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रवीन्द्रनाथ टैगोर का जीवन परिचय (Rabindranath Tagore Biography in Hindi)
रवीन्द्रनाथ टैगोर का जीवन परिचय- 6 मई, 1861 में कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) के जोड़ासांको नामक मुहल्ले में एक अंतर्मुखी स्वभाव के शिशु ने देवेंद्रनाथ टैगोर (पिता) के घर जन्म लिया था, जिसका नाम रवींद्रनाथ रखा गया। रवींद्रनाथ टैगोर अपने माता- पिता (देवेंद्रनाथ टैगोर एवं सारदा देवी) की चौदहवीं संतान थे। निराकार ईश्वरीय उपासना करने वाले देवेंद्रनाथ टैगोर ने तब कल्पना भी नहीं की थी, जो बालक रवींद्र के रूप में जन्मा है, उसकी कल्पना शक्ति उसे विश्वविख्यात व्यक्तित्व के रूप में प्रतिष्ठित करेगी। पिता के मानवीय संस्कार यह शिशु जैसे साथ लेकर ही जन्मा था। शिशु रवींद्र के पिता जहां ‘ब्रह्म समाज’ नाम के संगठन को समर्पित थे तो रवींद्र के दादाजी श्री द्वारकानाथ टैगोर एक बड़े जमींदार घराने से ताल्लुक रखते थे। रवींद्र के पिता देवेंद्रनाथ हिंदू समाज को कुप्रथाओं से दूर करके उनमें जाग्रति फूंकने का कार्य कर रहे थे।
रवींद्रनाथ टैगोर की जीवनी (Rabindranath Tagore Biography in Hindi)
टॉपिक | रवींद्रनाथ टैगोर की जीवनी |
लेख प्रकार | जीवनी |
साल | 2023 |
भाषा | हिंदी |
पूरा नाम | रवींद्रनाथ टैगोर |
नाम | भानु सिंघा ठाकुर |
जन्म | 7 मई 1861 |
जन्म स्थान | कलकत्ता (पश्चिम बंगाल, भारत) |
पिता का नाम | देबेंद्रनाथ टैगोर |
माता का नाम | शारदा देवी |
पत्नी का नाम | मृणालिनी देवी |
मृत्यु | 7 अगस्त 1941 |
उम्र | 80 |
मृत्यु स्थान | कलकत्ता (पश्चिम बंगाल, भारत) |
पेशा | कवि, लेखक, संगीतकार,नाटककार, निबंधकारऔर चित्रकार |
धर्म | हिंदू धर्म |
पुरस्कार | नोबेल पुरुस्कार |
कार्य | गीतांजलि, जन गण मन(भारत का राष्ट्रगान), आमार सोनार बंगला(बांग्लादेश का राष्ट्रगान)और अन्य महत्वपूर्ण कार्य। |
भाषा | बंगाली, अंग्रेजी |
नागरिकता | भारतीय |
संताने | रथींद्रनाथ टैगोर, शमींद्रनाथ टैगोर, मधुरिलता देवी, मीरा देवी और रेणुका देवी |
देवेंद्रनाथ जी मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी थे । वे मूर्तिपूजा प्रथा को सिरे से बंद कर देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने समाज को जगाने की यथासंभव कोशिश भी की थी। अपने संगठन के द्वारा वे बंगाल के शहरों एवं ग्रामों में गए तथा लोगों को निराकार ईश्वर में आस्था रखने के लिए कहा और मूर्तिपूजा न करने का परामर्श दिया। आगे चलकर उनका संगठन सिर्फ बंगाल में ही नहीं, बल्कि संपूर्ण भारत में जाना गया। लोग संगठन के समाज सुधारक विचारों से बेहद अभिभूत हुए। स्वयं ये भी राजा राममोहन राय को प्रेरक समाज सुधारक मानते रहे थे। इनके समाज उपयोगी कार्यों से देवेंद्र जी अत्यधिक प्रभावित हुए। वे समाज से आडंबर, ढोंग व अंधविश्वासी परंपराओं को समाप्त कर देना चाहते थे। इससे बंगाल में एक नई सामाजिक जाग्रति की लहर ने जन्म लिया। जब स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की तो अनेक लोग आर्य समाज के समर्थक बन गए। वे स्वामी दयानंद जी द्वारा प्रदर्शित सिद्धांतों को अपने जीवन में उतारने लगे। इस पृष्ठभूमि के मध्य ही शिशु रवींद्रनाथ ने अपने बचपन में कदम रखा था।
