प्रशासन के सामाजिक परिवेश की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
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प्रशासन का सामाजिक परिवेश
जाति – भारतीय समाज की संरचना के आधार जाति (वर्ण) और उपजाति (उप- वर्ण) हैं। ये भारत की आदिम और विशिष्ट समाजशास्त्रीय इकाई हैं। वर्णाश्रम एक दूसरा शब्द है जो हिन्दू जाति का सामाजिक आधार है जिसकी आबादी भारत की कुल जनसंख्या का 80 प्रतिशत है। वर्णाश्रम व्यवस्था स्तरीकृत और विभाजित है। पहले व्यापक चार जाति समूह- वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) हैं। इसके बाद उपवर्ण (जाति) हैं, प्रत्येक भाषायी क्षेत्र में 200 से 300 तक उपवर्ण या जातियां हैं। सन् 1901 की जनगणना में भारत में कुल 2,738 जातियां थीं। सम्भवतः वर्ण व्यवस्था का सूत्रपात श्रम और व्यावसायिक वर्गों के विभाजन से हुआ था जो कालान्तर में जन्म पर आधारित कमोवेश सख्त अन्तर्विवाही बन गया। आज यह कर्मकाण्ड, विवाह और वंशागत अन्य सामाजिक परम्परा एवं रीति-रिवाजों तथा अन्तरजातीय गतिविधियों से सम्बद्ध है। “वर्ण व्यवस्था का सबसे हानिकारक पक्ष है- पिछड़ी जातियों के प्रति छुआछूत का व्यवहार। उनकी उपस्थिति, स्पर्श या सम्पर्क को अपवित्रता का कारण माना जाता है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से ही सभी राजनीतिक गतिविधियों जैसे- चुनाव, राजनीतिक नियुक्तियों, दलों, इत्यादि में जाति का प्रभाव बढ़ रहा है और यह एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है।
अनेक क्षेत्रों में अधिकांश तथाकथित पिछड़ी जातियाँ और मध्यम जातियां तीनों द्विज वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य से निम्न वर्ण हैं मगर समाज और राज-व्यवस्था में प्रभावी और प्रमुख पदों पर हैं। कुछ अन्य क्षेत्रों में उच्च जातियां भी प्रभावी जातियाँ हैं। कहीं-कहीं उच्च जातियों के साथ-साथ एक या दो पिछड़ी जातियां भी प्रभावी और प्रमुख जातियां हैं। भारत के प्रत्येक राज्य और क्षेत्र में अधिक भूमि पर अधिकार रखने वाली कुछ जातियों की शक्ति और प्रभाव तथा महत्त्व को दूसरों ने भी स्वीकार किया है। उदाहरणार्थ, अधिक भूमि पर अधिकार रखने वाली उत्तर प्रदेश की प्रमुख जाति ठाकुर, राजपूत, जाट, अहीर, गूजर, कुर्मी हैं। बिहार में भूमिधर, ब्राह्मण, कायस्थ, राजपूत और कोयरी, राजस्थान में ब्राह्मण और निम्न जाति बेलाला तथा तमिलनाडु में व्यवसाय पर नियंत्रण रखने वाले चेटियार व मुदालियर एवं दो निम्न जातियां नादार व वेनियार राजनीतिक रूप से बहुत अधिक सक्रिय एवं प्रभावी हैं।
