समाजशास्त्र एवं निर्देशन / SOCIOLOGY & GUIDANCE TOPICS

सामाजिक परिवर्तन से आप क्या समझते हैं ?

सामाजिक परिवर्तन से आप क्या समझते हैं ?
सामाजिक परिवर्तन से आप क्या समझते हैं ?

सामाजिक परिवर्तन से आप क्या समझते हैं ?

परिवर्तन जरूरी है क्योंकि यह प्रकृति का नियम है। संसार में कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है, जो स्थिर रहता हो। उसमें कुछ-न-कुछ परिवर्तन हमेशा होता रहता है। प्रकृति में जड़ एवं चेतन अर्थात् प्रत्येक जीव एवं सभी प्रकार की वस्तुओं में निरन्तरता और गतिशीलता इसी के द्वारा सम्भव हो जाती है। अतएव, स्थिर समाज की कल्पना करना भी आज के युग में सम्भव नहीं है। समाज में सामंजस्य स्थापित करने के लिए भी परिवर्तन आवश्यक है। मैकाइवर तथा पेज का कहना है कि, “समाज परिवर्तनशील तथा गत्यात्मक दोनों है।”

प्रत्येक प्रकार के परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन नहीं कहा जाता। सामाजिक परिवर्तन मनुष्य एवं समूह अथवा एक समूह तथा दूसरे के पारस्परिक सम्बन्धों में होने वाला परिवर्तन है। वास्तव में, समाज से सम्बन्धित विभिन्न पहलुओं, सामाजिक संरचना, सामाजिक प्रकार्यों तथा सामाजिक संस्थाओं, घटनाओं और प्रक्रियाओं में होने वाले परिवर्तन को ही सामाजिक परिवर्तन कहा जाता है।

जैविक आवश्यकताएँ यद्यपि एक-सी ही रहती हैं, तथापि उनकी सन्तुष्टि के ढंग तथा सामाजिक आवश्यकताएँ सदैव परिवर्तित होती रहती हैं। इस परिवर्तन के साथ ही सामाजिक प्रस्थिति और प्रकार्यों में भी परिवर्तन होता रहता है। अतः स्पष्ट है कि सामाजिक परिवर्तन भी एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यदि हम समाज में सामंजस्य तथा निरन्तरता को बनाए रखना चाहते हैं तो हमें यथास्थिति अपने व्यवहार को परिवर्तनशील बनाना ही होगा। समाज में होने वाले परिवर्तन इस बात के द्योतक हैं कि सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया स्वाभाविक है। यदि ऐसा न होता तो मानव समाज की इतनी प्रगति सम्भव न होती और मानव आज भी उसी आदिम अवस्था में होता, जिसमें नग्न रहना तथा कच्चा माँस खाना ही उसके जीवन का मुख्य लक्ष्य था।

सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा (Concept of Social Change)

परिवर्तन के अभाव में हमारी सामाजिक उपलब्धि, समाजीकरण, सामाजिक सीख तथा सामाजिक नियन्त्रण भी सम्भव नहीं है। निश्चित और निरन्तर परिवर्तन मानव समाज की विशेषता है। सामाजिक परिवर्तन का विरोध होता है, क्योंकि समाज में रूढ़िवादी तत्व प्राचीनता से ही चिपटे रहना पसन्द करते हैं। स्त्री स्वतन्त्रता तथा समान अधिकार की कुछ भावना, स्त्रियों की शिक्षा, पर्दा प्रथा की समाप्ति, स्त्रियों का आत्म-निर्भर होना, दलितों, अन्त्यजों और निम्न जातियों की प्रगति आदि अनेक परिवर्तनों को आज भी समाज के कुछ तत्व स्वीकार नहीं कर पाते हैं, फिर भी इनमें परिवर्तन होता जा रहा है। वास्तव में, प्रत्येक समाज में दो प्रकार की शक्तियाँ पाई जाती हैं—पहली, वे जोकि समाज में यथास्थिति बनाए रखना चाहती हैं, तथा दूसरी, वे जोकि समाज को परिवर्तित करना चाहती हैं। दोनों में सामंजस्य होना समाज में निरन्तरता के लिए अनिवार्य है। लूमले (Lumley) के अनुसार, कई कारणों से सामाजिक परिवर्तन अवश्यम्भावी रहा है और है। यदि हम इतिहास पर नजर डालें तो लूमले के विचारों की पुष्टि होती दीख पड़ती है और यही कारण है कि आज समाज परिवर्तन का सम्मान करता है। ग्रीन के अनुसार, “परिवर्तन से सामंजस्य स्थापित करना ही हमारे जीवन का ढंग बन चुका है।” इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि सामाजिक परिवर्तन स्वाभाविक है और अवश्यम्भावी है। परिवर्तनविहीन समाज अथवा सृष्टि के किसी भी उपादान की कल्पना ही हास्यास्पद है।

सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या तथा विश्लेषण को समाजशास्त्रियों ने अत्यधिक महत्वपूर्ण मानते हुए इसे समाजशास्त्र की विषय-वस्तु (Subject-matter) का एक अंग बताया है। ऑगस्त कॉम्ट (Auguste Comte) ने समाजशास्त्र की विषय-वस्तु को निम्न दो प्रमुख भागों में विभक्त किया है-प्रथम, सामाजिक स्थैतिकी (Social statics), जिसमें महत्वपूर्ण सामाजिक संस्थाओं का अध्ययन किया जाता है, तथा द्वितीय, सामाजिक गत्यात्मकता (Social dynamics), जिसमें सामाजिक विकास तथा सामाजिक परिवर्तन का अध्ययन किया जाता है।

बीसवीं शताब्दी में ‘उद्विकास’, ‘विकास’ तथा ‘प्रगति’ की अवधारणाओं के प्रयोग के साथ जुड़ी हुई कठिनाइयों के फलस्वरूप ‘सामाजिक परिवर्तन’ शब्द का अधिक प्रयोग किया जाने लगा है, जोकि मानव समाजों में सभी ऐतिहासिक परिवर्तनों को व्यक्त करता है। सन् 1922 में डब्ल्यू० एफ० ऑगवर्न (W. F. Obgurn) की पुस्तक सोशल चेन्ज (Social Change) के प्रकाशन से इस अधिक तटस्थ शब्द का प्रयोग सामान्य रूप में किया जाने लगा है।

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Anjali Yadav

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