सामाजिक परिवर्तन का अर्थ स्पष्ट कीजिये तथा परिभाषाएँ दीजिए।
सामाजिक परिवर्तन का अर्थ तथा परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Social Change)
‘परिवर्तन’ को अंग्रेजी के ‘चेन्ज’ (Change), ‘आल्टरेशन’ (Alteration) तथा ‘मोडिफिकेशन’ (Modification) आदि शब्दों से सम्बोधित किया जाता है। परिवर्तन किसी भी वस्तु, विषय या विचार में समय के अन्तराल से उत्पन्न हुई भिन्नता को कहते हैं। परिवर्तन तब और अब की स्थितियों के बीच पैदा हुए अन्तर को प्रकट करता । परिवर्तन एक बहुत विस्तृत अवधारणा है और यह जैविक, भौतिक तथा सामाजिक तीनों जगत में पाई जाती है, किन्तु जब परिवर्तन शब्द के पूर्व ‘सामाजिक’ शब्द जोड़कर उसे ‘सामाजिक परिवर्तन’ बना दिया जाता है तो निश्चित ही उसका अर्थ सीमित हो जाता है। सामाजिक परिवर्तन को हम सम्पूर्ण परिवर्तन का एक भाग कह सकते हैं, क्योंकि भौतिक तथा जैविक जगत में होने वाले परिवर्तनों को सामाजिक परिवर्तन के क्षेत्र के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता है। अतः प्रश्न उठता है कि सामाजिक परिवर्तन क्या है ? सामाजिक परिवर्तन का अर्थ सामाजिक संगठन, समाज की विभिन्न इकाइयों, सामाजिक सम्बन्धों, संस्थाओं इत्यादि में होने वाला परिवर्तन है। संगठन का निर्माण संरचना एवं कार्य दोनों से मिलकर होता है। सामाजिक प्रक्रियाओं तथा सामाजिक अन्तर्क्रियाओं में होने वाले परिवर्तनों को भी सामाजिक परिवर्तन ही कहा जाता है। प्रमुख समाजशास्त्रियों ने सामाजिक परिवर्तन की परिभाषाएँ निम्न प्रकार से दी हैं-
1. गिलिन तथा गिलिन (Gillin and Gillin) ने सामाजिक परिवर्तन की परिभाषा करते हुए लिखा है कि “सामाजिक परिवर्तन जीवन की स्वीकृत रीतियों में घटित परिवर्तन को कहते हैं, चाहे परिवर्तन भौगोलिक दशाओं, सांस्कृतिक साधनों, जनसंख्या की रचना अथवा विचारधाराओं में परिवर्तन से उत्पन्न हुआ हो, और चाहे प्रसार के द्वारा या समूह के अन्तर्गत हुए आविष्कारों के परिणामस्वरूप सम्भव हुआ है। “
2. मैरिल तथा एल्ड्रिज (Merrill and Eldredge) के शब्दों में— “अपने सर्वाधिक सही अर्थों में सामाजिक परिवर्तन का अर्थ है कि अधिक संख्या में व्यक्ति इस प्रकार के कार्यों में व्यस्त हों, जोकि उनके पूर्वजों के अथवा उनके अपने कार्यों से भिन्न हों, जिन्हें वे कुछ समय पूर्व तक करते थे। समाज का निर्माण प्रतिमानित मानवीय सम्बन्धों के एक विस्तृत तथा बटिल जाल से होता है, जिसमें सब लोग भाग लेते हैं। जब मानव व्यवहार संशोधन की प्रक्रिया में होता है तो यह, यह कहने का ही दूसरा तरीका है कि सामाजिक परिवर्तन हो रहा है। “
मैरिल तथा एल्ड्रिज ने अपनी उपर्युक्त परिभाषा में सामाजिक परिवर्तन को मानव क्रियाओं के सन्दर्भ में स्पष्ट किया है। समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है। ये सम्बन्ध समाज से मान्यता प्राप्त भी होते हैं और संस्थागत भी होते हैं। जब मनुष्यों के व्यवहार के प्रतिमानों अथवा सामाजिक सम्बन्धों में कोई परिवर्तन हो, तो हम उसे सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। सामाजिक अन्तर्क्रिया में परिवर्तन होने से मानव क्रियाएँ परिवर्तित होती हैं और मानव क्रियाओं में परिवर्तन होने से सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन हो जाता है। यही सामाजिक परिवर्तन है।
इस प्रकार, गिलिन तथा गिलिन के अनुसार, जीवन के स्वीकृत तरीकों में परिवर्तनों को हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। समाज में जीवन के स्वीकृत ढंग संस्थागत हो जाते हैं और इन्हीं संस्थागत प्रतिमानों में परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन कहलाता है। यह परिवर्तन किसी भी कारण से पैदा हो सकता है। हमारी भौगोलिक दशाएँ भी परिवर्तित होती रहती हैं। अतः हमारे जीवन के स्वीकृत तरीकों में परिवर्तन इन दशाओं में परिवर्तन के फलस्वरूप भी हो सकता है। हमारी संस्कृति भी सदैव परिवर्तनशील है और उसमें परिवर्तन समाज में परिवर्तन लाने के लिए उत्तरदायी है। सामाजिक परिवर्तन का कारण हमारी मनोधारणाओं एवं जनसंख्या की संरचना में परिवर्तन हो सकता है। साथ ही, मानव समाज में समय-समय पर नए-नए आविष्कार भी होते रहते हैं, जोकि सामाजिक परिवर्तनों के लिए उत्तरदायी होते हैं। यद्यपि कभी-कभी यह भी हो सकता है। कि समूह में कोई नया आविष्कार न हो पाए, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि समूह में परिवर्तन ही नहीं होते वरन ऐसी स्थिति में परिवर्तन दूसरे समूहों के सामाजिक-सांस्कृतिक तत्वों के प्रसार (Diffusion) के परिणामस्वरूप हो सकते हैं।