रवींद्रनाथ का बचपन बेहद अनुशासन में गुजरा। ये संसार को जिज्ञासा एवं कौतुक भरी दृष्टि से देखा करते थे। जब कभी भी ये अपने पिता के साथ घर से बाहर जाते तो संसार की प्राकृतिक छटा इन्हें मोहित किया करती थी, किंतु अकेले रवींद्र को बाहर नहीं निकलने दिया जाता था। घर में रखकर ही इन्हें नैतिक मूल्यों की शिक्षा एवं उच्च संस्कार प्रदान किए गए। इनके घर से सटा एक दालान था । उसी दालान में रवींद्र घर के दूसरे बच्चों के साथ समय गुजारते थे। उस दालान में पारिवारिक सेवक भी रहते थे। एक पारिवारिक सेवक का नाम श्याम था । श्याम दालान में एक लकीर खींचता और बालक रवींद्र उस लकीर को ‘लक्ष्मण रेखा’ मानते थे। इन्हें रामायण का पठन-पाठन करने से यह ज्ञात हो चुका था कि लक्ष्मण रेखा का अतिक्रमण करने से ही सीता का हरण हुआ था । अतः इन्हें भी लगता था कि सेवक द्वारा खींची गई लकीर का अतिक्रमण करने से ये भी किसी मुसीबत का शिकार हो जाएंगे। इस कारण ये दालान से बाहर नहीं जाते थे। अपने कक्ष की खिड़की से ये दालान में बने हौज में लोगों को स्नान करते देखते थे और भरपूर मनोरंजन पाते थे।
अंतर्मुखी स्वभाव के रवींद्र को विद्या प्रदान करने के लिए एक शिक्षक को अनुबंधित किया गया था। वह इन्हें घर आकर ही पढ़ाता था, लेकिन तब शिक्षा से ज्यादा इन्हें अपने खिलौने ही प्रिय हुआ करते थे। शिक्षा से ज्यादा खिलौने प्रिय होने की बात पिताजी को ज्ञात हुई तो खिलौने गायब करवा दिए गए। बालमना रवींद्र नीले आकाश को देखकर विभिन्न कल्पनाएं भी करते थे। इनके एक बालसखा ने इन्हें बताया था कि आकाश को आसमानी नीले रंग से पोता गया है। तब इनके शिक्षक ने इन्हें बताया था कि आकाश का रंग प्राकृतिक रूप से ही नीला है। इस प्रकार की अनेक बालसुलभ कल्पनाएं ये अपने बचपन में करते थे और इनके विषय में प्रश्न भी किया करते थे।
इस प्रकार प्रकृति से उनका रिश्ता बचपन में ही स्थापित हो गया था। अपने बचपन को रेखांकित करते हुए बाद में रवींद्रनाथ ने लिखा था कि घर के सेवकों का व्यवहार घर के बच्चों के प्रति अच्छा नहीं था, क्योंकि बच्चों की भावनाओं को दबाकर रखने से न तो बच्चों का ही कोई भला होता है और न ही अभिभावकों का। जाहिर है कि प्रत्येक इंसान की जिंदगी में उसके बचपन का बहुत महत्व होता है। बचपन में कायम हुई भावनाएं बुजुर्ग होने तक बनी रहती हैं। ‘पोतड़ों के संस्कार धोतड़ों तक जाते ही हैं।’
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ नामक पुस्तक में रवींद्रनाथ टैगोर का उल्लेख करते हुए लिखा था कि बड़े संयुक्त परिवार में मेधावी प्रतिभाएं लेखन, संगीत, ड्रामा व दर्शन शास्त्र की ओर अभिमुख थीं। अतः यह संभव ही नहीं था कि घर के वातावरण का प्रभाव रवींद्र पर न हुआ होता। फिर परिवार रईस भी था और पूर्वी बंगाल में (अब बांग्लादेश) इनकी कई जमींदारियां भी थीं।
