राजनीति विज्ञान / Political Science

निर्णय निर्माण के मार्ग में आने वाली बाधाएँ

निर्णय निर्माण के मार्ग में आने वाली बाधाएँ
निर्णय निर्माण के मार्ग में आने वाली बाधाएँ

निर्णय निर्माण के मार्ग में आने वाली बाधाओं का उल्लेख कीजिए।

निर्णय निर्माण के मार्ग में आने वाली बाधाएँ

प्रशासनिक संगठनों में निर्णयों को विवेकशील बनाने तथा व्यावहारिक रूप में क्रियान्वित करने के सम्बन्ध में असंख्य समस्याएँ तथा बाधाएँ विद्यमान हैं। जे. एस. मार्च ने निर्णयन के सम्बन्ध में तीन समस्याओं की व्याख्या की है जो एक प्रबन्धक के सामने उपस्थित रहती है-

(i) बहुत सी समस्याओं या प्रकरणों में से किसे वह पहले निपटाए ?

(ii) किसी समस्या की अनिश्चितता को समाप्त करने के लिए कितना प्रयत्न, समय और धन लगाए?

(iii) समस्या के समाधान के लिए वह किस विकल्प को अपनाए?

(1) निर्णयन तंत्र की सीमा- संगठनात्मक स्तर पर प्रवर्तित निर्णय प्रक्रिया की व्यवस्था में भी अनेक प्रकार के दोष व्याप्त रहते हैं। किस अधिकारी को कितनी सत्ता तथा अधिकार दिए जाएँ तथा उसी अनुरूप उत्तरदायित्व निर्धारित किए जाएँ इत्यादि का निर्धारण संगठन में सरलता से नहीं हो पाता है। कुछ व्यक्तियों के पास कार्य का बोझ रहता है, तो दूसरी ओर कुछ व्यक्ति तुलनात्मक रूप से अधिक आराम करते हैं। विडम्बना यह है कि नाकार व्यक्ति के बजाय कर्मठ व्यक्ति के पास कार्य बोझ अधिक बढ़ाया जाता रहता है। एक कहावत है- “पत्थर उस पेड़ पर फेंके जाते हैं, जिस पर फल लगते हैं। इसी प्रकार संगठन की पदसोपान, नियंत्रण, आदेश की एकता, संचार एवं समन्वय प्रणाली तथा प्रत्यायोजन इत्यादि निर्णयन में सहायक तकनीक होते हुए भी कई बार बाधा उत्पन्न करते हैं। लोक प्रशासन में निर्णयन तंत्र को प्रभावित करने वाले कारकों में सत्ता, वित्त, मापदण्ड, समय, कानून, मूल्य तथा नियंत्रण इत्यादि की सीमाएँ एवं राजनीतिक दल, दबाव समूह, सामाजिक परिवेश, अर्थव्यवस्था, भौगोलिक परिस्थितियाँ, सांस्कृतिक प्रतिमान तथा राजनीतिक निर्णयों की प्रकृति निर्णायक भूमिका निभाती है। निर्णय के लिए आवश्यक विकल्पों का न मिलना या बाध्यताओं का घेरा अथवा सूचनाओं (तथ्यों) की कमी भी इस प्रक्रिया को बाधित करती है।

(2) मानव व्यवहार की सीमाएँ- निर्णयन वास्तविक रूप में मानव व्यवहार का मूर्तरूप होता है, जो अन्य किसी के व्यवहार को प्रभावित करता है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक पारिवारिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक पृष्ठभूमि होती है, जिसके अनुरूप व्यक्ति के विचार, मूल्य एवं संस्कार पल्लवित होते हैं। आयु, जाति, धर्म, नस्ल, लिंग, भाषा, देश, काल, बुद्धि तथा चरित्र निर्णयन को व्यापक रूप से प्रभावित करते हैं।

(3) अभिनति (Biases) की समस्या- अभिनति या वायस का अर्थ है- कुछ तिरछा या एक ओर झुका हुआ। जब किसी व्यक्ति का मत या विचार सशक्त ढंग एवं पक्षपातपूर्ण रूप में एक ओर झुके हुए प्रतीत हों, तो इसे अभिनति कहा जाता है। कई बार यह झुकाव जानबूझकर तो कई बार अनजाने में ही अभिनति का शिकार रहता है। अभिनति के कारण निर्णयन में विवेकशीलता का समावेश कठिन हो जाता है। अभिनति की समस्या वंश, परिवार, जाति, भाषा, क्षेत्र, लिंग, आयु, धर्म से लेकर शिक्षा एवं अनौपचारिक समूहों तक किसी के भी प्रभाव के कारण आ सकती हैं।

प्रशासनिक संगठनों में अभिनति का सर्वाधिक दुष्प्रभाव वहाँ पड़ता है, जहाँ अधिकारी के पास स्वविवेकीय शक्तियाँ हों, परम्पराएँ या नियम या प्रक्रियाएँ निश्चित न हों, समाज से सम्बन्धित सीधी सेवाएँ देनी हों, एक वर्ग का समूह का लाभ हेतु चयन करना हो तथा कार्मिक का चयन, पदोन्नति या निष्कासन करना हो। ऐसी परिस्थितियों में निर्णय लेते समय व्यक्ति अनजाने में ही अभिनति का शिकार हो जाता है।

