैं जिनसे वरिष्ठ अधिकारी। अक्सर अवकाश प्राप्त सरकारी अधिकारियों को निजी कम्पनियों में अच्छी नौकरियां मिल जाती हैं ताकि वे अपने सम्बन्धों और अन्दरूनी जानकारी का निचले के बजाय ऊपरी स्तर पर अच्छे-से-अच्छा इस्तेमाल कर सकें।”
भारतीय अर्थव्यवस्था के ‘आर्थिक परिवेश’ को निम्न विशेषताओं के संदर्भ में समझा जा सकता है-
कृषि की प्रधानता – भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रमुख विशेषता कृषि व्यवसाय की प्रधानता है। 1991 की जनगणना के अनुसार यहाँ की कुल कार्यशील जनसंख्या का 68 प्रतिशत कृषि व्यवसाय में (जबकि ब्रिटेन में 2 प्रतिशत, अमरीका में 3 प्रतिशत व कनाडा में 4 प्रतिशत जनसंख्या कृषि व्यवसाय में लगी है) तथा शेष 32 प्रतिशत उद्योग व सेवाओं में लगा हुआ है। कृषि व्यवसाय की प्रधानता इस तथ्य में भी प्रतिबिम्बित होती है कि भारत की अधिकतर जनसंख्या का निवास गाँवों में है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था- भारतीय अर्थव्यवस्था ग्रामीण है। यहाँ लगभग 6,05,224 गाँव व लगभग 3,949 नगर व शहर हैं। यहाँ की 74.3 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में निवास करती है। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रत्येक 4 व्यक्तियों में से 1 शहर में रहता है यह प्रतिशत अन्य देशों की तुलना में बहुत ही कम है। उदाहरण के लिए यूगोस्लाविया में 56 प्रतिशत, चीन में 56 प्रतिशत, अमरीका में 75 प्रतिशत, जापान में 77 प्रतिशित, ब्रिटेन में 80 प्रतिशत व्यक्ति शहर में रहते हैं।
प्रति व्यक्ति निम्न आय – भारतीय अर्थव्यवस्था की एक विशेषता यह है कि यहाँ प्रति व्यक्ति आय (विश्व के कुछ देशों को छोड़कर) बहुत ही निम्न है जो कि केवल 2,227 रु. वार्षिक अर्थात् मात्र 186 रुपये मासिक है। इस प्रकार तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाये तो भारत की प्रति व्यक्ति आय जहाँ 330 डालर है वहाँ स्विट्जरलैण्ड की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 33,610 डालर, जापान की 23,810 डालर, अमरीका की 22, 240 डालर तथा इंग्लैण्ड की 14,610 डालर है।
भारत में प्रति व्यक्ति आय कम होने से गरीबी व्याप्त है, लेकिन यह गरीबी और भी अधिक है क्योंकि एक अनुमान के अनुसार 20 प्रतिशत जनसंख्या को केवल एक ही समय भोजन मिल पाता है व 37.4 प्रतिशत जनसंख्या को कम पौष्टिक भोजन मिलता है।
व्यापक बेरोजगारी- भारत में व्यापक बेरोजगारी है और इसमें निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। अगस्त 1990 के अन्त में देश के रोजगार कार्यालयों में 3 करोड़ 42 लाख 86 हजार व्यक्तियों के नाम बेरोजगार के रूप में पंजीकृत थे, लेकिन योजना आयोग के अनुसार आठवीं योजना के अन्त में बेरोजगारों की संख्या 5 करोड़ 80 लाख हो जायेगी। व्यापक बेरोजगारी के साथ-साथ यहाँ पर अर्द्ध-रोजगार भी पाया जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो लोग यहाँ पर कार्य कर रहे हैं उनको भी पूरे समय कार्य करने के लिए काम की कमी है।
एकाधिकारी घरानों का विकास- स्वाधीनता के बाद ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ अपनायी गई। मिश्रित अर्थव्यवस्था में बहुत से उद्योग और व्यवसाय निजी हाथों में होते हैं। इन उद्योगों पर सरकारी नियंत्रण न्यूनतम होता है और कीमतें माँग एवं पूर्ति के नियमों के अधीन निर्धारित होती हैं। उद्योगपत्तियों के बीच जो प्रतियोगिता चलती है, उसकी वजह से कोई भी उत्पादक अपनी इच्छा से बाजार कीमत को प्रभावित नहीं कर सकता, पर यदि अर्थव्यवस्था पर उचित सरकारी नियंत्रण न रहे तो ‘एकाधिकार (Monopoly) की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है। भारत में एकाधिकारी औद्योगिक घराने 1950 के दशक में ही उभरने लगे थे। इन घरानों ने विशेष रूप से इंजीनियरिंग और रासायनिक उद्योगों में पूँजी निवेश किया। चूँकि इन उद्योगों को भारी निवेश की आवश्यकता थी, इसलिए इनमें बड़े उत्पादक ही प्रवेश कर सके। आर. के. हजारी के अनुसार 1951 और 1958 के बीच चोटी के चार व्यावसायिक घरानों का बड़ी तेजी से विकास हुआ। 