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टेलर के वैज्ञानिक प्रबन्ध को दिये गये योगदान का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
वैज्ञानिक प्रबन्ध के जन्मदाता एवं विकासकर्त्ता के रूप में टेलर का ही नाम प्रमुख है। वैज्ञानिक प्रबन्ध के जन्म एवं विकास के पीछे टेलर का व्यक्तिगत एवं व्यहावरिक सम्बन्ध है।
वैज्ञानिक प्रबन्ध का विचार टेलर के मन में टोलीनायक (Gang Boss) काल में उस समय आन्या जबकि वह मजदूरों पर दबाव डालकर उत्पादन बढ़ाना चाहता था। इसके लिए उसका मजदूरों के साथ झगड़ा तक हो गया जिसमें अन्ततः विजयश्री टेलर की ही हुई परन्तु इस संघर्ष ने उसमें वैचारिक क्रान्ति उत्पन्न कर दिया। शीघ्र ही टेलर संघर्ष का कारण जानने हेतु प्रयास आरम्भ किया। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि संघर्ष का मूल कारण पूरे दिन में किए जा सकने वाले कार्य की मात्रा को जाने बिना अधिक उत्पादन के लिए दबाव डालना था। यदि प्रबन्धकों को पहले से ही यह ज्ञात रहे कि कार्य दिवस में कितना उत्पादन होना चाहिए तो उसे दृष्टान्त अथवा प्रदर्शन द्वारा सिद्ध करके मजदूरों द्वारा यह खोज निकालने का प्रयास किया कि प्रत्येक कार्य हेतु एक कार्य दिवस की मात्रा कितनी होनी चाहिए। टेलर का यह प्रयोग उसके Midvale Steel Company तथा Bethlehem Steel Company के पूरे नियुक्ति काल में चलते रहे। कुछ ही वर्षों के प्रयोग के बाद टेलर तथ्यात्मक आधार पर प्रबन्ध प्रविधि विकसित करने में सफल हो गया। यह प्रविधि उत्पादन बढ़ाने एवं श्रमिक नियोक्ता के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने में अत्यन्त प्रभावशाली साबित हुआ।
प्रयोग के पश्चात् उसे दो क्षेत्र में विशेष उपलब्धियाँ हुयी, प्रथम, मशीनी इंजीनियरिंग के क्षेत्र में उसने स्टील को पक्का बनाने का नया तरीका निकाला तथा द्वितीय, प्रबन्ध के क्षेत्र में उसने कार्य निष्पादन की पूर्णता तक पहुँचाने की समायोजन विधि प्रस्तुत की। इसी को आगे ‘चलकर टेलर का ‘वैज्ञानिक प्रबन्ध’ कहा गया।
टेलर की मान्यता थी कि वैज्ञानिक प्रबन्ध के तीन तत्त्व होते हैं-
प्रथम- प्रत्येक कार्य का विशेष पद्धति से अध्ययन करना, द्वितीय- पद्धति से सर्वोत्तम वैज्ञानिक रीतियों को चुनना एवं प्रशिक्षित करना, तथा तृतीय- श्रमिक एवं नियोक्ता के मध्य घनिष्ठ तथा मैत्रीपूर्ण सहयोग की भावना का विकास करना। इन्हीं तीन तत्त्वों को ध्यान में रखते हुए टेलर ने अपने वैज्ञानिक प्रबन्ध के अन्तर्गत प्रयोग और प्रशिक्षण को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। टेलर के प्रबन्धकीय प्रयोग में सबसे महत्वपूर्ण प्रयोग समय एवं गति अध्ययन है।
समय अध्ययन (Time Study) – किसी भी कार्य को पूरा करने में लगे समय तथा समय-समय पर उसका रिकार्ड रखना ही समय अध्ययन कहलाता है। Kimball and Kimball के अनुसार, “एक औद्योगिक कार्य के तत्व के रूप में उसमें लगे समय का अवलोकन एवं रिकार्ड करने की कला ही समय अध्ययन है।”
टेलर द्वारा प्रतिपादित समय अध्ययन के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-
(i) ऐसा प्रमाणित समय प्राप्त करना जिससे कार्य कुशलता से निष्पादन हो सके।
(ii) उचित प्रेरणात्मक मजदूरी के निर्धारण में सहायता पहुँचाना।
(iii) श्रमिकों में कार्यकुशलता का विकास करना।
(iv) वस्तु की लागत के निर्धारण में सहायता करना।
(vi) समय पर कार्य सम्पन्न न करने वाले श्रमिकों की असमर्थता के कारणों की जानकारी लेना।
