मानव-विकास की परिभाषा | मानव विकास का महत्व | मानव विकास के सिद्धान्त | मानव विकास के अध्ययन | मानव विकास के क्षेत्र | Definition of human development in Hindi | Importance of human development in Hindi | Principles of human development in Hindi | areas of human development Hindi
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मानव-विकास की परिभाषा
हरलॉक के अनुसार, “आज बाल विकास में मुख्य रूप से बालक के रूप, व्यवहार, रुचियों एवं लक्ष्यों में होने वाले उन विशिष्ट परिवर्तनों की खोज पर बल दिया जाता है जो विशेषत: ऐसा परिवर्तन है जिसके कारण जन्म से लेकर मृत्यु तक प्राणी में स्थायी परिवर्तन होते है।”
मानव विकास का महत्व (Important of Human Development)
विकास की आवश्यकता मनुष्य को जन्म से मृत्यु तक होती है। मनुष्य विकास के द्वारा ही एक अवस्था से दूसरी अवस्था में पहुँचता है। इसके द्वारा ही इसका शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक, गत्यात्मक, भाषा सम्बन्धी और नैतिक विकास में परिवर्तन होता है। इसके द्वारा ही व्यक्ति के भाषा-दोषों, मानसिक रोगों, मानसिक न्यूनता तथा बाल अपराधों को दूर करने का प्रयास किया जाता है। इसके माध्यम से ही मनुष्य की असामान्यताओं का उपचार तथा निरोध किया जाता है। विकास के कारण ही परिवर्तन, परिपक्वता एवं अधिगम सम्भव है। शिक्षकों, अभिभावकों तथा मनोवैज्ञानिकों के लिए बाल विज्ञान के अध्ययन की विशेष आवश्यकता है। इसके अध्ययन से बालकों के स्वभाव तथा साधारण प्रवृत्तियों का ज्ञान होता है। यह बालकों के सर्वागीण निर्धारण विकास में सहायक है। बाल विकास बालकों के शैक्षिक-निर्देशन में सहायक है। इसका अध्ययन बाल- अपराध के निराकरण में भी सहायक है। यह बाल-व्यवहार को समझने में सहायक है। बाल विकास का ज्ञान माता-पिता को सन्तुष्टि प्रदान करता है।
मानव विकास के सिद्धान्त
पेस्टालॉजी एक अन्य ऐसे दार्शनिक थे, जिन्होंने बालक के विकास के सम्बन्ध में रूसो के विचार में कुछ संशोधन किया, उन्होंने बालक के विकास में उसके परिवार के व्यक्तियों के महत्व को अधिक दर्शाया है, यद्यपि उन्होंने रूसो की भाँति बाल विकास में उसकी स्वाभाविक क्षमताओं के सहज सद्भावपूर्ण एवं क्रमिक विकास पर अधिक बल दिया है।
इन दार्शनिकों के अलावा हरबर्ट, फ्राबेल, स्पेन्सर, जॉन डेवी, मैडम मॉण्टेसरी, डॉल्टन, नन एवं रसेल आदि ने भी बाल विकास के सम्बन्ध में अलग-अलग और महत्वपूर्ण सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक विचार प्रस्तुत किये। वस्तुतः उन्नीसवीं शताब्दी में फ्रोबेल, मैडम मॉण्टेसरी एवं जॉन डेवी के सैद्धान्तिक विचारों ने बाल विकास के प्रति अपने-अपने दार्शनिक विचारों को अभिव्यक्त किया। किण्डरगार्टन की स्थापना का श्रेय भी फ्रोबेल को ही जाता है। फ्रोबेल ने बालक के शारीरिक विकास में सामाजिक क्रियाओं तथा शारीरिक क्रियाओं के अभ्यास पर अधिक बल दिया है जबकि मैडम मॉण्टेसरी ने बालक की ज्ञानेन्द्रियों के विकास को खेल सम्बन्धी रुचिकर क्रियाओं के माध्यम से विकसित करने पर जोर दिया है। जॉन डेवी एक मानवतावादी एवं उपयोगितावादी दार्शनिक थे तथा उनके विचारों ने बालक की शिक्षा के कार्यक्रम को अत्यधिक प्रभावित किया।