यद्यपि रवींद्रनाथ को विद्यालय जाना पसंद नहीं था, तथापि कुछ कालांशों के लिए रवींद्र को ‘ओरियंटल सेमिनरी’ विद्यालय में प्रवेश दिलाया गया। यहां बच्चों को बंगाली भाषा सिखाई जाती थी। इस विद्यालय में रहना रवींद्र को तनिक भी नहीं भाता था। ये कक्षा छोड़कर विद्यालय की छत पर चले जाते और वहां बैठकर अपना समय गुजारते। इन्हें विद्यालय के बच्चों का व्यवहार भी रास नहीं आता था। रवींद्र की रुचि पढ़ने में कतई नहीं थी, लेकिन इनका दिमाग बहुत अच्छा था। वैचारिक क्षमता अनुपम थी। उस समय किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि ये अग्रणी लेखकों की जमात में अपना नाम दर्ज करवाएंगे।
अध्यापकगण भी रवींद्र की लेखकीय प्रतिभा का अनुमान नहीं लगा पाए थे। विचारों में डूबे रहने वाले रवींद्र को देखकर अध्यापकों को तो यह लगता था कि ये दिमागी रूप से कमजोर हैं और शिक्षा ग्रहण करने में इसी कारण रुचि नहीं लेते हैं। गुमसुम बैठे रहने वाले रवींद्र के मन-मस्तिष्क में कई बातें कुलबुलाया करती थीं। इनका अंतर्मुखी व्यक्तित्व तब स्वयं से बातें कर रहा होता था और देखने वाले को लगता था कि मंदबुद्धि बालक अपने आस-पास के माहौल से कतराकर एकांत की शरण में चला आया है।
इनकी उत्कट प्रतिभा का विस्फोट जब हुआ तो विद्यालय के सभी अध्यापक दंग रह गए। दरअसल परीक्षा में इन्होंने सर्वाधिक अंक प्राप्त किए थे। अध्यापकों को विश्वास नहीं हुआ तो पुनः परीक्षा ली गई, लेकिन रवींद्र ने पुनः सर्वाधिक अंक प्राप्त किए। इससे यह तो जाहिर हो गया कि रवींद्र योग्यता में किसी भी प्रकार से कमतर नहीं हैं। इस तरह रवींद्र ने यह जता दिया था कि इन्हें लेकर, जो संशय अध्यापकों व अभिभावकगण में था, उसकी कोई भी बुनियाद नहीं थी। यह सच है कि इन्हें संयुक्त परिवार के सदस्यों के बीच में रहते हुए ही उच्च कोटि की वैचारिक क्षमता प्राप्त हुई थी। बाल्यकाल में ही इनका रुझान कविता की ओर हो गया था। यद्यपि इन्हें इस बारे में कोई ज्ञान नहीं था, लेकिन इनकी स्वाभाविक प्रतिभा के रूप में कविता लेखन का पक्ष बेहद मजबूत था।
रवींद्र ने महज सात वर्ष की उम्र में ही बंगला भाषा में कविता लिखकर सभी को हैरान कर दिया था। इनकी बुआ के लड़के ने सर्वप्रथम इनकी कविता पढ़ी तो वे मारे प्रसन्नता के कुछ बोल ही नहीं पाए। फिर इन्होंने यह बात रवींद्र के बड़े भ्राता को बता दी। बड़े भ्राता रवींद्र को साथ लेकर नवगोपाल के पास गए। नवगोपाल इनके अच्छे मित्र थे और साथ ही नेशनल पेपर में संपादक थे। रवींद्र की कविता पढ़कर वे भी आश्चर्यचकित हुए और उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई कमसिन बालक इतनी बढ़िया कविता भला किस प्रकार लिख सकता है।
रवींद्र के बड़े भ्राता ज्योतिंद्रनाथ ने इनकी कविता अपने घर के सभी जनों को सुनाई। सभी ने रवींद्र की प्रतिभा को सराहा। इसके अगले ही दिन से इनके पिता ने इनकी अंग्रेजी भाषा को समृद्ध करने का कार्यारंभ किया। इनके घर अघोर जी अंग्रेजी पढ़ाने के लिए नित्यप्रति आते थे, किंतु बंगाली की भांति अंग्रेजी पढ़ने में भी रवींद्र का मन कतई नहीं लगता था। पिता की आज्ञा न मानना किसी भी प्रकार से इनके लिए उचित न था। अतः ये लाचारीवश ही अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त करते रहे, लेकिन सच्चाई यह थी कि रवींद्र अपने पिता से अंग्रेजी पढ़ना चाहते थे और इनके पिता के पास तब समय की नितांत कमी रहती थी। जमींदारी व समाजोपयोगी कार्यों में व्यस्त रहने के कारण वे रवींद्र को पढ़ाने की इच्छा रखकर भी पढ़ा नहीं पाते थे।