(vii) कार्य की गति को पता लगाने हेतु।
इस प्रकार स्पष्ट है कि समय अध्ययन का उद्देश्य कम समय में अधिक उत्पादन तथा संगठन को कार्यकुशल बनाना है।
गति अध्ययन (Motion Study) – प्रत्येक कार्य को करते समय श्रमिकों के हाथ व पैर में गति पाई जाती है। शरीर में जितनी अधिक गति पाई जाती है उस कार्य को पूरा करने में उतना अधिक समय लगेगा तथा श्रमिकों को थकावट का अनुभव भी अधिक होगा। इसलिए वैज्ञानिक आधार पर अनावश्यक और अकुशल गतियों को समाप्त करके कार्य को उचित समय में तथा बिना थकावट के पूरा करने हेतु गति अध्ययन आवश्यक है।
टेलर ने गति अध्ययन के निम्नलिखित उद्देश्य का निर्धारण किया है-
(i) अनावश्यक, निर्देशित एवं अकुशल गतियों को समाप्त करके थकान में कमी करना एवं कम समय में कार्य को पूरा करना।
(ii) कार्य को सर्वोत्तम विधि ज्ञात करके कार्य को शीघ्रता से पूरा करना।
(iii) कार्यकुशलता में वृद्धि करके उत्पादन में वृद्धि करना।
(iv) उत्पादन व्यय को कम कर अधिक बचत को प्रोत्साहन देना।
गति अध्ययन हेतु किसी भी कार्य को विभिन्न क्रियाओं में विभक्त किया जाता है। प्रत्येक क्रिया में लगने वाले समय, गतियों की संख्या आदि का अवलोकन किया जाता है और उनका रिकार्ड तैयार किया जाता है। यदि गति का परिवर्तन तेजी से होता है तो कैमरे की सहायता से उसका चित्र ले लिया जाता है तत्पश्चात उससे पता लगाया जा सकता है कि कौन सी गतियाँ अलग से की जा सकती हैं, कौन सी गतियाँ साथ-साथ लगायी जा सकती हैं और कौन-सी गतियों अनावश्यक हैं। इस अध्ययन से कार्य में अनावश्यक गतिविधियों की संख्या कम करके कान तथा समय की बचत की जाती है।
स्पष्ट है कि समय और गति अध्ययन टेलर के वैज्ञानिक प्रबन्ध का हृदय है। प्रबन्ध को विज्ञान बनाने में टेलर के प्रयोगों में समय एवं गति अध्ययन का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
थकान अध्ययन- कोई भी काम करने पर हर व्यक्ति कुछ थकान महसूस करता है। जिसका प्रभाव कार्य की प्रगति पर सीधा पड़ता है। टेलर ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से यह पता लगाया कि वह थकान कैसी होती है, उत्पादन पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है तथा इसे कैसे दूर किया जा सकता है। बकान के सम्बन्ध में डॉ. स्टैनले कांट ने कहा है कि ‘थकान शारीरिक अंगों’ की घटती हुई वह कार्यक्षमता है जो श्रम के पश्चात उत्पन्न होती है और आंशिक तौर पर उस पर निर्भर करती है। टेलर ने अध्ययन के पश्चात् बताया है कि थकान अनेक कारणों से उत्पन्न होती है जैसे- कार्य का अवैज्ञानिक वितरण, सामर्थ्य से ज्यादा कार्य किया जाना, लम्बे कार्य के घंटे, तेजी से कार्य किया जाना। अधिक गर्मी में कार्य करना, दूषित वातावरण में कार्य करना तथा संतुलित भोजन का अभाव। अतः टेलर ने बतलाया है कि उपर्युक्त खामियों को यदि प्रबन्ध से दूर किया जाय तो थकान को कम किया जा सकता है।
कार्य का नियोजन- टेलर ने नियोजन को अपने वैज्ञानिक प्रबन्ध का हृदय माना है। वास्तव में बिना नियोजन के हम किसी भी क्षेत्र में विकास नहीं कर सकते। टेलर के अनुसार किसी भी औद्योगिक क्रियाओं के अन्तर्गत चार बातों का समावेश किया जाता है- (i) कार्य क्या (ii) कैसे (iii) कब और (iv) कहाँ किया जाय। नियोजन विभाग इन्हीं उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखते हुए प्रबन्ध एवं व्यवसाय करने पर अपने क्षेत्र में सफलता प्राप्त किया जा सकता है।
