राजनीति विज्ञान / Political Science

सार्वजनिक वित्त (बजट) पर संसदीय नियंत्रण

सार्वजनिक वित्त (बजट) पर संसदीय नियंत्रण
सार्वजनिक वित्त (बजट) पर संसदीय नियंत्रण

सार्वजनिक वित्त (बजट) पर संसदीय नियंत्रण को स्पष्ट कीजिए।

सार्वजनिक वित्त (बजट) पर संसदीय नियंत्रण

यह कथन पूर्णतः सत्य है। कि बजट व्यवस्था वित्तीय प्रशासन का आधार स्तम्भ है। वित्तीय प्रशासन में पूर्णता एवं स्थायित्व का तत्व तब तक नहीं आ सकता है जब तक बजट का कोई सुदृढ़ सिद्धांत न हो। यह निर्धारित करना सरल नहीं है कि बजट के कौन-कौन से सर्वमान्य सिद्धांत अपनाये जायें। फिर भी बजट- निर्माण के लिए कुछ सिद्धांतों को अपनाया जाना आवश्यक हो जाता है। विभिन्न देशों में अपनाये गये बजट-निर्माण सम्बन्धी निम्नलिखित सिद्धांत उभरकर सामने आते हैं- बजट सन्तुलित हो, आय-व्यय का अनुमान वास्तविकता पर आधारित हो, वार्षिक बजट की व्यवस्था हो, आय तथा व्यय को उसी वर्ष बजट में सम्मिलित किया जाये, बजट का निर्माण सकल आय पर हो, बजट निर्माण का उत्तरदायित्व कार्यपालिका पर हो, शासन के समस्त लेन-देन के लिए एक ही बजट हो, बजट नकदी आधार पर हो, वित्तीय परिणामों का आय-व्यय में उल्लेख हो ।

1. बजट निर्माण कार्यपालिका के नियंत्रण में – कार्यपालिका का कार्य बजट के साथ शुरू होता है व वह इस पर नियंत्रण रखती है।

2. कार्यपालिका का उत्तरदायित्व – विनियोजन का अर्थ यह नहीं है कि व्यय करना ही है। मुख्य कार्यपालिका को यह देखना चाहिए कि विभागीय कार्यक्रम द्वारा विधानमण्डल (जो व्यय का अधिकार देता है) का अभिप्राय पूर्ण होता है, और कार्यक्रम के निष्पादन में यथोचित मितव्ययता का पालन किया जाता या नहीं।

3. प्रतिवेदन- बजट सम्बन्धी प्रक्रियाएँ, जैसे- अनुमानों को तैयार करना, विधायी कार्रवाई तथा बजट का निष्पादन प्रशासन के सभी स्तरों से प्राप्त होने वाली वित्तीय एवं प्रवर्तन सम्बन्धी सूचनाओं पर आधारित होना चाहिए। इन प्रतिवेदनों के बिना बजट कार्य अन्धा और निरंकुश होता है।

4. समुचित उपकरण- मुख्य कार्यपालिका पर बजट सम्बन्धी उत्तरदायित्व होने के कारण उसे बजट-निर्माण हेतु कुछ प्रशासकीय उपकरण प्राप्त होने चाहिए, जैसे- उसके पास एक बजट कार्यालय के अतिरिक्त विनियोजनों के मासिक या त्रैमासिक आबंटन को निश्चित करने की सत्ता भी होनी चाहिए।

5. विविध प्रक्रियाएँ- बजट में सभी सरकारी कार्यों की झलक या सूचना होती हैं। फिर भी, बजट बनाने की रीतियाँ कार्यों की प्रकृति के अनुसार बदलती हैं। इस प्रकार अर्थ-वाणिज्य सम्बन्धी क्रियाकलापों का बजट निर्माण प्रशासकीय कार्यों के बजट-निर्माण से भिन्न होता है।

6. कार्यपालिका का स्वविवेक- विभागों के मोटे तौर पर निर्धारित कार्यों के लिए विनियोजन किया जाना चाहिए जिससे मुख्य उद्देश्य प्राप्त करने के लिए, आवश्यक कार्यों के लिए तथा उपयुक्त साधन चुनने के लिए कार्यपालिका को पर्याप्त अवसर प्राप्त हो सकें।