फिर बड़े भ्राता ज्योतिंद्र ने एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया। 1877 में इस पत्रिका का प्राथमिक अंक प्रकाशित हुआ । उसमें रवींद्र द्वारा मेघनाथ वध की समीक्षा की गई थी। यह इनके जीवन का प्राथमिक गद्य लेख था । पाठकों ने इसके लिए रवींद्र की प्रशंसा की। उसके पश्चात् रवींद्र ने ‘कवि कहानी’ शीर्षक से एक लंबी कविता का सृजन किया। इसका प्रकाशन भारती में हुआ । उसके बाद समान शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित हुई। उस पुस्तक ने रवींद्र की ख्याति को नई ऊंचाइयां दीं। इनका नाम एक दक्ष लेखक, कवि, संपादक, आलोचक एवं एक अच्छे इंसान के रूप में रेखांकित हो गया। इनकी पुस्तक भी अत्यधिक चर्चा में रही।
प्रथम भारतीय के रूप में इनके भ्राता सत्येंद्रनाथ ने आई.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। वे अपने साथ सत्रह वर्षीय रवींद्र को भी इंग्लैंड ले गए थे। इन्होंने अंग्रेजी साहित्य में विद्याध्ययन करना आरंभ किया। यहां रवींद्र एक वर्ष से भी ज्यादा समय तक रहे, लेकिन इनके परिवार के लोग चाहते थे कि रवींद्र पुनः तीन वर्ष के लिए लंदन जाएं और वहां से कानून की उपाधि लेकर लौटें। रवींद्र की रुचि कानून में नहीं थी। इस कारण ये अहमदाबाद में अपने भाई के पास तीन वर्ष तक रहे, जो उस समय अहमदाबाद में न्यायाधीश थे। अहमदाबाद में रहते हुए क हृदय रवींद्र ने कविता सृजन में परिपक्वता प्राप्त की। ‘दि अवेकनिंग ऑफ दि वाटर फॉल’ शीर्षक कविता ने यह दर्शा भी दिया कि इनका सृजन अनश्वर प्रकृति का साबित होगा ।
इसके पूर्व जब रवींद्र इंग्लैंड गए थे तो एक वर्ष से ज्यादा का समय इन्होंने लंदन में व्यतीत किया था। इस दौरान इनकी मित्रता हमउम्र छात्रों के साथ काफी घनिष्ठ हो गई थी। उन मित्रों के बिछोह से आक्रांत होकर रवींद्र ने इंग्लैंड में ही ‘भग्न हृदय’ शीर्षक से एक कविता रची। इस कविता में बनते-टूटते रिश्तों का बखान किया गया था। इस कविता का प्रकाशन भारत में हुआ और पाठकों ने इसकी काफी सराहना की। उसके पश्चात् तो रवींद्र सृजन पथ पर आगे और आगे बढ़ते गए। साथ ही पाठकों में इनके प्रति प्रेम भी बढ़ता गया । पद्य लेखन इनके जीवन का जैसे उद्देश्य ही बन गया था।
ये सभी भ्राताओं में सर्वाधिक अनुज भ्राता थे । अन्य बड़े भाइयों पर परिवार की विभिन्न जिम्मेदारियां थीं, किंतु रवींद्र सभी जिम्मेदारियों से उन्मुक्त होकर अपना लेखन कार्य किया करते थे। सृजन के अतिरिक्त इन्होंने विख्यात साहित्यकारों के विषय में विशद अध्ययन किया। इससे इनका आत्मविश्वास बढ़ा और एक- एक करके इनकी श्रेष्ठ कृतियां सामने आती रहीं ।
लंदन प्रवास के दौरान वहां के संगीत से ये खासे प्रभावित हुए। जिसके प्रभाव से ही इन्होंने ‘वाल्मीकि प्रतिभा’ नामक नाटिका का सृजन किया। इसके मंचन में भी इन्होंने अपने भ्राता को पूरा सहयोग दिया। यह मंचन इनके निवास स्थान पर ही हुआ था। इसे बहुत-से सम्माननीय लोगों, लेखकों एवं साहित्यकारों ने भी देखा था। यह एक सफल प्रयोग साबित हुआ था।