श्रमिकों का वैज्ञानिक चयन एवं प्रशिक्षण- प्रबन्ध की उत्तमता और स्थिरता कर्मचारियों पर निर्भर करती है। दोषपूर्ण चयन एवं प्रशिक्षण व्यवस्था प्रबन्ध संगठन में दुर्बलता ला देता है। अतः किसी भी अच्छे प्रबन्ध के लिए आवश्यक है कि कर्मचारियों का चयन उन्नत एवं वैज्ञानिक ढंग से शारीरिक एवं मानसिक योग्यता के आधार पर किया जाय, फिर भी उसमें व्यवसायिक विशेषज्ञता को निश्चित रूप से ध्यान दिया जाय। तत्पश्चात उन्हें दिए जाने वाले कार्यों में दक्षता एवं कुशलता लाने हेतु पर्याप्त प्रशिक्षण दिया जाय, कारण कि प्रशिक्षण कार्य में विशेष दक्षता एवं कुशलता के साथ-साथ मानवीय दृष्टिकोण को भी व्यापक बनाता है।
प्रेरणात्मक मजदूरी (Incentive Wage) – टेलर का अनुमान था कि श्रमिकों को अभिप्रेरित करने हेतु मौद्रिक प्रेरणा देना अति आवश्यक है क्योंकि व्यक्तिगत जीवन की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति धन के द्वारा कर सकते है। अतः उसने विभेदात्मक मजदूरी पद्धति अपनाने का सुझाव दिया। इस पद्धति के अनुसार ऐसे श्रमिक जो अपने कार्य को नियत समय में अच्छे ढंग से नहीं करता हो उसकी मजदूरी काट लिया जाय। टेलर के अनुसार ऐसी स्थिति में प्रत्येक श्रमिक काफी अच्छे ढंग से कार्य करने का प्रयास करेगा जिससे प्रबन्ध एवं व्यवसाय का विकास होगा।
मानसिक क्रान्ति (Mental Revolution)- मानसिक क्रान्ति का तात्पर्य श्रमिकों तथा प्रबन्धकों के मध्य सोचने के ढंग में अन्तर अर्थात् दोनों का मानसिक स्तर इस बात को समझने के लिए तैयार हो कि दोनों के बीच मधुर सम्बन्ध तथा सहयोगात्मक प्रवृत्ति पर ही प्रबन्ध एवं व्यवसाय का विकास हो सकता है। दोनों को यह समझना होगा कि श्रमिक और प्रबन्धक किसी भी उद्योग एवं व्यवसाय के आवश्यक अंग होते हैं, उनकी सुख सुविधाओं का ध्यान रखना दोनों का कर्तव्य है। टेलर के अनुसार प्रबन्ध में ऐसी ही मानसिक क्रान्ति कर उनका विकास किया जा सकता है।
प्रमाणीकरण- वैज्ञानिक प्रबन्ध के अन्तर्गत कार्य को प्रमाणित किया जाता है। इस प्रकार यह देखा जाता है कि निर्दिष्ट कार्य सभी व्यक्तियों द्वारा पूरा किया जाता है या नहीं। श्रमिकों द्वारा कार्य को पूरा करने हेतु काम में लाए जाने वाले औजारों, यंत्रों व मशीनों का प्रमाणीकरण किया जाना चाहिए। वैज्ञानिक प्रबन्ध के सिद्धान्त इस बात पर जोर देते हैं कि उत्पादन के काम में आने वाली मशीनों, औजारों, उपकरणों, विधियों तथा अन्य साधनों को प्रमाणित होना चाहिए। इसमें उत्पादन लागत कम होती है, उत्पादन की विधियों एवं किस्म में सुधार होता है और श्रमिकों की कार्यकुशलता तथा अन्य सिद्धान्त भी हैं जैसे- आधुनिक मशीनों एवं उपकरणों का प्रयोग, अच्छी कार्य की दशाएँ तथा कार्य का वैज्ञानिक आवंटन आदि। इस प्रकार टेलर द्वारा प्रतिपादित वैज्ञानिक प्रबन्ध के सिद्धान्त आधुनिक प्रबन्ध एवं व्यवसायिक जगत में काफी ख्याति अर्जित किया है।
इन सिद्धान्तों के लाभों को देखकर यह न समझना चाहिए कि वैज्ञानिक प्रबन्ध दोष- रहित है अथवा यह एक ऐसी रामबाण औषधि है जिसके प्रयोग में लाने से समस्त समस्याओं का सदैव के लिए समाधान हो जाता है। वास्तविकता यह है कि टेलरवाद की तीव्र आलोचना की गई। आलोचनाओं के मुख्य-मुख्य आधार पर इस प्रकार हैं-
श्रमिकों द्वारा विरोध अथवा श्रमिकों की दृष्टि से दोष-वैज्ञानिक प्रबन्ध में श्रमिकों की दृष्टि से निम्न दोष हैं-
(1) अधिक परिश्रम- वैज्ञानिक प्रबन्ध अपनाने पर श्रमिकों से अधिक कार्य करवाया जाता है जिससे उनके स्वास्थ्य पर विषम प्रभाव पड़ता है। श्री कार्डल्लो (E.E. Cardullo) के शब्दों में, “उनकी शक्ति क्षीण हो जायेगी और वे जीवन में कम कार्य कर पायेंगे।”
