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समन्वय संगठन का सिद्धान्त | समन्वय का अर्थ एवं परिभाषा  | समन्वय की आवश्यकता | समन्वय की आवश्यकता | समन्वय के प्रकार

समन्वय संगठन का सिद्धान्त | समन्वय का अर्थ एवं परिभाषा  | समन्वय की आवश्यकता | समन्वय की आवश्यकता | समन्वय के प्रकार
समन्वय संगठन का सिद्धान्त | समन्वय का अर्थ एवं परिभाषा  | समन्वय की आवश्यकता | समन्वय की आवश्यकता | समन्वय के प्रकार

समन्वय संगठन के सिद्धान्त का विस्तृत वर्णन कीजिए।

समन्वय संगठन का सिद्धान्त

“समन्वय संगठन का निर्धारक सिद्धान्त है, वह रूप है जो अन्य सभी सिद्धान्तों का समावेश करता है, सभी संगठित प्रयासों का प्रारम्भ एवं अन्त है।”

हेनरी फेयोल ने समन्वय को प्रबन्धक का एक कार्य माना है। उसके मतानुसार समन्वय करने का अर्थ है एक संगठन की क्रियाओं में एकरूपता लाना ताकि उसका कार्य सरल हो जाए और वह सफलता प्राप्त कर सके। एक सुसमनित संगठन की पहचान कई विशेषताओं के आधार पर की सकती है-

प्रथम- जिस संगठन में अच्छा समन्वय किया जाता है उसका प्रत्येक विभाग दूसरों के साथ सहयोगपूर्वक कार्य करता है।

द्वितीय- प्रत्येक विभाग, सम्भाग और उपसम्भाग को अच्छी प्रकार सूचित होना चाहिए कि उसे संगठन के कार्यों में कौन-सा भाग अदा करना है।

तीसरे- विभिन्न विभागों और सम्भागों का कार्य निरन्तर परिस्थितियों के अनुसार होना चाहिए। इन तीनों विशेषताओं के होने पर यह कहा जा सकता है कि एक संगठन विशेष में उचित समन्वय स्थापित हो चुका है। जिस संगठन में समन्वय नहीं रहता उसमें मुख्य रूप से ये बातें देखने में आती है-

प्रथम- प्रत्येक विभाग दूसरे के बारे में न कुछ जानता है और न ही जानना चाहता है। दूसरे एक ही विभाग के विभिन्न कार्यालयों के बीच इतना अन्तर बना रहता है। जितना विभिन्न विभागों के बीच होता है।

तीसरे – कोई भी सामान्य हित की दृष्टि से नहीं सोचता।

समन्वय का अर्थ एवं परिभाषा 

साधारण भाषा में समन्वय से तात्पर्य है संगठन के कार्यकलापों एवं गतिविधियों में उचित सम्बन्ध, समायोजन तथा तालमेल स्थापित करना। ह्वाइट के अनुसार, “समन्वय का अर्थ है विभिन्न भागों का परस्पर समायोजन एवं उसकी गतिविधियों, तथा क्रियाओं का भी समय पर समायोजन ताकि प्रत्येक भाग पूर्ण के उत्पादन के लिए अपना अधिकतम योगदान कर सके।” चार्ल्सवर्थ के शब्दों में, “समन्वय का अर्थ है विभिन्न भागों का एक व्यवस्थित पूर्ण में एकीकरण ताकि संगठन के उद्देश्य की प्राप्ति “समन्वय का अर्थ है विभिन्न भागों का एक व्यवस्थित पूर्ण में एकीकरण ताकि संगठन के उद्देश्य की प्राप्ति की जा सके।”