जातिवाद संकीर्ण राजनीतिक लाभ और स्वार्थ के लिए मूल जातीय चेतना का अनुचित शोषण है। वह अपने व्यस्त स्वार्थ के उद्देश्य से राजनीतिक सौदेबाजी और सत्ता हथियाने के लिए जाति को एक बुनियादी और प्रासंगिक समूह मानता है। जाति उसके लिए निर्वाचन का क्षेत्र है। यह जाति को सुसंबद्ध सामाजिक, सांस्कृतिक एकता का बहुत बड़े परिवार और गोत्र के रूप में देखता है जिसकी रक्षा और प्रगति का दायित्व उसका मूलभूत कर्तव्य है। अर्थात् वह जाति पर अपना प्रभाव जताने के लिए ऐसा ढोंग रचता है जिससे लगता है कि वह जाति की रक्षा और प्रगति के लिए काफी उद्वेलित है।
भारत की राजनीतिक संरचना और प्रक्रियाएं लोकतांत्रिक हैं। मगर विस्तृत ग्रामीण क्षेत्र में इसका सामाजिक आधार पूर्व-लोकतान्त्रिक है अर्थात् सामन्ती, जातिवादी है और साम्प्रदायिक है। यह पूर्व लोकतांत्रिक समाजशास्त्रीय आधार लोकतांत्रिक राजनीति की प्रक्रिया को प्रभावित करता है।
प्रो. आर. बी. जैन लिखते हैं, “जनजातीय, भाषाई, धार्मिक, क्षेत्रीय और जातिगत निष्ठा भारतीय समाज की आधार रचना की मूल विशेषता है। इसने यहाँ की राजनीतिक एवं प्रशासनिक प्रणाली पर गहरी छाप डाली है और विकास की प्रक्रियाओं को प्रभावित किया है। ” सामाजिक संगठन की एक प्रमुख विशेषता के नाते जाति प्रथा ने यहाँ की विकास प्रक्रियाओं में बाधा उपस्थित की है और वह यहाँ के पिछड़ेपन अथवा आर्थिक विषमता का मुख्य कारण सिद्ध हुई है। भारत की जाति प्रथा जिस रूप में उभरकर सामने आई, उसने समाज को सामाजिक दृष्टि से ऊंचे-नीचे स्तरों में बांट दिया, राजनीतिक दृष्टि से भ्रष्ट कर दिया और आर्थिक दृष्टि से कमजोर बना दिया।
स्वाधीनता के बाद जाति प्रथा का राजनीतिकरण प्रारम्भ हुआ। राजनीतिकरण की इस प्रक्रिया में न केवल उच्च जातियाँ बल्कि तथाकथित निम्न जातियां भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगी। समाज के दलित वर्गों के कल्याण के लिए राज्य ने उन्हें आरक्षण प्रदान करने की व्यवस्था की। इन समुदायों को ये आरक्षण (रियायतें) केवल सीमित समय के लिए अर्थात् संक्रमण काल के लिए दी गई थीं, परन्तु अब इन्हें लम्बे समय से लागू रखा जा रहा है। स्वाधीनता के 70 वर्षों के बाद भी ये विशेष रियायतें समाप्त नहीं की गई हैं जिन्हें राजनीतिक और प्रशासनिक पदों तथा शैक्षिक संस्थाओं के स्थानों के आरक्षण के रूप में कायम रखा गया है। संक्षेप में, जाति आधारित सामाजिक परिवेश भारतीय प्रशासन तंत्र एवं लोक सेवाओं को कई दृष्टि से प्रभावित करता है।
(1) प्रशासन और लोक सेवाओं में ऊँची जातियों का वर्चस्व हो रहा है जिससे निम्न जातियों एवं दुर्बल वर्गों का विकास अवरुद्ध हुआ।
(2) लोक सेवाओं में भर्ती और चयन के प्रमुख चरण साक्षात्कार के समय जातीय पक्षपात की प्रवृत्ति उभरकर सामने आयी है।
(3) केन्द्र एवं राज्यों की सरकारी नौकरियों एवं पदोन्नति के लिए जातिगत आरक्षण का प्रावधान है जिससे लोक सेवा की प्रबन्ध कुशलता का ह्रास हुआ है।
(4) भारत में स्थानीय स्तर के प्रशासनिक अधिकारी निर्णयों के क्रियान्वयन में प्रतिष्ठित अथवा संगठित जातियों के नेताओं से प्रभावित हो जाते हैं।
