सांख्यिकी के कार्य व सीमाओं का वर्णन कीजिए।
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सांख्यिकी के कार्य (Functions of Statistics)
1. सांख्यिकी तथ्यपूर्ण तथा सम्बन्धित आँकड़ों का संकलन करती है। यह एक प्रतिनिध्यात्मक प्रतिदर्श के चयन में तथा सम्बन्धित प्रदत्त सामग्री के संकलन में सहायता करती हैं।
2. सांख्यिकी मूल आँकड़ों और प्राप्त अंकों को आवृत्ति वितरण से परिवर्तित करती है, आरेखाओं व आलेख चित्रों के द्वारा उनको सरल व स्पष्ट करती है। इससे उनके विवेचन व विश्लेषण में सुविधा मिलती है।
3. सांख्यिकी प्रदत्त सामग्री का विश्लेषण करती है। विभिन्न सांख्यिकीय माप जैसे- केन्द्रीय प्रवृत्ति, विचलनशीलता, सह सम्बन्ध व स्थितिमान आदि के परिकलन द्वारा आँकड़ों के परिकलन, विवेचन व तुलनात्मक अध्ययन में सहायता मिलती है।
4. सांख्यिकी सह-सम्बन्ध गुणांक के आधार पर सामान्यीकरण और भविष्य कथन में सहायता करती है।
5. सांख्यिकी गुणात्मक तथ्यों को मात्रात्मक रूप प्रदान करती हैं। इसमें अमूर्त तथ्यों को संख्यात्मक आँकड़ों में परिणत किया जाता है जिसमें उनका वस्तुनिष्ठ विवेचन व तुलनात्मक अध्ययन किया जा सके।
6. सांख्यिकी अनुसंधान के क्षेत्र में परिकल्पना का निर्धारण व परीक्षण करती है। परिकल्पना के परीक्षण हेतु यथोचित वैज्ञानिक पद्धति व विश्वास के स्तर का निर्धारण भी सांख्यिकीय ज्ञान द्वारा किया जाता है।
7. प्रायः केन्द्रीय प्रशासन के विभिन्न विभाग जानकार सूत्रों से जनहित के लिए उपभोगी आँकड़ों का संकलन करते हैं और उनका सम्पादित रूप जनता के हित में जन-सम्पर्क के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं।
8. सांख्यिकी नीति-निर्माण में भी योगदान करती है। व्यावहारिक सांख्यिकी प्रशासन व जनता के सम्मुख ऐसे आँकड़े प्रस्तुत करती है जिसमें शासन की नीति निर्धारण में पर्याप्त सहायता मिलती है।
सांख्यिकी की सीमाएँ (Limitations of Statistics)
एक महत्वपूर्ण व उपयोगी विज्ञान होते हुए भी सांख्यिकी की कुछ सीमाएँ है।
1. सांख्यिकी समूहों का अध्ययन करती है, व्यक्तिगत इकाइयों का नहीं। उदाहरण के यदि किसी स्थान पर 4 व्यक्ति रहते हैं और उनकी मासिक आय क्रमश: 3000, 5000, 6000 और 800 रूपये है तो उनकी औसत आय 3750 रुपये होगी। निष्कर्ष निकलता है कि लोग सम्पन्न हैं परन्तु चौथे व्यक्ति की कम आय को ध्यान में नहीं रखा जाएगा।
2. सांख्यिकी के परिणाम असत्य सिद्ध हो सकते हैं यदि उनका अध्ययन बिना किसी सन्दर्भ के किया जाय ।
3. सांख्यिकी किसी समस्या के केवल संख्यात्मक स्वरूप का अध्ययन कर सकती है। इसमें गुणात्मक स्वरूप जैसे सत्यता, बुद्धिमानी, ईमानदारी आदि का अध्ययन सम्भव नहीं है।
4. सांख्यिकीय समकों में एकरूपता और संजातीयता होना आवश्यक है।
5. सांख्यकी के नियम दीर्घकाल में तथा औसत रूप में सत्य होते हैं। उदाहरण के लिये यदि यह कहा जाय कि भारतीय काले होते हैं तो यह कथन औसत रूप से ही सत्य है, सामान्य रूप से नहीं ।
6. सांख्यिकीय रीतियों के प्रयोग से ज्ञान परिणाम सदैव सर्वोत्तम नहीं होते हैं। उनकी रीतियों का प्रयोग सावधानी के साथ किए जाने की आवश्यकता होती है।
7. सांख्यिकी का उचित प्रयोग इसकी प्रणालियों को ठीक तरह से जानने वाला व्यक्ति ही कर सकता है।
8. सांख्यिकी केवल साधन प्रस्तुत करते हैं, समाधान नहीं।
सामान्य व्यक्तियों में समंकों के प्रति दो प्रकार की परस्पर विरोधी धारणाएँ है। कुछ व्यक्तियों का तो इन पर अटूट विश्वास है और उनका मत है कि ‘समंक झूठ नहीं बोलते’ तथा संख्यात्मक आधार पर निकाला गया निष्कर्ष प्रामाणिक रूप से सत्य होता है। इसके विपरीत कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इस विज्ञान को व्यर्थ, अनुपयोगी तथा अविश्वसनीय मानते हैं।
सांख्यिकी पर अविश्वास के अनेक कारण हैं-
1. आँकड़ों को ऊपरी तौर पर देखने पर कुछ पता नहीं लगता कि ये आँकड़े बनावटी है या सचमुच इकट्ठे किए गए हैं।
2. कभी-कभी एक ही विषय के परस्पर विरोधी आँकड़े मिलते हैं और सत्य का पता लगाना कठिन हो जाता है।
3. कभी-कभी व्यावहारिक रूप से जो बात स्पष्ट दिखाई पड़ती है, आँकड़े उसके विपरीत बात की ओर इशारा करते हैं। जैसे यदि सरकार किसी समय मूल्यों में कमी के आँकड़े प्रदर्शित करे जबकि बाजार से मूल्य बढ़ रहे हों, तो लोग उन्हें सन्देह की दृष्टि से देखेंगे।
4. कभी-कभी समंकों की शुद्धता की जाँच न करने पर और तनिक भी असावधानी होने पर भ्रमपूर्ण या अशुद्ध परिणाम निकल आते हैं।
5. सांख्यिकी विज्ञान की कई सीमाएँ है। यदि उनको ध्यान में रखे बिना सांख्यिकी का प्रयोग निर्वचन में किया जाय तो परिणाम भ्रम उत्पन्न करने वाले होते हैं।
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