‘वाल्मीकि प्रतिभा’ की सफलता से उत्साहित होकर रवींद्र ने ‘कालमृगया’ नामक संगीत काव्य का सृजन भी किया। इनका यह सृजन भी पूर्व के अन्य सृजनों की भांति अपार लोकप्रिय रहा। इनके बड़े भ्राता ज्योतिंद्र ने इनका हौसला बढ़ाने का कार्य प्रत्येक अवसर पर किया था। वे अपने छोटे भ्राता को लेखकों की दुनिया के क्षितिज का चमकदार सितारा बनते देखना चाहते थे।
एक बार ज्योतिंद्र अपने बच्चों के साथ कोलकाता से बाहर जा रहे थे, तब अपने साथ वे रवींद्र को भी ले गए। लेखन कार्य हेतु रवींद्र एकांत चाहते थे। बड़े भ्राता के निवास स्थान को देखकर इनकी यह इच्छा पूर्ण हो गई। ज्योतिंद्र कुछ समय बाद अपने बच्चों के साथ कोलकाता लौट गए, किंतु रवींद्र उस एकांत स्थान पर कविताओं का सृजन करते रहे।
इन्हें कविताओं से बेहद लगाव था। ये खड़िया – पेंसिल से स्लेट पर कविताएं सृजित करते और यदि उसमें कुछ कमी होती तो उसे मिटाकर पुनः लेखन करते । फिर अंतिम रूप में ही वे कविताएं कागज पर उतर पाती थीं। लिखने के मध्य अंतराल रखते हुए कुछ समय निकालकर प्राकृतिक स्थलों के दर्शन को भी जाते थे। इससे इन्हें लेखन हेतु अलौकिक ऊर्जा की प्राप्ति होती और मन प्रफुल्लित रहता था।
रवींद्र गंगातट पर अनेक दिनों तक एक झोंपड़ी के मध्य भी रहे। वहां रहते हुए इन्होंने कई गीतों को रचा था। मुंबई में इनके एक और भ्राता का आवास था । उस आवास में रहते हुए इन्होंने समुद्रतट की सुंदरता का आनंद भी उठाया। वहां के प्राकृतिक दृश्यों से इन्होंने अपने भीतर नए उल्लास को अंगड़ाई भरते पाया था। प्रकृति की अद्भुत महानगरी में रहते हुए इनके कवि हृदय ने ‘प्रकृति प्रतिशोध’ शीर्षक नाटिका का सृजन किया। चांदनी रात्रि में इन्होंने शिवाजी का किला देखा, जो टिमटिमाते तारों के मध्य इन्हें इतिहास की अद्भुत धरोहर प्रतीत हुआ। इस प्रकार प्रकृति से इनका स्वाभाविक स्नेह का नाता सदैव ही कायम रहा था।
1883 में रवींद्र का विवाह इनसे ग्यारह वर्ष छोटी मृणालिनी नाम की बालिका से संपन्न हुआ। मृणालिनी ने कवि हृदय रवींद्र को विवाहोपरांत भी शांत वातावरण प्रदान किया, ताकि पति के पद्य सृजन में कोई गतिरोध उत्पन्न न हो। बेशक रवींद्र भी अपनी पत्नी मृणालिनी का संपूर्ण ध्यान रखते थे । तथापि इनका पद्य सृजन प्रथम स्थान पर ही बना रहा था। मृणालिनी से विवाह के बाद रवींद्र ने ‘छवि ओ गान’ शीर्षक से एक पुस्तक का लेखन किया था। इस पुस्तक में इन्होंने गरीबी का मार्मिक चित्रण किया था कि किस प्रकार एक परिवार को गरीबी का त्रास विभिन्न स्तरों पर भोगना होता है।
‘नलिनी’ व ‘मायार खेल’ शीर्षक से इन्होंने फिर नाटक भी लिखे तो ‘राजश्री’ के नाम से एक उपन्यास का सृजन भी किया। रवींद्रनाथ टैगोर की कालजयी रचनाओं का वास्तविक श्रेय यदि किसी को जाता है तो वह उन परिस्थितियों को जाता है, जिनके कायम रहते ही इन्हें लेखन अपना प्रिय अध्यवसाय लगता रहा था। उच्च कुलीन परिवार के सदस्य होने के नाते भी ये लेखन- अध्यवसाय के साथ अपना तारतम्य बनाए रख सके थे। इनकी सादगी एवं लेखनीय निष्ठा भी जिम्मेदार रही कि ये अबाध गति से उच्चकोटि की रचनाएं कर सके।
