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मानव विकास के सिद्धान्त (Principles of Human Development)
मानव विकास सिद्धान्तों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
(I) अवस्था सिद्धान्त (Stage Theories)।
(II) प्रक्रिया सिद्धान्त (Process Theories) ।
(I) अवस्था सिद्धान्त(Stage Theories) –
इससे आशय उन सिद्धान्तों से है जो मानवीय विकास की इस प्रकार व्याख्या करते हैं जिससे उनके विषय में पहले से ही भविष्यवाणी की जा सके। इसके अन्तर्गत निम्न सिद्धान्त सम्मिलित हैं:
1. पियाजे का संज्ञानात्मक विकास-सिद्धान्त (Piaget’s Theory of Cognitive Development)- इस सिद्धान्त का व्यक्ति के विकास पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है । इन्होंने मानव को एक क्रियाशील जीव माना है जो स्थिर रहकर अपने वातावरण के साथ अन्तः क्रिया करता है।
2. फ्राइड का मनोलैंगिक सिद्धान्त (Freud’s Theory of Psycho-Sexual Development)- इस सिद्धान्त के प्रतिपादक सिगमण्ड फ्रायड थे। उनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर काम शक्ति पाई जाती है जिसे लिवडो कहते हैं। लिवडो वह शक्ति है जो व्यक्तियों को जीवन भर सक्रिय तथा क्रियाशील बनाये रखती है। उसके अनुसार यह काम शक्ति बाल्यावस्था से ही व्यक्ति में होती है। यह सिद्धान्त मनोलैंगिक विकास सिद्धान्त भी कहलाता है।
3. इरिक- इरिकसन का मनोसामाजिक विकास का सिद्धान्त (Eric Erickson’s Theory of Psycho- Social Development)- इसके प्रतिपादक इरिक एवं इरिकसन थे। इन्होंने काम भावना के स्थान पर सामाजिक अनुभूतियों एवं सामाजिक महत्व को विशेष महत्व दिया। उनके अनुसार बालक एक व्यापक सामाजिक परिवेश का सदस्य होता है। विकास की प्रत्येक अवस्था एक विशेष अन्तर्द्वन्द्व से सम्बन्धित होती है।
4. कोलबर्ग का नैतिक विकास का सिद्धान्त (Kohlberg’s Theory of Moral Development)- कोलबर्ग ने नैतिक विकास के सम्बन्ध में अपना पृथक सिद्धान्त प्रस्तुत किया है। उन्होंने नैतिक विकास को प्रमुख स्थान देकर मानव-विकास की व्याख्या की है।
(II) प्रक्रिया सिद्धान्त-
इसका आशय उन सिद्धान्तों से है जो मानव विकास की व्याख्या विकास की विभिन्न अवस्थाओं में न बाँटकर प्रत्यक्ष रूप से एक या अधिक प्रक्रियाओं के आधार पर मानव विकास की भविष्यवाणी करते हैं। इसके अन्तर्गत प्रमुख सिद्धान्त निम्नांकित है-
1. बैण्डूरा का सामाजिक अधिगम सिद्धान्त (Bandura’s Social Learning Theory)- इस सिद्धान्त के अनुसार मानव का विकास उसके सामाजिक अधिगम के फलस्वरूप होता है। बालक अपने माता-पिता, भाई-बहिनों, पड़ोसियों तथा अध्यापकों के व्यवहारों का अवलोकन करता है और भविष्य में उसे दोहराने का प्रयास करता है। जॉन लॉक (John Lock) के अनुसार, “बालक का मन एक कोरी स्लेट के समान होता है जिस पर अधिगम एवं अनुभव की छाप धीरे-धीरे गहरी होती जाती है। वैण्डूरा के अनुसार बालक अधिकांश व्यवहार अपने सामाजिक परिवेश से ही सीखता है। वह अवलोकन तथा अनुकरण को विशेष महत्व देता है। बालक अधिकतर अपने माता-पिता, पड़ोसियों, संगी-साथियों, नेताओं तथा अभिनेताओं के व्यवहारों का अनुकरण करना ही सामाजिक अधिगम है।
2. गेसेल का परिपक्वता सिद्धान्त (Gessel’s Theory of maturation)- गेसेल के अनुसार परिपक्वता का अर्थ कोषों एवं पेशियों में समय के साथ होने वाले परिवर्तन से है। गेसेल परिपक्वता को प्रधान तत्व मानते हैं। व्यक्ति की शारीरिक संरचना विभिन्न पेशियों तथा कोषों के समूह से बनी होती है और इनके मध्य अन्तर्सम्बन्ध पाया जाता है। अधिगम के लिए परिपक्वता अत्यन्त आवश्यक होती है। मानव विकास के परिपक्वता सिद्धान्त का आशय इस सिद्धान्त से है जिसके अनुसार अधिगम या परिवेशजन्य तथ्यों से प्रभावित तथ्यों से प्रभावित हुए बिना केवल परिपक्वता के आधार पर व्यक्ति के व्यवहार गत परिवर्तन होते हैं।
इन सिद्धान्तों का बालकों की शिक्षा-नियोजन में महत्वपूर्ण योगदान है। विकास सदैव परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है तथा शिक्षण इस परिपक्वता को सही दिशा देता है। बालक का विकास एक क्रमबद्ध क्रिया है।
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