निग्रो के कथनानुसार, “समन्वय से तात्पर्य यह है कि संगठन के विभिन्न अंग एक साथ मिलकर प्रभावकारी रूप में कार्य करते हैं और काम, संघर्ष, अतिच्छान या पुनरावृत्ति के बिना चलता है।” सैकलर हडसन की सम्मति में, “समन्वय कार्य के विभिन्न हिस्सों को परस्पर सम्बद्ध करने का सर्वत्र महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है।” टेरी ने लिखा है कि “समन्वय विभिन्न ‘भागों’ का एक-दूसरे के साथ सामंजस्य है तथा उसकी गतिविधि एवं व्यवहार का समय के साथ ऐसा सामंजस्य है जिसमें प्रत्येक हिस्सा समग्र में उत्पादन के लिए अपना अधिक-से-अधिक योगदान कर सके।” संक्षेप में, समन्वय का अर्थ ऐसी व्यवस्था करना है कि किसी संगठन के सभी हिस्से कार्य की पुनरावृत्ति किए बिना निर्धारित लक्ष्यों की ओर कदम मिलाते हुए आगे बढ़ें। इसी महत्व के कारण मूने और रैले ने इसे संगठन का बुनियादी एवं प्राथमिक सिद्धान्त मानते हुए अन्य समस्त सिद्धान्तों को गौण कहा है।

समन्वय और सहयोग- यहाँ यह उल्लेखनीय है कि समन्वय और सहयोग एक ही नहीं हैं। समन्वय को सहयोग समझ लेना एक भूल होगी। टेरी के शब्दों में, “सहयोग किसी सामान्य लक्ष्य की प्राप्ति के लिए व्यक्ति का दूसरे या दूसरों के साथ समूहिक कार्य है। समन्वय सामूहिक कार्य से कहीं अधिक है और इसका अर्थ है ‘प्रयत्नों की समकालिकता’ अर्थात् प्रयत्न एक ही संयम होने चाहिए।” सहयोग और समन्वय के अन्तर को टेरी ने एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है- एक लड़का था। वह एक दिन प्रातः ही रेलगाड़ी पकड़ना चाहता था। इसके लिए सोने से पूर्व उसने अपनी घड़ी को आधा घंटे आगे कर दिया ताकि वह जल्दी उठ सके। लड़के का पिता यह जानता था कि उसका लड़का सबेरे रेलगाड़ी पकड़ेगा, उसने सोचा कि लड़के को सबेरे उठने और कपड़े पहनने में समय लगेगा, इसलिए उसने घड़ी को आधा घंटे और आगे कर दिया। इसी प्रकार लड़के की माता भी सोने से पहले लड़के के शयनागार में गयी और घड़ी को आधा घंटा आगे कर दिया ताकि लड़के को प्रातः जल्दी न करनी पड़े। फल यह हुआ कि आधा घंटा पहले उठने की अपेक्षा लड़का डेढ़ घंटे पहले उठ गया और उसकी एक घंटे की नींद मारी गयी। टेरी के शब्दों में, “यहाँ माता, पिता तथा बेटे के कार्यों में सहयोग तो था, लेकिन समन्वय न था ।” इसी प्रकार अन्य उदाहरण पुस्तकालय में पुस्तकों को खरीद का दिया जा सकता है। एक नवनिर्मित पुस्तकालय में एक लाख रुपए की पुस्तकों के क्रय हेतु आदेश एक फर्म को दिए गए, किन्तु उसने पुस्तकों की शीघ्र पूर्ति नहीं की। इसके बाद दूसरी और तीसरी फर्मों को क्रमशः आदेश दिए गए। वहाँ से पुस्तकें आने में विलम्ब हुआ। एक दिन अचानक पुस्तकालय पक्ष क्या देखते हैं कि तीनों फर्मों ने पुस्तकों की बिल्टियां भेज दी हैं । समुचित समन्वय के अभाव में वे कठिनाई में फंस गए कि किस फर्म की पुस्तकें रखें और किसको लौटाएं। स्पष्टतः यहाँ तीन फर्मों के कार्यों में सहयोग तो था, किन्तु समन्वय नहीं था।

इससे यह नहीं समझना चाहिए कि समन्वय और सहयोग विरोधी अवधारणाएं हैं। वस्तुतः समन्वय और सहयोग दोनों पूरक हैं। समन्वय एवं सहयोग के बीच सम्बन्ध को हेमेन ने इस प्रकार व्यक्त किया है, “यद्यपि सहयोग हमेशा सहायतापूर्ण रहता है और इसका अभाव समन्वय की प्रत्येक सम्भावना रोक सकता है, पर इसका अस्तित्व मात्र ही समन्वय का होना साबित नहीं करता । महत्व की दृष्टि से समन्वय सहयोग की अपेक्षा अधिक उच्च है।”