7. समय में लोच- बजट में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि वह बदलती हुई सामाजिक व आर्थिक स्थिति के प्रकाश में उसमें आवश्यक परिवर्तन कर सके।

8. द्विमार्गी बजट संगठन- यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि कुशलता के साथ बजट बनाने का कार्य सभी विभागों के सहयोग पर निर्भर करता है। अतः प्रत्येक कार्यालय में एक बजट कार्यालय होना चाहिए जो उस अभिकरण के लिए वैसे ही कार्य कर सके जैसे बजट का शासकीय कार्यालय करता है। अभिकरण के बजट तथा कार्यक्रम बनाने के कार्य अभिकरण के प्रमुख के प्रत्यक्ष उत्तरदायित्व में पारम्परिक रूप में सम्पादित होने चाहिए। कुशल बजट अधिकारी अभिकरण के विषय के अनुविभागों पर प्रशासकीय नियन्त्रण द्वारा अपने वरिष्ठ अधिकारी की सहायता करता है। वह अभिकरण के विचारों तथा प्रस्तावों को केन्द्रीय बजट कार्यालय को भेजता है। बजट निर्माण केवल एक केन्द्रीय कार्य नहीं है, बल्कि एक ऐसी प्रक्रिया है जिसका सम्पूर्ण प्रशासकीय संरचना में प्रवेश होना चाहिए। केन्द्रीय तथा अभिकरण कार्यालय में, जो बजट तथा कार्यक्रम बनाने के लिए उत्तरदायी होते हैं, आवागमन द्विमार्गी होना चाहिए न कि एकमार्गी ।

बजट – विधायी नियन्त्रण का एक उपकरण

जैसा कि विदित है, बजट सार्वजनिक धन पर नियंत्रण का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण है। सार्वजनिक धन पर नियंत्रण करके विधानमण्डल कार्यपालिका पर नियंत्रण रख सकता है। इस नियंत्रण का इतिहास स्वयं प्रजातंत्र के विकास के ही अनुरूप है। प्रारम्भ में यह नियंत्रण केवल राजस्व वृद्धि तक ही सीमित था, किन्तु कालान्तर में यह नियंत्रण विस्तृत होता गया और व्यय भी उसकी परिधि में आ गये। इस प्रकार विधायी नियंत्रण यह प्रकट करता है कि कोई भी कर उसकी पूर्वानुमति के बिना एकत्र नहीं किया जा सकता और न कोई व्यय ही उसके पूर्वानुमोदन के बिना किया जा सकता है। यह विधायी नियंत्रण कुछ सिद्धांतों के रूप में प्रकट हुआ है, जो कार्यपालिका को नियंत्रित रखने में संसदीय महत्वाकांक्षा पर प्रकाश डालता है।

विधानमण्डल की स्वीकृति

लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जनता द्वारा चुनी गयी सभा के पूर्वानुमोदन के बिना न तो कोई कर लगाया जा सकता है और न ही कोई खर्च किया जा सकता है। संविधान के अनुच्छेद 112 में प्रावधान है कि राष्ट्रपति वर्ष वित्त विवरण संसद के दोनों सदनों के सम्मुख प्रस्तुत करायेगा। बजट को संसद का अनुमोदन प्राप्त करने के लिए वित्त- विवरण को निम्नलिखित चरणों से होकर गुजरना होता है।