बीसवीं सदी के प्रारम्भ से विकासात्मक मनोविज्ञान के सम्बन्ध में जनजागृति विकसित हुई। 1920 के आस-पास व्यवहारवाद के संस्थापक जॉन वाट्सन ने बालक के पालन-पोषण के सम्बन्ध में व्याख्यान एवं लेख प्रस्तुत किया। फ्रायड, बिने, हॉल एवं वाट्सन द्वारा किये गये बाल विकास से सम्बन्धित प्रयासों के फलस्वरूप बालकों की योग्यता का आकलन करने तथा अभिभावकों को परामर्श देने के लिए चिकित्सालय प्रारम्भ हुए। इस समय बाल विकास के सम्बन्ध में जो रुचि जाग्रत हुई उसके फलस्वरूप बाल विकास के सम्बन्ध में गहन शोध प्रारम्भ हो गये। अमेरिका और यूरोप के अन्य भागों में बालशालाओं में तथा विकासात्मक योजनाओं के द्वारा अध्ययन किये गये। परन्तु यह रुचि थोड़े समय के लिए रही और 1949 के आस-पास बाल विकास से सम्बन्धित अध्ययनों में काफी कमी आ गयी थी।
1950 के आस-पास बाल विकास के अध्ययनों को पुनः गति मिली। इस समय विभिन्न स्रोतों के द्वारा बाल विकास के अध्ययनों को आर्थिक सहायता प्रदान की गयी। विकासात्मक व्यवहार के आधारभूत कारणों की खोज के प्रयत्न किये गये। इस प्रकार बाल्यावस्था को विशेष अवस्था के रूप में स्वीकृति प्राप्त हुई। बालक के पूर्ण विकास के लिए विविध दृष्टिकोणों से कार्य प्रारम्भ हो गये। आधुनिक युग में बाल विकास को जो विशिष्ट स्थान प्राप्त है ये उसकी ऐतिहासिक पृष्ठिभूमि है। लगभग तीन शतकों में हम आज की स्थिति तक पहुँच पाये हैं।
मानव विकास के अध्ययन
मानव विकास के अन्तर्गत मानव जीवन की सम्पूर्ण अवधि का अध्ययन किया जाता है। इसमें मानव का अध्ययन गर्भाधान से मृत्यु तक किया जाता है। सम्पूर्ण जीवन अवधि की विभिन्न अवस्थाओं में वृद्धि एवं विकास तथा क्षय होने वाली सम्पूर्ण अन्तःक्रिया का अध्ययन मानव विकास के अन्तर्गत किया जाता है। इस प्रकार मानव विकास का अध्ययन एवं समझ का उद्देश्य अनेक विस्तृत मान्यताओं पर आधारित है। जो इस प्रकार से हैं–
(1) हमारी संस्कृति महत्वपूर्ण, अर्थ पूर्ण तथा अध्ययन करने योग्य है। मानव मनोविज्ञान के ज्ञान के लिए वातावरण की व्यक्तिगत समझ को बढ़ाता है या कहा जाये कि उसे ऊपर उठाता है तथा समाज में उन्नति लाने के लिए अफसर की तरह कार्य करता है।
(2) व्यवहार के विकास का ज्ञान नवयुवक एवं बालकों को प्रथमतः समाज के द्वारा निर्धारित लक्ष्य एवं उद्देश्य तक पहुँचने में सहायता प्रदान करता है, बाद में युवाओं द्वारा इन लक्ष्यों तथा उद्देश्यों में आंशिक रूपान्तरण करने में सहायता प्रदान करता है।
(3) मानव विकास के अध्ययन द्वारा मानव जाति की परिस्थितियों में उन्नति लायी जा सकती है, जो समाज में व्याप्त अन्याय तथा असमानता को कम करने में सहायक हो सकती है। विकासशील व्यक्ति पर निर्धनता, पूर्वाग्रहों तथा अनभिज्ञता का प्रभाव क्या होता है, यह जानने के लिए मानव विकास की समझ हमारी सहायता करती है तथा सामाजिक जीवन के दृष्टिकोण में परिवर्तन करके प्रभावकारी उन्नति की जा सकती है।