समन्वय की आवश्यकता

संगठन में समन्वय की आवश्यकता निम्न चार कारणों से उत्पन्न होती है-

(i) संघर्ष और झगड़ों को दूर करना- किसी भी संगठन में विभिन्न कर्मचारियों के बीच संघर्ष उत्पन्न हो सकता है। समन्वय द्वारा विवादों का समाधान किया जाता है।

(ii) सहयोग की भावना- किसी भी संगठन के विभिन्न भागों एवं अधिकारियों में सहयोग आवश्यक है। यदि उनमें सहयोग की भावना नहीं है तो संगठन की गति रुक जाएगी और वह लक्ष्य प्राप्ति से हट जाएगा। समन्वय द्वारा उसमें टोली की भावना (Team spirit) तथा समन्वय उद्देश्य की अनुभूति (A sense of common purpose) उत्पन्न होती है।

(iii) दोहराव को रोकना – समन्वय के अभाव से संगठन में दोहराव (Duplication) का दोष उत्पन्न होना स्वाभाविक है। जब संगठन के विभिन्न सदस्यों को यह ज्ञात नहीं रहता कि दूसरे क्या कर रहे हैं तो वह स्वयं ऐसे कार्य करने लग जाते हैं जो दूसरे अधिकारी पहले से ही सम्पन्न कर रहे हैं। समन्वय द्वारा संगठन के सभी हिस्से काम की पुनरावृत्ति किए बिना, या टकराए बिना निर्धारित लक्ष्यों की ओर कदम मिलाते हुए आगे बढ़ते हैं।

(iv) क्रमहीनता के कारण- संगठन की क्रियाओं में एक क्रम होता है। प्राथमिक क्रियाओं को सम्पन्न किए बिना यदि आगे की क्रियाओं को पहले ही सम्पन्न कर दिया जाए तो वे अनुपयोगी बन जाती हैं। अतः संगठन के कार्यों में क्रमबद्धता लाने के लिए समन्वय बहुत आवश्यक है।

समन्वय के प्रकार

समन्वय अनेक प्रकार का होता है-

(i) आन्तरिक तथा बाह्य अथवा कार्यात्मक तथा संरचनात्मक। (ii) लम्बरूप समन्वय तथा समतल समन्वय । आन्तरिक समन्वय संगठन द्वारा उसकी विभिन्न इकाइयों के बीच किया जाता है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक संगठन अनेक बाहरी तत्वों जैसे- लोकमत, दबाव समूह, हित समूह इत्यादि से भी प्रभावित होता है। इनके बीच जो समन्वय स्थापित किया जाता है, उसे बाह्य समन्वय कहते हैं।

1. लम्बरूप समन्वय (Vertical Co-ordination) से हमारा अभिप्राय समन्वय के उस रूप से है जो संगठन की इकाई के विभिन्न स्तरों के बीच स्थापित किया जाता है। उदाहरण के लिए एक संगठन के निदेशक, उपनिदेशक, निरीक्षक, नियंत्रक एवं ऐसे ही अन्य अधीनस्थों के मध्य स्थित समन्वय को ले सकते हैं। इस प्रकार समन्वय में पदसोपान एवं सत्ता का महत्वपूर्ण स्थान है।

2. समतल समन्वय (Horizontal Co-ordination) का अर्थ उस समन्वय से है जो प्रबन्ध के समान स्तरों पर किया जाता है। इस प्रकार के समन्वय में कर्मचारियों एवं अधिकारियों की स्वेच्छा का अधिक महत्व होता है। समान स्तर वाले अधिकारियों के बीच समन्वय स्थापित करने की कुछ अपनी समस्याएं हैं क्योंकि ये अधिकारी एक-दूसरे पर सत्तावान नहीं होते।

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Anjali Yadav

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