1. विधानमण्डल के सम्मुख प्रस्तुतीकरण – लोकतान्त्रिक देशों में कार्यपालिका द्वारा तैयार किये जाने के बाद बजट संसद में स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किया जाता है। बजट प्रस्तुत करने का दायित्व मंत्रिमण्डल का होता है। आमतौर पर भारतीय संसद का बजट सत्र फरवरी माह के अन्त में प्रारम्भ होता है। इसी अधिवेशन में भारत के दोनों बजट-रेलवे बजट तथा सामान्य बजट- प्रस्तुत किये जाते हैं। रेलवे बजट रेल-मंत्री द्वारा प्रस्तुत किया जाता है जिसमें रेलों की आय-व्यय, उनकी माँगें, रेलमंत्री का भाषण आदि सम्मिलित होते हैं। सामान्य बजट वित्त मंत्री द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। वित्त मंत्री अपना बजट अभिभाषण पढ़ता है। बजट भाषण की छपी हुई प्रतियाँ पहले ही सदस्यों को दे दी जाती हैं। बजट में दोनों प्रकार के व्ययों को अलग-अलग करके रखा जाता है। प्रथम प्रकार के व्यय वे हैं जो भारत की संचित निधि में से किये जाते हैं । द्वितीय प्रकार के व्यय वे होते हैं जो भारत की संचित निधि पर भारित होते हैं।

2. बजट पर सामान्य चर्चा – संसद में बजट प्रस्तुत किये जाने के बाद उस दिन उस पर कोई चर्चा नहीं होती इसके लिए लोकसभा का अध्यक्ष सामान्य चर्चा की तारीख निर्धारित करता है। बजट पर चर्चा करने के लिए सदस्यों को 3-4 दिन का समय मिलता है। इस आम चर्चा में सदस्यों को शासन की नीति पर बहस तथा आलोचना करने का अवसर मिलता है। । सामान्य चर्चा के दौरान न तो कोई प्रस्ताव रखा जाता है और न ही मतदान के लिए बजट संसद के समक्ष रखा जाता है। यह चर्चा राजनीतिक अधिक, वित्तीय कम होती है। सामान्य चर्चा संसद के दोनों सदनों में एक साथ चलती है। जब वाद-विवाद समाप्त हो जाता है तब वित्त मंत्री सभी प्रकार की आलोचनाओं का उत्तर देता है।

3. माँगों पर बहस तथा उन पर मतदान – सामान्य चर्चा समाप्त हो जाने तथा लेखानुदान पारित हो जाने के बाद लोकसभा में एक-एक माँग पर अलग-अलग मतदान होता है। इस प्रकार बजट का समस्त व्यय-भाग इस मतदान के अन्तर्गत आ जाता है। प्रत्येक विभाग से सम्बन्धित माँग के प्रस्तुत होने पर जोरदार वाद-विवाद होता है। इस वाद-विवाद के समय विपक्ष सम्बन्धित विभाग एवं उसकी नीतियों की जमकर आलोचना करता है। सम्बन्धित मंत्री उनकी आलोचनाओं और आरोपों का उत्तर देता है। इसके बाद उस विभाग की माँगों पर मतदान होता है। माँगों पर बहस एवं उस पर मतदान होने में लगभग 22 दिन का समय लग जाता है। वर्तमान में यह व्यवस्था बदल गयी है। 20 स्थायी सदस्यों की एक समिति बना दी गयी है जो प्रत्येक मद के ब्यौरे पर विचार करती है।

4. विनियोजन विधेयक पर विचार-विमर्श और स्वीकृति – जब सदन के द्वारा अनुदान स्वीकृत हो जाता है तो विनियोजन विधेयक प्रस्तुत किया जाता है। विनियोजन विधेयक का उद्देश्य उस राशि को प्रशासकीय विभागों को उपलब्ध कराना है जो राशि अनुदान के रूप में सदन के द्वारा स्वीकृत की गयी है। शासन केवल वही राशि व्यय कर सकता है जो विनियोजन अधिनियम द्वारा संसद ने उसको दी है। मूल रूप से दी गयी राशि से जब शासन का काम नहीं चलता है तो सरकार को पूरक अनुदान लेना पड़ता है। नियंत्रण एवं महालेखा परीक्षक और वित्त मंत्रालय इस बात पर कड़ी निगाह रखते हैं कि शासन का व्यय उसी विषय पर उतना ही हुआ है जितना विनियोजन अधिनियम ने निर्धारित किया था।