3. जोन्स (Jones) ने सामाजिक परिवर्तन की परिभाषा करते हुए लिखा है कि-“सामाजिक परिवर्तन वह शब्द है, जोकि सामाजिक प्रक्रियाओं, सामाजिक प्रतिमानों, सामाजिक अन्तर्क्रियाओं या सामाजिक संगठन के किसी भाग में घटित होने वाले हेर-फेर या संशोधन के लिए प्रयोग किया जाता है। “
जोन्स ने सामाजिक परिवर्तन को सामाजिक क्रिया में परिवर्तन माना है। समाज में अनेक क्रियाएँ कार्यरत रहती हैं, जैसे-संघर्ष, प्रतिस्पर्द्धा, विरोध, सहयोग इत्यादि। विविध सामाजिक क्रियाएँ एवं अन्तर्क्रियाएँ सामाजिक सम्बन्धों के ही विभिन्न रूपों को हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं। अतः सामाजिक क्रियाओं एवं अन्तर्क्रियाओं में परिवर्तन सामाजिक सम्बन्ध के ही विविध स्वरूपों में होने वाला परिवर्तन है। यही कारण है कि आगे अपनी परिभाषा में वह ‘सामाजिक प्रतिमान’ शब्द का प्रयोग करता है। सामाजिक प्रतिमान हमारे संस्थागत व्यवहार होते हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होते रहते हैं। ये सामाजिक व्यवहार के प्रतिमान सामाजिक अन्तर्क्रिया का परिणाम होते हैं। सामाजिक परिवर्तन का अभिप्राय सामाजिक संगठन में होने वाला परिवर्तन है अर्थात् व्यक्तियों की प्रस्थिति एवं कार्यों में होने वाला परिवर्तन भी है। जब व्यक्तियों की सामाजिक प्रस्थितियाँ परिवर्तित होती हैं तो उन प्रस्थितियों से सम्बन्धित कार्यों में भी परिवर्तन होने लगता है। इसी से सामाजिक संगठन में परिवर्तन होता है और इसी को सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।
4. मैकाइवर तथा पेज (MacIver and Page) समाज को सामाजिक सम्बन्धों का जाल कहते हैं और इन्हीं सामाजिक सम्बन्धों में होने वाले परिवर्तन को हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। मैकाइवर तथा पेज के अनुसार-समाजशास्त्री होने के नाते हमारा सीधा सम्बन्ध सामाजिक सम्बन्धों से है। अतः जिसे हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं, वह केवल इन्हीं (सामाजिक सम्बन्धों) में परिवर्तन है। “
5. डेविस (Davis) के अनुसार- “सामाजिक परिवर्तन से तात्पर्य केवल उन परिवर्तनों से है, जोकि सामाजिक संरचना (ढाँचे) एवं प्रकार्यों में होते हैं।”
किंग्स्ले डेविस की परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे केवल उन्हीं परिवर्तनों को सामाजिक परिवर्तन कहते हैं जोकि सामाजिक व्यवस्था में होते हैं। व्यक्तियों की प्रस्थिति तथा कार्यों से सामाजिक संस्थाओं और बहुत-सी सामाजिक समितियों का निर्माण होता है। वे सामाजिक समितियाँ तथा संस्थाएँ कुछ-न-कुछ कार्य करती हैं। इन्हीं संस्थाओं अथवा समितियों की एवं उनकी भूमिका में होने वाले परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। डेविस के अनुसार, क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इसलिए सामाजिक परिवर्तन का अर्थ मानवीय परिवर्तन है। समाज में होने वाला परिवर्तन व्यक्ति को परिवर्तित कर देता है। किसी समाज में विभिन्न व्यक्ति निरन्तर पारस्परिक क्रियाएँ करते रहते हैं, किन्तु इन क्रियाओं पर नियन्त्रण रखने वाली समाज की संरचना, पारस्परिक क्रियाओं के रूप तथा नियम बहुत लम्बी अवधि तक अपेक्षाकृत स्थायी बने रह सकते हैं। पारस्परिक क्रियाओं और संरचना में होने वाले परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन का निर्माण करते हैं।
सामाजिक परिवर्तन की विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रत्येक परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन नहीं है, अपितु सामाजिक परिवर्तन सामाजिक प्रस्थिति एवं कार्यों में होने वाला परिवर्तन है। सामाजिक संगठन संरचना एवं कार्य दोनों से मिलकर बनता है, इसलिए इनमें होने वाले परिवर्तन सामाजिक संगठन में परिवर्तन लाते हैं। ऐसे परिवर्तन भी सामाजिक परिवर्तन ही कहे जाएँगे। इसी प्रकार, सामाजिक संस्थाओं, सामाजिक प्रक्रियाओं, सामाजिक सम्बन्धों तथा सामाजिक अन्तर्क्रियाओं में परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन कहलाता है। उदाहरण के लिए, हिन्दुओं में नारी की परम्परागत सामाजिक प्रस्थिति में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। एक, उसे अपने भाइयों के समान ही पिता की सम्पत्ति में उत्तराधिकार का अधिकार मिला है, और दूसरे हिन्दुओं में तलाक का भी कानूनी प्रावधान किया गया है। ये दोनों ही बातें पहले हिन्दुओं में नहीं थीं। ये परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन हैं।
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