संगठन में समन्वय स्थापित करने की विधियां एवं इसकी बाधाओं का उल्लेख कीजिए ।
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समन्वय की विधियाँ
संगठन में समन्वय स्थापित करने की प्रधानतः दो विधियाँ हैं- औपचारिक तथा अनौपचारिक। अनेक औपचारिक तरीकों द्वारा संगठन स्थापित करने का कार्य किया जाता है।
पहला- औपचारिक तरीका नियोजन है। कार्यक्रम और व्यवहारों का पहले से ही नियोजन समन्वय का एक महत्वपूर्ण साधन है। कुछ लेखकों के अनुसार तो नियोजन राष्ट्रीय स्तर पर समन्वय का एक प्रयास है। हमारे देश में योजना आयोग तथा पंचवर्षीय योजनाएं, सम्पूर्ण आर्थिक क्रियाकलापों का समन्वय ही है।
द्वितीय- औपचारिक तरीका कतिपय संगठनात्मक तरीके होते हैं जिन्हें संस्थागत रूप देकर समन्वय का मार्ग सुगम बनाया जाता है। लोक प्रशासन के विभिन्न क्षेत्रों में सम्मेलन, समितियां, गोष्ठियाँ, अन्तर-विभागीय समितियां आदि कुछ ऐसे साधन होते हैं जिनके आधार पर संगठन के मतभेदों को दूर कर उनमें एकरूपता स्थापित की जा सकती है। भारत में प्रशासनिक समन्वय स्थापित करने वाले संगठनात्मक साधन कई प्रकार के हैं। योजना आयोग, क्षेत्रीय परिषदें, राष्ट्रीय विकास परिषद् केन्द्रीय सचिवालय, मंत्रिमण्डल की समितियां आदि समन्वय के कार्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
तृतीय- औपचारिक तरीका मंत्रिमण्डल तथा मण्डल सचिवालय है। प्रशासन में जितने महत्वपूर्ण विवाद उठते हैं उनके समाधान का मुख्य उत्तरदायित्व मंत्री पर होता है, किन्तु इस दिशा में असमर्थ होने पर ही विवादास्पद मामले को मंत्रिमण्डल के सामने रख देता है। जिन महत्वपूर्ण विषयों में मंत्रिमण्डलीय सचिवालय समन्वय के प्रयास करता है उनका सम्बन्ध प्रायः भारत सरकार या राज्य सरकारों के बीच प्रशासनिक क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों से रहता है।
चतुर्थ- समन्वय का औपचारिक तरीका अन्तर्विभागीय समितियां हैं। ये समितियां प्रशासन के विभिन्न स्तरों में प्रयुक्त की जाती हैं। अन्तर्विभागीय बैठकें, सम्मेलन तथा गोष्ठियों द्वारा भी समन्वय स्थापित किया जाता है। भारत में केन्द्रीय स्तर पर राज्यपालों, मुख्य मंत्रियों, खाद्य मंत्रियों आदि के सम्मेलनों द्वारा भी समन्वय का प्रयास सदैव होता रहता है। राज्य स्तर पर भी जिला कलेक्टरों के सम्मेलनों द्वारा समन्वय किया जाता है।
पंचम- समन्वय का औपचारिक तरीका वित्त मंत्रालय है। प्रशासनिक विभाग वित्त मंत्रालय से अपनी वित्त सम्बन्धी माँगें प्रस्तुत करते हैं और ऐसा करने में वे परस्पर समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाते हैं। यदि विभाग की प्रक्रियाओं में परस्पर विरोध हो और हितों का टकराव हो तो वित्त मंत्रालय का अंकुश उन्हें रास्ते पर ले आता है।
छठा – समन्वय का औपचारिक तरीका गृहपालन क्रियाएं हैं। फिफनर तथा प्रेस्थस ने लिखा है कि “प्रशासन में गृहपालन समस्या के अन्तर्गत प्रायः प्रदाय या पूर्ति, भण्डारागार- भवनों की सफाई और मरम्मत, छपाई, उपकरणों का नियंत्रण, केन्द्रीय डाक, परिवहन, खाद्य तथा टेलीफोन सेवा सम्मिलित हैं।” यदि इन सभी सेवाओं को एक पृथक् सम्भाग में केन्द्रित कर दिया जाए तो जो भी विभाग इससे लाभान्वित होने चाहिए, उनके बीच स्वतः ही समन्वय स्थापित हो जाएगा। भारत में केन्द्रीकृत गृहपालन के अन्तर्गत अनेक अभिकरण हैं, जैसे- महालेखा परीक्षक के अधीन लेखांकन एवं लेखा परीक्षक, सार्वजनिक निर्माण विभाग के अन्तर्गत भवनों का निर्माण, मरम्मत आदि।