रवींद्र जी की प्रतिभा बहुमुखी थी। ये महान लेखक एवं कवि तो थे ही, साथ ही एक साधन-संपन्न व्यक्ति, तपस्वी, मानवता के रक्षक, सत्य के समर्थक एवं उच्च कोटि के त्यागी भी थे। इन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की। इनकी विशिष्ट रचनाओं का विवरण निम्न प्रकार से विभिन्न कालखंडों में रहा:
क्रम संख्या | कृतित्व | कृतित्व का प्रकाशन |
1. | सोनार तरी | 1894 |
2. | गीतांजलि | 1910 |
3. | राजा (नाटक) | 1910 |
4. | गोरा (कहानी संग्रह) | 1910 |
5. | डाकघर (नाटक) | 1912 |
6. | अचलायतन (नाटक) | 1912 |
7. | गार्डनर (अंग्रेजी भाषा में) | 1913 |
8. | गीतिमाल्या | 1914 |
9. | बलाका | 1916 |
10. | फ्रूट गेपरिंग (अंग्रेजी भाषा में) | 1916 |
11. | घरे बाहरे (कहानी संग्रह) | 1916 |
12. | दि फ्यूजिटिव (अंग्रेजी भाषा में) | 1921 |
13. | योगायोग (कहानी संग्रह) | 1921 |
14. | मुक्तधारा (नाटक) | 1922 |
15. | रक्तकर्वी (नाटक) | 1926 |
इसके अतिरिक्त रवींद्र जी ने निबंध, यात्रा डायरियां, आत्मकथाएं एवं नृत्य नाटिकाओं का भी सृजन किया। गीतांजलि इनकी सर्वाधिक प्रिय रचना है। यह इनका एक ऐसा काव्य ग्रंथ है, जिसे लिखने में अनेक वर्ष लग गए थे। 1 नवंबर 1912 को ‘इंडिया सोसायटी ऑफ लंदन’ ने गीतांजलि का प्रथम अंग्रेजी संस्करण प्रकाशित किया था। इस ग्रंथ की संपूर्ण इंग्लैंड में चर्चा हुई और कालांतर में यह विश्व की उच्च कोटि की कलाकृति बनकर उभरी। 1913 में इसी कृति के लिए रवींद्र जी को साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। रवींद्र जी तब भारत के ही नहीं, बल्कि एशिया के भी एकमात्र व्यक्ति ही थे, जिन्हें नोबेल पुरस्कार प्रदान किया था।
गीतांजलि में जीवन की कड़वी सच्चाइयों को रहस्यमय ढंग से पेश किया गया है। गीतांजलि मूलरूप से बंगला भाषा में लिखी गई थी। जब इसका अंग्रेजी संस्करण लंदन में प्रकाशित हुआ तो विश्व के महान साहित्यकारों को बेहद विस्मय हुआ। अंग्रेजी के चर्चित कवि डब्ल्यू.बी. यीट्स ने उस ग्रंथ का संबोधन लिखा था। इनके साथियों ने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि कोई भारतीय शख्स उतनी श्रेष्ठतम कृति का सृजन कर सकता है। तथापि बहुत-से लोगों ने रवींद्र जी को नोबेल पुरस्कार दिए जाने का विरोध किया, किंतु गीतांजलि के समक्ष उनका विरोध बौना ही सिद्ध हुआ। लंदन से प्रकाशित ‘न्यू एज’ ने लिखा, ‘भारतीय कवि रवींद्रनाथ टैगोर रचित गीतांजलि में ऐसा क्या है, जो इन्हें नोबेल पुरस्कार दिया गया! ऐसी पुस्तक की रचना तो कोई भी लेखक कर सकता है। इसकी न तो अभिव्यक्ति उचित है और न ही भाषा शैली।’
ब्रिटेन के समाचार पत्रों ने गीतांजलि एवं रवींद्र जी के प्रति पूर्ण सम्मान प्रदर्शित किया था। गीतांजलि की प्रशंसा से समाचारपत्रों के पृष्ठ कई दिनों तक रंगे रहे, किंतु पश्चिमी देशों में खामोशी छाई रही थी । पश्चिमी देश गीतांजलि हेतु नोबेल पुरस्कार दिए जाने के विरोध में नानाधिक प्रकार की बातें कर रहे थे। लॉस एंजिल्स से प्रकाशित दि टाइम्स ने लिखा, ‘भारत के एक हिंदू लेखक को नोबेल पुरस्कार देकर समिति ने अमेरिका एवं यूरोप के प्रतिभाशाली लेखकों को हताश किया है। यह पुरस्कार एक अज्ञात शख्स को प्रदान किया गया है। उसके कार्य भी अनजाने रहे हैं और लेखक का नाम तो उच्चारण करने में भी कठिन है।’