(4) आधुनिक मानवता अपनी स्वयं के प्रयोजन तथा पहचान से गहराई से जुड़ी है। अतः इसे मानवीय व्यवहार के कारण तथा उद्देश्य खोजना आवश्यक है। मानव का व्यवहार उसके जन्म के समय ही निश्चित हो जाता है, जो परिपक्वता के साथ मोड़ा या बदला नहीं जा सकता है। या यह व्यवहार कितना तथा किस प्रकार वातावरण के द्वारा परिवर्तित किया जा सकता है। मानव विकास विषय का ज्ञान साधारणतः यह जानने में हमारी सहायता करता है।
(5) व्यवहार के सिद्धान्तों का ज्ञान मनुष्य द्वारा इच्छित उद्देश्यों को सफलतापूर्वक प्राप्त करने के लिए आधारभूत आवश्यकता है। यदि मनुष्य जो समाज में शांतिपूर्वक रहना है तथा लक्ष्यों को प्राप्त करते रहना है तो मनुष्य की प्ररेणाओं और आवश्यकताओं को समझना आवश्यक है।
मानव या बाल विकास का क्षेत्र (Scope of Human Development)
मानव विकास का क्षेत्र अत्यधिक विशाल है। इसमें गर्भस्थ शिशु के सभी विभिन्न पक्षों का अध्ययन किया जाता है। इसको प्रमुख रूप से निम्नांकित सात भागों में विभाजित किया जा सकता है-
(1) बाल-विकास की प्रक्रिया के मूलभूत सम्प्रदायों का अध्ययन- बाल विकास की प्रक्रिया के मुख्य सम्प्रत्यय निम्नलिखित हैं-
- विकास का अर्थ तथा परिभाषाएँ,
- विकास की विशेषताएँ,
- विकास में सन्नहित प्रक्रियायें,
- विकास एवं वृद्धि में अन्तर,
- विकास में परिवर्तन के स्वरूप,
- विकास के कारण परिपक्वता,
- विकास की गति एवं विकास के नियम ।
(2) बाल विकास की विभिन्न अवस्थाओं का अध्ययन- इसके अन्तर्गत निम्नलिखित अवस्थाओं का अध्ययन किया जाता है।
गर्भावस्था, शैशवावस्था, बचपनावस्था, बाल्यावस्था, पूर्ण किशोरावस्था तथा किशोरावस्था ।
(3) बाल-विकास के सिद्धान्तों का अध्ययन- इसमें निम्न सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता है।
(i) फ्रायड का कामनोलैंगिक विकास का सिद्धान्त, (ii) इरिक-इटिकसन का मनोसामाजिक विकास का सिद्धान्त, (iii) पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धान्त, (iv) कोलवर्ग का नैतिक विकास का सिद्धान्त, (v) वैण्डूरा का सामाजिक अधिगम का सिद्धान्त तथा (vi) गेसेल के परिपक्वता के सिद्धान्त का अध्ययन किया जाता है।
(4) बाल-विकास को प्रभावित करने वाले तत्वों का अध्ययन- इसके अन्तर्गत (i) वंशानुक्रम एवं वातावरण, (ii) परिपक्वता एवं अधिगम, (iii) बुद्धि एवं मानसिक योग्यता, (iv) अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ, (v) योनिगत विभिन्नता, (vi) प्रजाति एवं वर्ण, (vii) शुद्ध वायु तथा प्रकाश, (viii) धार्मिक विकास आदि का अध्ययन किया जाता है।
(6) बालकों की विभिन्न असामान्यताओं का अध्ययन- इसमें भाषा-दोष, मानसिक रोग, मानसिक न्यूनता, बाल-अपराध आदि का अध्ययन होता है।
(7) मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के मूल सिद्धान्तों का अध्ययन- इसमें बालकों की असामान्यताओं के स्वरूप तथा कारणों के अतिरिक्त उनकी असामान्यताओं का उपचार, निरोध और मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के मूल सिद्धान्तों का भी अध्ययन करते हैं।
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