विनियोजन विधेयक पर विचार करने व उसको पारित करने में तथा वित्त-विधेयक पर विचार करने व उसको पारित करने में लगभग पाँच दिन का समय लगता है। विनियोजन विधेयक वित्त मंत्री द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। इस विधेयक पर कोई बहस इसलिए नहीं होती क्योंकि अनुदान माँगों को स्वीकृत करने से पहले ही सदन में काफी बहस हो चुकी होती है। हाँ, अनुदान की माँग को स्वीकृत करने के बाद और विनियोजन विधेयक प्रस्तुत करने के पूर्व यदि कोई विशेष बात हो गयी होती है तो बहस की आवश्यकता अनुभव की जाती है। दो-तीन दिन में विनियोजन विधेयक पारित हो जाता है। लोकसभा में पारित होने के बाद विधेयक राज्यसभा को भेजा जाता है। 14 दिन के अन्दर राज्यसभा को विनियोजन विधेयक पास करना होता है। दोनों सदनों में पारित होने के बाद विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति एक औपचारिकता मात्र है।

5. वित्त विधेयक पर स्वीकृति- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 263 में निर्धारित किया गया है कि कोई भी कर संसद की स्वीकृति के बिना न तो लगाया जा सकता है और न ही वसूल किया जा सकता है।

यहाँ यह स्मरणीय है कि जब विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है तो राष्ट्रपति उस पर हस्ताक्षर कर विधेयक को लौटा देता है या फिर अपनी सिफारिशों के साथ 5 या 10 दिन के भीतर उसे लोकसभा को लौटाना होता है। यदि सिफारिशों के साथ विधेयक वापस होता है तो लोकसभा को इस पर पुनर्विचार करना ही पड़ता है। यह आवश्यक नहीं कि लोकसभा राष्ट्रपति के सुझावों को स्वीकार ही करे। लोकसभा मूल रूप में ही विधेयक को पारित करके राष्ट्रपति को पुनः हस्ताक्षर के लिए भेज देती है। निर्धारित अवधि में राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर कर दे तो ठीक अन्यथा अवधि की समाप्ति के पश्चात् वित्त विधेयक स्वतः कानून बन जाता है। राष्ट्रपति का यह विशेषाधिकार सैद्धांतिक महत्व का विषय है। व्यवहार में राष्ट्रपति ऐसा करता नहीं है। संसदीय लोकतंत्र की मर्यादाओं को मानते हुए राष्ट्रपति वित्त-विधेयक पर हस्ताक्षर कर देता है।

बजट का क्रियान्वयन

संसद की स्वीकृति और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद बजट को क्रियान्वित करने की प्रक्रिया आरम्भ होती है। बजट के क्रियान्वयन में पाँच प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं।

1. कर-निर्णय एवं एकत्रीकरण – वित्त विधेयक में प्रस्तावित कर प्रस्तावों के अन्तर्गत सम्भावित आय-प्राप्ति का अनुमान करना होता है तथा उसके बाद कर वसूली का कार्य किया जाता है।

2. कोष-संरक्षण – जो राजस्व एकत्र कर लिया गया है या एकत्र किया जाना है। उसे सुरिक्षत रखने का प्रश्न भी महत्वपूर्ण है। धन के संरक्षण तथा संवितरण की व्यवस्थाएँ हर देश मैं अपनी ऐतिहासिक परम्पराओं के परिप्रेक्ष्य में विकसित की जाती हैं।

3. निधियों का वितरण- संसद तथा विधानमण्डलों द्वारा विभिन्न विभागों के 1 लिए जो अनुदान स्वीकार किये जाते हैं तथा शासन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जिस धन की आवश्यकता होती है उसके लिए धन निकालने या वितरण करने का प्रश्न अपने आप में महत्वपूर्ण होता है।

4. वित्तीय कोष का लेखांकन – वित्तीय कोषों के लेखांकन से तात्पर्य वित्तीय लेन-देन का क्रमबद्ध एवं सम्पूर्ण हिसाब-किताब रखना है।

5. लेखा-परीक्षण – यह बजट के कार्यान्वयन का अन्तिम एवं महत्वपूर्ण चरण है। इसके अन्तर्गत इस बात का पता लगाया जाता है कि विभाग ने या प्रशासन ने विनियोजित राशि को धाराओं के अनुसार व्यय किया है अथवा नहीं

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Anjali Yadav

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