(2) कठोर नियंत्रण- वैज्ञानिक प्रबन्ध में श्रमिकों को बड़े ही कठिन नियंत्रण के अन्तर्गत कार्य करना पड़ता है। वे कार्य के प्रति किसी प्रकार की आवाज तक नहीं उठा सकते।
(3) प्रमापीकरण तथा विशिष्टीकरण का प्रभाव- उत्पादन क्रियाओं का अत्यधिक प्रमापीकरण एवं विशिष्टीकरण होने से श्रमिक केवल उसी क्रिया को कार्यक्षमता से कर सकता है तथा उसे अन्य क्रियाओं का तनिक भी ज्ञान नहीं रहता। इस प्रकार एक ही मशीन पर सदैव कार्य किये नित्य नये-नये परिवर्तन होते रहते हैं, अतः स्थिरता का अन्त हो जाता है। इससे निर्माता को क्षति पहुँचती है।
(4) पूर्ण प्रमापीकरण सम्भव नहीं- सिद्धान्त रूप में चाहे जो कुछ कहा जा सकता है किन्तु व्यावहारिक रूप में पूर्ण प्रमापीकरण प्राप्त करना कोई आसान कार्य नहीं है, जबकि वैज्ञानिक प्रबन्ध में प्रमापीकरण का होना नितान्त आवश्यक है।
(5) अधिक मन्दी में भारस्वरूप- अधिक मन्दी के समय जब उत्पादन शिथिल हो जाता है और लाभ कम हो जाता है तो उस समय वैज्ञानिक प्रबन्ध के अनुसार योजना एवं विकास विभाग तथा उसके अधिकारों पर होने वाला व्यय भारस्वरूप हो जाता है।
(6) प्रशिक्षित कर्मचारियों को प्राप्त करना सुलभ नहीं- वैज्ञानिक प्रबन्ध के अन्तर्गत पर्याप्त संख्या में प्रशिक्षित कर्मचारियों की आवश्यकता पड़ती है। इन्हें प्राप्त करना कोई सुलभ कार्य नहीं है।
(7) समन्वय की समस्या- संस्था में अनेक निरीक्षकों तथा विशेषज्ञों के होने कारण उनके कार्यों में समन्वय स्थापित करना कठिन हो जाता है।
( 8 ) अन्य दोष- (i) छोटी औद्योगिक इकाइयों के लिए अनुपयुक्त, (ii) वर्तमान व्यवस्था भंग होना, (iii) विशाल पूँजी की आवश्यकता, तथा (iv) पुनर्गठन के कारण बाधाएँ।
आलोचनाओं की सत्यता- उपरोक्त आलोचनाओं में कुछ सत्यता है तथा शेष भ्रमपूर्ण हैं। जहाँ भी वैज्ञानिक प्रबन्ध के प्रयत्न असफल हुए, वहाँ पद्धति का कोई दोष नहीं। यदि गलती है तो कार्यान्वित करने वालों की अर्थात निर्माताओं की क्योंकि अच्छी से अच्छी पद्धति भी खराब निर्माताओं के हाथ में पड़कर बेकार हो जाती है। इन आलोचनाओं के प्रत्युत्तर में यह कहा जा सकता है-
1. श्रमिकों पर कार्य का बोझ बढ़ जाने की धारणा अत्यन्त भ्रमपूर्ण है। टेलर के मतानुसार औजारों तथा कार्य करने की विधियों में सुधार करने के परिणामस्वरूप वे उतने ही परिश्रम और समय में पहले के मुकाबले में कहीं अधिक कार्य कर सकते हैं, अतः अधिक कार्य करने का प्रश्न ही प्रश्न ही नहीं उठता। टेलर ने तो यहाँ तक कहा है कि “उत्पादकता को जान- बूझकर सीमित (कम) करने से बढ़कर इस विश्व में अन्य कोई जघन्य अपराध नहीं है।”
2. निर्माताओं से मनमानी करने का तर्क ठीक प्रतीत होता है किन्तु टेलर ने पहले ही कह दिया कि अच्छी पद्धति भी अयोग्य प्रबन्धकों के हाथ में पड़कर बेकार हो जाती है।
3. यह कहा जाता है कि श्रमिकों को बढ़े हुए उत्पादन के अनुपात में वेतन नहीं मिलता है। इसके प्रत्युत्तर में यह कहा जा सकता है कि उत्पादन में वृद्धि केवल श्रमिकों के कारण नहीं होती अपितु उसमें नवीनतम मशीनों के प्रयोग का बहुत बड़ा भाग होता है, अतः बढ़े हुए उत्पादन के अनुपात में वेतन देने का प्रश्न नहीं उठता।
4. कुछ विरोधियों का यह भी कहना है “वैज्ञानिक प्रबन्ध के लागू होने से बहुत- श्रमिक बेकार हो जाते हैं।
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