नोबेल पुरस्कार मिलने के पश्चात् रवींद्रनाथ टैगोर की गिनती विश्व स्तरीय प्रतिष्ठित कवियों, विचारकों एवं दार्शनिकों में होने लगी, लेकिन आलोचनाओं का दौर तब भी जारी था। लंदन टाइम्स के संवाददाता वेलेंटाइन चिरोल ने कोलकाता में मौजूद मुस्लिम जनसमुदाय को कहा कि वास्तव में गीतांजलि की रचना आयरिश कवि डब्ल्यू. बी. यीट्स के द्वारा की गई थी। बाद में इन्होंने ही गीतांजलि की भूमिका लिखी। गीतांजलि में सौ से ज्यादा कविताएं थीं। ‘गीतांजलि’ का आशय था, ‘गीतों की भेंट’। विभिन्न मानवीय भावों को उन कविताओं द्वारा प्रदर्शित किया गया था। इस प्रकार 1913 में प्राप्त हुए नोबेल पुरस्कार से 52 वर्षीय रवींद्रनाथ के कार्यों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान प्राप्त हो गई थी, लेकिन इस दौरान 1903 में रवींद्रनाथ ने पत्नी का बिछोह सहन किया और 1905 में काल के हाथों ने पिता देवेंद्रनाथ को भी इनसे दूर कर दिया था।
रवींद्रनाथ टैगोर ने साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिलने के पश्चात् स्वयं को रातोरात ही अंतर्राष्ट्रीय व्यक्ति बनता अनुभव किया। इस पर इन्होंने कहा था, ‘अब मैं जीवन में कभी भी शांति प्राप्त नहीं कर सकूंगा।’ ऐसा ही हुआ भी। विभिन्न विश्वविद्यालयों, सांसदों, राष्ट्राध्यक्षों, राजाओं और अंतर्राष्ट्रीय स्तर की साहित्य समितियों ने इन्हें सम्मान प्रदान करना आरंभ कर दिया था। 1915 में इन्हें ब्रितानी हुकूमत के द्वारा ‘सर’ (नाइटहुड) की उपाधि भी प्रदान की गई थी, लेकिन जलियांवाला बाग अमृतसर में हुए नृशंस हत्याकांड के विरोध में रवींद्रनाथ टैगोर ने 30 मई, 1919 को स्वयं लिखित पत्र में वायसराय चेम्सफोर्ड से आग्रह किया कि वे ‘सर’ की उपाधि लौटा रहे हैं।
इन्हें नोबेल पुरस्कार में, जो धनराशि मिली थी, उसे एक न्यास के सुपुर्द कर के जीवन की प्रत्येक उमंग ही चली गई थी। शांति निकेतन में रहने वाला प्रत्येक प्राणी नीतू से बेहद लगाव रखता था।
नीतू की मौत के सदमे को सह पाना शांति निकेतन में किसी के लिए भी सहज कार्य नहीं था। अतः कविवर का हृदय तो छलनी होना ही था। अपने नाती की मृत्यु के कारण उसका बिछोह ये सहन नहीं कर पा रहे थे। यही लगता था कि नाती का गम इन्हें भी अपने साथ ले जाएगा, लेकिन रवींद्र जी ने फिर स्वयं को साहित्य साधना में समर्पित कर दिया। नीतू की मृत्यु के समय कविवर की उम्र 71 वर्ष की हो चुकी थी। साहित्य साधना में गुजरता समय ही इन्हें जीवित रखे हुए था। यह टूटे अवश्य, लेकिन बिखरे नहीं।
इनके स्थान पर यदि कोई अन्य होता तो कदाचित वह इतने गम सहन न कर पाता, लेकिन रवींद्र ने पत्नी, दो पुत्रियों, एक पुत्र और एक युवा नाती की मृत्यु का गम बर्दाश्त किया। इनके बिना इनकी जिंदगी में तब कोई आकर्षण नहीं रहा था, किंतु ये जानते थे कि ज्ञानी व्यक्ति को संसार में किस प्रकार से जीवित रहना होता है। जीवन के एकाकी सफर को वह पूरा करते रहे।