सातवाँ- समन्वय का औपचारिक तरीका संचार साधन है। संचार साधनों द्वारा लिखित या अलिखित सूचनाओं, आज्ञाओं, निर्देशों आदि को एक अधिकारी से दूसरे अधिकारी तक पहुँचाया जाता है। सूचनाओं का प्रसार जितना अधिक प्रभावशाली होता है, समन्वय की प्रक्रिया उतनी ही सुगम बन जाती है। हेमेन ने लिखा है कि “उत्तम संचार विभिन्न क्रियाओं के समन्वय में अतुल सहायता पहुँचाते हैं।”
समन्वय के कुछ अनौपचारिक साधन भी हैं। ये साधन अनौपचारिक अथवा अशासकीय होते हुए भी औपचारिक विधियों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। ये विधियां निम्न प्रकार हैं-
(i) व्यक्तिगत सम्पर्क- अनौपचारिक साधनों में शायद सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्यक्तिगत सम्पर्क है, अर्थात् संगठन में अनौपचारिक सम्बन्धों का विकास। उदाहरण के लिए, एक जिला कलेक्टर जिले के विभागाध्यक्षों को लिखित शासकीय आदेश देकर सम्भवतः उनका उतना सहयोग प्राप्त नहीं कर सकता, जितना वह उन्हें अपने निवास स्थान पर भोज अथवा अल्पाहार पर आमंत्रित कर पा सकता है। चाय के कप पर अनौपचारिक सलाह- मशविरे द्वारा उलझी हुई समस्याओं को सुलझाया जा सकता है।
(ii) भावुकता भरी अपीलें – इस प्रकार संगठन के अध्यक्ष को समायोजन स्थापित करने के उद्देश्य से कभी-कभी भावुकता भरी अपीलों का सहारा भी लेना पड़ता है। इनके द्वारा वह संगठन के सदस्यों में टोली की भावना उत्पन्न करने की कोशिश करता है ताकि वे प्रशासन को सफल बनाने के लिए मिलकर कार्य करें।
(iii) राजनीतिक दल – शासन में राजनीतिक दल भी नीतियों, योजनाओं तथा कार्यक्रमों में समायोजन का अनौपचारिक कार्य करते हैं। भारत में सन् 1967 से 1970 तक तथा 1982 और 1989 के बाद केन्द्र-राज्य विवाद उग्र हुए क्योंकि अनौपचारिक समन्वयकर्ता के रूप में राजनीतिक दलों की भूमिका स्वल्प हो गयी। जब-जब हमारे देश में केन्द्र एवं राज्य स्तर पर एक दल सत्तारूढ़ रहा, तब तब सारे देश की नीतियों, योजनाओं तथा कार्यक्रमों में समायोजन रहा है।
समन्वय की बाधाएं
समन्वय का कार्य सरल नहीं है। समन्वय के मार्ग में निम्नलिखित बाधाएं हैं-
(i) संगठनों का आशातीत विकास समन्वय के मार्ग को जटिल बनाता है। कार्य अधिक बढ़ जाने से समन्वय स्थापित करना भी कठिन बन गया है। संगठन बड़ा होने से अधीनस्थ कर्मचारियों की संख्या अधिक हो जाती है तथा संचार साधनों की समस्या जटिल बन जाती है, अतः समन्वय का कार्य अत्यन्त कठिन हो जाता है।
(ii) समन्वय के मार्ग को जटिल बनाने वाली एक समस्या विशेषीकरण से सम्बन्धित है। वर्तमान संगठन में वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकासों के परिणामस्वरूप यह आवश्यक हो गया है कि कार्यों को विशेषज्ञों में विभाजित कर दिया जाए। ये विशेषज्ञ केवल अपने कार्य में ही संलग्न रहते हैं। अतः उनके बीच समन्वय स्थापित करना एक प्रमुख समस्या है। संक्षेप में, समन्वय के मार्ग में निम्न बाधाएं हैं- लोक प्रशासन आकार में वृद्धि, नवीन आवश्यकताओं तथा मांगों का प्रचार करने के लिए नए अभिकरणों की रचना करने की बढ़ती हुई प्रवृत्ति, नियंत्रण के विस्तार का संकुचित होना, कार्य को अपने से ऊपर के अधिकारी पर छोड़ने की अधीनस्थों की प्रवृत्ति, अधिकारी की ओर से अधिकारों के विकेन्द्रीकरण का अभाव आदि ।
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