(5) प्रशासन में जातिवादी रुझान के कारण भूमि सुधार जैसे प्रगतिशील कानूनों के क्रियान्वयन में कठिनाइयाँ आयीं क्योंकि उच्च पदस्थ नौकरशाही ऊँची जातियों से सम्बद्ध होने के कारण ऊँची जातियों के हित संवर्द्धन के उपकरण के रूप में कार्य करने लगी।
भारत में जहाँ का समाज जाति, धर्म, क्षेत्र एवं भाषा की सीमाओं से बंधा हुआ है, प्रशासक वर्ग एक नई जाति के रूप में उभरकर नया अभिजन वर्ग बन गया है। भारतीय प्रशासन तंत्र के चरित्र के अध्ययन के बारे में अनेक विद्वानों ने अपने अध्ययन प्रस्तुत किये हैं- उदाहरण . के तौर पर सर्वश्री चन्द्र प्रकाश भाम्भरी, माइकेल गाइल्ड, नरेन्द्र कुमार सिंधवी तथा त्रिवेदी एवं राव ने व्यावहारिक पद्धतियों के प्रयोग से कई नए-नए, उल्लेखनीय तथा सर्वथा अप्रत्याशित तथ्य प्रस्तुत किए हैं। मोटे तौर पर कहा जाए तो हमारे देश में किसी भी प्रशासनिक अधिकारी की पृष्ठभूमि में चार कारक पाए जाते हैं और ये हैं- (अ) उच्च विश्वविद्यालयी उपाधियां, (ब) शहरी पृष्ठभूमि, (स) मध्यवर्गीय विचार-भूमि, एवं (द) प्रशासनिक सेवाओं में कार्यरत माता- पिता ।
धर्म एवं साम्प्रदायिकता – जाति प्रथा के अलावा जो मुख्य सामाजिक तत्व भारतीय प्रशासन का परिवेश निर्मित करता है, वह है धर्म एवं साम्प्रदायिकता। भारत में आठ प्रमुख धार्मिक समुदाय साथ-साथ रहते हैं- हिन्दू (कुल 82.7%), मुस्लिम (11.8%), ईसाई (2.7%), सिख (2%), बौद्ध (0.7%), जैन ((0.4%), पारसी (0.3%) और यहूदी (0.1%)। इसके अलावा आदिवासी 8.08%) हैं जिन्हें जनगणना में हिन्दू मान लिया गया है जबकि इनमें से अधिकांश अब ईसाई हैं। मुसलमानों की अधिकतम जनसंख्या वाले देशों में भारत का स्थान तीसरा है।
समाज में संघर्ष का मुख्य स्रोत इन दोनों प्रमुख धर्मो हिन्दू धर्म और इस्लाम- के बीच का द्वन्द्व रहा है। इस द्वन्द्व में अन्य सब धर्मों की कोई विशेष भूमिका नहीं है। कतिपय क्षेत्रों में जैसे- केरल या उत्तर-पूर्वी राज्यों में ईसाई धर्म के कारण और पंजाब में सिख धर्म के कारण कुछ द्वन्द्व पैदा हुए हैं।
हिन्दू-मुस्लिम आक्रोश की जड़ें बहुत गहरी हैं और ऐतिहासिक दृष्टि से ये मुस्लिम शासनकाल के साथ जुड़ी मिलेंगी। ब्रिटिश शासन काल में साम्प्रदायिकता का ‘बांटो और शासन करो’ की नीति द्वारा विस्तार हुआ। स्वाधीनता के बाद भारत में साम्प्रदायिकता ने अपने विविध रूपों में एक बहुत खतरनाक स्वरूप अर्जित कर लिया है। साम्प्रदायिक दंगों की संख्या निरन्तर प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है जिससे प्रशासनिक व्यवस्था में भारी तनाव पैदा हुआ है। साम्प्रदायिक दंगों में लोगों के प्राण तो जाते ही हैं, इसके अलावा देश की सम्पत्ति की भी व्यापक हानि होती है और आर्थिक गतिविधियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