1960 में महालनोबिस समिति ने औद्योगिक जगत में ‘एकाधिकार’ की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया था। बाद में एकाधिकार जाँच आयोग और औद्योगिक लाइसेंस नीति जाँच समिति ने भी इस सम्बन्ध में कई सिफारिशें कीं। इन उपायों के बावजूद बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों की परिसम्पत्ति में अपार वृद्धि हुई है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार वर्तमान में देश के 75 औद्योगिक घराने 1,536 कम्पनियों को नियंत्रित करते हैं जिनकी कुल परिसम्पत्तियां 2,60,5.95 करोड़ रुपेय आंकी गई हैं।
असंतुलित आर्थिक विकास- असंतुलित आर्थिक विकास भारत की आर्थिक नीतियों का नकारात्मक परिणाम है। आजादी के बाद देश के संतुलित क्षेत्रीय विकास की आवश्यकता महसूस की गई, फिर भी भारी क्षेत्रीय विषमताएं विद्यमान हैं। आर्थिक असंतुलन के कतिपय उदाहरण इस प्रकार हैं-
(1) विकास योजनाओं का लक्ष्य उत्पादन और रोजगार में वृद्धि लाना था, पर जैसा कि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री दंतवाला ने कहा है, “योजनाओं के अधिकतर लाभ राजनीतिक प्रभाव रखने वाले समृद्ध किसानों के पक्ष में मोड़ दिए गए और इन्होंने इन लाभों को हथिया लिया।”
(2) भारत में योजनाबद्ध आर्थिक विकास का मूल लक्ष्य यह था कि देश का सर्वांगीण विकास किया जाए। लेकिन असम और पूर्वोत्तर क्षेत्र की जनता की असली पीड़ा यह है कि पिछले 50 वर्षों में उनकी घोर आपेक्षा की गई है। 1980 के अन्त तक तक औद्योगिक विकास बैंक ने विभिन्न प्रदेशों को 5,391 करोड़ रु. की सहायता दी। इस राशि का केवल एक प्रतिशत भाग पूर्वोत्तर प्रदेशों के हिस्से में आया। दूसरी ओर महाराष्ट्र और गुजरात, इन दो राज्यों को कुल राशि का 32 प्रतिशत भाग मिला। बिहार में गरीबी रेखा से नीचे जी रहे लोगों की संख्या 54.96 प्रतिशत है।
(3) आदिवासी और पहाड़ी क्षेत्र आज भी अन्य प्रदेशों की अपेक्षा बहुत पिछड़े हुए हैं। बिहार, मध्य प्रदेश और उड़ीसा के आदिवासी क्षेत्रों के लिए 1971-72 में ‘आरम्भिक परियोजना’ (Pilot Project) नामक एक विशेष कार्यक्रम शुरू किया गया, पर वास्तविकता यह है कि आदिवासी क्षेत्र आज भी शोषण और उपेक्षा के शिकार हैं। बिहार का आदिवासी अंचल (संथाल परगना) सरकार की नई वन नीति के कारण परेशान है। वनों पर आदिवासियों के परम्परागत अधिकार समाप्त हो गए हैं और उनकी अधिकांश भूमि महाजनों के चंगुलों में है। वहाँ अधिकांश आदिवासी वन-श्रमिक बनने को मजबूर हो गए हैं। गुजरात, राजस्थान और तमिलनाडु के आदिवासी इलाकों के लोग मध्ययुगीन आर्थिक शोषण की स्थिति में रह रहे हैं।
क्षेत्रीय आर्थिक असंतुलन का अन्ततोगत्वा परिणाम हिंसा और अलगावाद है जिससे लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक अस्थिरता आती है तथा देश के दुर्लभ साधनों की बरबादी होती है। अतः यह जरूरी है कि क्षेत्रीय असंतुलन समाप्त किए जाएं और प्रगति का लाभ सब वर्गों व सभी क्षेत्रों को पहुँचे।