नाती की मृत्यु 1932 में हुई थी। ये उसकी मृत्यु के गम को आगामी कई वर्षों तक अपने सीने में अनुभव करते रहे थे। फिर 7 अगस्त, 1941 में इनके जीवन का अस्त उसी जोडासांको आवास में हो गया, जहां इनका जन्म हुआ था। इनकी मृत्यु के समाचार ने दुनिया के सभी लोगों को स्तब्ध कर दिया। गुरुवर रवींद्रनाथ टैगोर के बहुआयामी व्यक्तित्व को यह संसार कभी भी विस्मृत नहीं कर सकता है।
कवि के रूप में इनकी महानता का स्पर्श आने वाली पीढ़ियों को भी अवश्य ही प्राप्त होगा। इस नश्वर संसार में रवींद्रनाथ टैगोर नाम के नश्वर इंसान ने, जो कालजयी साहित्यिक सृजन किया था, निश्चय ही उस सृजन तक महाकाल के हाथ भी नहीं पहुंच सकते। कविवर रवींद्रनाथ ने मानवता को यही संदेश दिया है। कि जीने के दौरान अपने कर्मों को इतना उन्नत कर लो कि महाप्रयाण के पश्चात् भी संसार की रेत पर आपके पदचिह्न अमिट हो जाएं।
भारतीय राष्ट्रगान (जन-गण-मन) के रचयिता
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भारत के लिए राष्ट्रगान – ’जन गण मन’ लिखा था। उन्होंने बांग्लादेश का राष्ट्रीय गीत ’आमार सोनार बांग्ला’ भी लिखा था। इसके साथ ही श्रीलंका का राष्ट्रगान भी टैगोर द्वारा लिखे गए एक बंगाली गीत पर आधारित था।
FAQs
रवीन्द्रनाथ टैगोर कवि, साहित्यकार, नाटककार, संगीतकार और चित्रकार थेे। उनका जन्म 7 मई, 1861 को कलकत्ता में जोरासांको हवेली में देवेंद्रनाथ टैगोर और शारदा देवी के तेरह बच्चों में से सबसे छोटे बेटे के रूप में हुआ था।
इनके पिता देबेंद्रनाथ टैगोर ब्रह्म समाज के एक नेता थे। इनके दादा द्वारकानाथ टैगोर एक अमीर जमींदार और समाज सुधारक थे। इनका पालन-पोषण मुख्य रूप से नौकरानियों और नौकरों द्वार किया गया था क्योंकि उनके पिता ने बङे पैमाने पर यात्रा की थी और उनकी छोटी सी उम्र में ही उनकी माँ का निधन हो गया था।
रवीन्द्रनाथ टैगोर की सबसे प्रसिद्ध कविता 1913 में प्रकाशित ’गीताजंलि’ है। जिसके लिए इन्हें साहित्य के ’नोबेल पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया।
रवीन्द्रनाथ टैगोर भारत के राष्ट्रगान ’जन-गण-मन’ के रचयिता है।
रवींद्रनाथ टैगोर जलियावाला बाग हत्याकाण्ड (1919) के नरसंहार से बहुत द्रवित हुए और उन्होंने इसके
विरोधस्वरूप अपनी ’नाइटहुड’ (सर) की उपाधि को वापस कर दिया।
महात्मा गांधी द्वारा रवींद्रनाथ टैगोर को ’गुरुदेव’ उपाधि दी गई।
रवींद्रनाथ टैगारे ने 1901 में ’शांति निकेतन आश्रम’ की स्थापना की।
रवींद्रनाथ टैगोर ने भारत का राष्ट्रगान ’जन-गण-मन’ तथा बांग्लादेश का राष्ट्रगान ’आमार सोनार बांग्ला’ लिखा था।
कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर को 1913 में लंदन में प्रकाशित होने वाली ’गीताजंलि’ कविता संग्रह के लिए साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। क्योंकि उनकी यह कविता भारत के साथ-साथ विदेशों में भी विख्यात हुई थी।
विश्व भारती के संस्थापक रवीन्द्रनाथ टैगोर है।
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