साम्प्रदायिक हिंसा एवं संघर्षों की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए प्रशासन-तन्त्र को लोगों के जान-माल की सुरक्षा के लिए सदैव तैयार रहना पड़ता है। यही कारण है कि पिछले 25 वर्षों में अर्द्ध-सैनिक पुलिस बल और अन्य आसूचना एवं सुरक्षा अभिकरणों में इतनी वृद्धि हुई और वे देश की प्रशासनिक व्यवस्था पर हावी हो गए हैं।
क्षेत्रवाद – क्षेत्रवाद और उप-क्षेत्रवाद की प्रवृत्ति भी भारतीय समाज की एक विशेषता है। भारत में क्षेत्र तथा उप-क्षेत्र स्पष्टतया सामाजिक और सांस्कृतिक पक्षों पर आधारित हैं। क्षेत्रवाद और उप-क्षेत्रवाद से राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या उत्पन्न होती है। राष्ट्रीय एकीकरण की एक प्रमुख समस्या संघीय राज-व्यवस्था को व्यावहारिक रूप से क्रियान्वित करने में स्पष्ट रूप से विभाजित क्षेत्रों के एकीकरण से सम्बन्धित है। राष्ट्रीय एकता के लिए अखिल भारतीय सेवाओं (All India Services) की आवश्यकता महसूस की गई।
हिंसा- आज भारतीय समाज में एक लम्बे समय से हिंसा की घटनाएं होती आ रही हैं। एक अध्ययन के अनुसार भारत में वर्ष 1951-84 के दौरान हजारों छोटी-मोटी हिंसात्मक घटनाओं के अलावा 224 प्रमुख सामूहिक हिंसा की घटनाएं हुई हैं। इसमें हिंसा के तीन प्रमुख रूप जैसे अन्तर-जातीय, अन्तर-साम्प्रदायिक और अन्तर भाषायी ही शामिल नहीं हैं बल्कि हिंसा के अनेक रूप जैसे अलग राज्यों की मांग से सम्बद्ध, राज्य के पुनर्गठन के विरुद्ध, राज्यों की सीमाओं के निर्धारण सम्बन्धी विवाद, हिंसा पर उतारू औद्योगिक हड़ताल, किसान आन्दोलन, जमींदारों और भू-स्वामियों के विरुद्ध संगठित नक्सली हिंसा, पंजाब एवं उत्तर-पूर्वी राज्यों में आतंकवादी गतिविधियां, व्यापक नागरिक अवज्ञा आन्दोलन के परिणामस्वरूप हिंसा इत्यादि प्रकार की हिंसक घटनाएं शामिल हैं।
कतिपय परिस्थितियों में हिंसा और दंगों का कारण शासन की उदासीनता रही है। सामान्य सी घटना प्रशासन की असावधानी के कारण कई बार साम्प्रदायिक दंगों का रूप ले लेती है। देश के समक्ष आज जो समस्या उपस्थित है, वह यह है कि कानून और व्यवस्था के रक्षक ही उसे भंग करने पर उत्तर आए हैं। कानून और व्यवस्था के लिए घटने वाली अधिक खतरनाक घटना पर पुलिस और प्रशासन तब तक आगे कोई कार्यवाही नहीं करते जब तक कि उसे राजनीतिक दृष्टि से संकेत नहीं मिल पाते। उत्तर प्रदेश में दंगों के समय पी.ए.सी. पर दंगों में पक्षपातपूर्ण आचरण करने का आरोप लगा था।
संक्षेप में, भारतीय समाज का बहुआयामी रूप है जिसमें जातीय विभाजन, धार्मिक विश्वास, प्रादेशिक व उप प्रादेशिक पहचान की विभिन्नता पर हिंसा की बढ़ती हुई घटनाएं प्रमुख चुनौतियां हैं। लोक प्रशासन को इसी सामाजिक परिवेश में सामाजिक परिवर्तन के उपकरण के रूप में कार्य करना है।
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