परम्परावादी समाज- भारतीय अर्थव्यवस्था का एक लक्षण यह है कि यहाँ का समाज रूढ़िवादी, भाग्यवादी व परम्परावादी है। यही कारण है कि यहाँ बहुत-सी कुरीतियों, जैसे- बाल-विवाह, मृत्यु भोज व अनेक सामाजिक परम्पराएं पायी जाती हैं जिनमें काफी धन व्यय कर दिया जाता है। ऐसी परम्पराओं व रीति-रिवाजों के कारण यहाँ का समाज सुखी जीवन व्यतीत नहीं कर पाता और अपने परिवार का जीवन-स्तर नहीं उठा पाता है।
‘जनांकिकीय विशेषताएं- भारत के लोक प्रशासन को जिन जनांकिकीय तत्वों ने प्रभावित किया है, उनमें जनसंख्या की भारी वृद्धि का विशेष स्थान है। 1921 में भारत की जनसंख्या 25.1 करोड़ थी, जो 1971 में दुगुनी से भी ज्यादा बढ़कर 54 करोड़ तक पहुँच गई। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 125 करोड़ है।
जनसंख्या की तीव्र वृद्धि का परिणाम यह हुआ है कि जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा उन सेवाओं पर आश्रित हो गया है जो सरकार द्वारा प्रदान की जाती हैं। शहरीकरण, औद्योगिक विस्तार और जनसंख्या वृद्धि का मिला-जुला प्रभाव यह हुआ कि परिवहन, संचार, वित्तीय उपयोगिता, शिक्षा, चिकित्सा, स्वास्थ्य तथा अन्य सेवाओं की मांग बहुत बढ़ गई है। जनसंख्या वृद्धि से नियोजन तथा यथेष्ट और उपयुक्त मानव संसाधन के विकास की आवश्यकता के कारण प्रशासनिक व्यवस्था पर अतिरिक्त बोझ आ पड़ा है। सरकार अनेक महत्वपूर्ण क्षेत्रों में आर्थिक और वाणिज्यिक गतिविधियों के विनियमन, नियोजन और प्रोत्साहन के साथ गहन रूप से जुड़ गई है, यहाँ तक कि वह इन गतिविधियों को स्वयं भी संभालने लगी है। भारत सरकार ने समाजवाद, कल्याण राज्य तथा अल्पसंख्यक वर्गों और आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्गों के लिए विविध सामाजिक सेवाओं के माध्यम से गरीबी हटाने का जो संकल्प किया है, उससे सरकारी तंत्र पर दबाव बहुत बढ़ गया है और वह (प्रशासन) नागरिक जीवन के नए-नए क्षेत्रों में प्रवेश करने लगा। नागरिक अपने जीवन के समस्त क्षेत्रों में प्रशासनिक गतिविधियों और नेतृत्व पर अधिक आश्रित होते जा रहे हैं। जिससे सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों की संख्या और बढ़ गई है।
शासन विस्तार का अनिवार्य परिणाम यह हुआ है कि प्रशासन-तंत्र, विशेषतः प्रशासन के निचले स्तरों पर कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि हुई है। सार्वजनिक सेवा में जरूरत से ज्यादा कर्मचारी रखने पर वित्तीय दृष्टि से राज्य पर बोझ पड़ता है, कर्मचारियों के मनोबल में गिरावट आती है और प्रशासनिक कार्य कुशलता में बाधा उत्पन्न होती है। सरकारी कर्मचारियों की संख्या बढ़ाए जाने से अर्थव्यवस्था में उत्पादनशील रोजगार की कमी की समस्या का भी कोई समाधान नहीं होता।
भारत के आर्थिक परिवेश में प्रशासन की रचनात्मक और सृजनात्मक भूमिका में वृद्धि होना स्वाभाविक है। प्रशासन को भूमि सुधार कार्यक्रमों को तेजी से लागू करना, ग्रामीण विकास के कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक क्रियान्वयन करना है, क्षेत्रीय आर्थिक असंतुलन को दूर करना है, सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार करते हुए सामाजिक परिवर्तन के उपकरण के रूप में महान दायित्व का निर्वाह करना है।
संक्षेप में, भारत में प्रचलित पूँजीवादी समाजवादी मिश्रित अर्थव्यवस्था में कोटा, परमिट, लाइसेंस राज की स्थापना होती है जिसमें प्रशासकों को ऐसी स्वविवेकी शक्तियों के प्रयोग का अधिकार मिलता है जिसकी परिणति भ्रष्टाचार और रिश्वखोरी में है होती है।
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