(4) दिनचर्या की समस्या- प्रो. मार्च का मानना है कि दैनिक कार्यप्रणाली तथा समस्याएँ कई बार व्यक्ति पर इतनी हावी हो जाती हैं कि वह महत्वपूर्ण, दीर्घकालीन तथा तात्कालिक महत्व के निर्णयों को भी टालता रहता है। अधिकांश प्रबन्धकों का समय घर एवं कार्यालय में रोजमर्रा के कार्यों के निष्पादन में ही व्यतीत हो जाता है अर्थात् रोजमर्रा के इन कार्यों में वास्तविक निर्णयन बहुत कम हो पाते हैं। केवल पत्रों के उत्तर देना, फाइलों पर टिप्पणी लिखना या अधीनस्थों को निर्देश देने में ही यदि सारा दिन व्यतीत हो जाए तो निर्णयों के लिए समय कैसे दिया जा सकता है? समय की सीमा या गति निश्चित होती है, किन्तु संगठन में कार्य का बोझ अनिश्चित होता है।

( 5 ) अन्य समस्याएँ निर्णयन के क्रम में प्रायः प्रबन्धक यह निर्धारित नहीं कर पाते हैं कि कौन-सी समस्या पहले सुलझायी जाए? इसी प्रकार ठीक निर्णय क्या है, इसका निर्णय करना भी टेढ़ी खीर सिद्ध होता है। प्रत्येक संगठन में तथ्यों, सूचनाओं, आंकड़ों का एकत्रण तथा संग्रहण की अपनी सीमाएँ होती हैं। कई बार समस्या अपने आप इतनी जटिल, अस्पष्ट या बहुआयामी होती हैं कि उसका ओर-छोर ढूँढना मुश्किल हो जाता है। लोक प्रशासन में राजनीतिक हस्तक्षेप तथा संसाधनों की कमी भी निर्णयन को प्रायः प्रभावित करती रही है।

निर्णयन के आधार पर विचारणीय तत्वों के क्रम में सेक्लर-हडसन ने 12 तत्व गिनाए हैं। इन तत्वों की अवहेलना होने पर भी निर्णयन प्रभावित होता है। ये तत्व हैं-

  1. कानूनी सीमाएँ
  2. बजट
  3. लोकाचार
  4. तथ्य
  5. इतिहास
  6. उच्चाधिकारी
  7. अनुमानित भविष्य
  8. उच्चाधिकारी
  9. दबाव समूह
  10. स्टाफ सदस्य
  11. कार्यक्रम की प्रकृति
  12. अधीनस्थ कार्मिक

मिलेट ने निर्णय प्रक्रिया के तीन पक्षों को बहुत ही विचारणीय ढंग से सामने रखा है-

(i) व्यक्तिगत अन्तर जो कुछ को निर्णायक तथा दूसरों को अनिर्णायक बनाता है अर्थात् कुछ लोग निणर्य देरी से करते हैं, कुछ अस्थायी निर्णय करते हैं, तो कुछ पीछा छुड़ाना चाहते हैं। कई लोग अपने ही निर्णयों पर दृढ़ नहीं रहते हैं, तो कुछ जानबूझकर निर्णयों में कमी छोड़ देते हैं ताकि स्वयं बचकर निकल सकें। सामाजिक, शैक्षिक तथा व्यावसायिक पृष्ठभूमि भी निर्णयन को प्रभावित करती है। वकीलों के बजाय न्यायाधीश अधिक निर्णयात्मक प्रवृत्ति के माने जाते हैं। तो दूसरी ओर विषय विशेषज्ञ या बुद्धिजीवी प्रायः अधिक ज्ञान के कारण भ्रमित रहते हैं एवं सार्थक निर्णय नहीं कर पाते। नेतृत्व करने तथा लोगों का विश्वास जीतने में भी बुद्धिजीवी प्रायः असफल रहते हैं।

(ii) निर्णय करने में ज्ञान का महत्व अर्थात् निर्णयन के लिए मूलभूत ज्ञान, कौशल तथा सूचना आवश्यक है। इसका अभाव अच्छे निर्णयन को प्रभावित करता है। मिलेट के शब्दों में- “विस्तृत तथ्यों का सावधानी से एकत्रण, उनका विश्लेषण तथा व्याख्या भावी प्रभावों का पूर्वानुमान, मानवीय तथा भौतिक आचरण की सामान्य अवधारणाओं का प्रयोग ऐसे तत्व हैं, जो निर्णय लेने में ज्ञान का प्रयोग करते समय भिन्न-भिन्न मात्रा में प्रभाव दिखाते हैं।”

(iii) निर्णय में प्रतिबन्ध लगाने वाली व्यक्तिगत तथा संस्थागत सीमाओं को वर्णित करते हुए मिलेट कहते हैं कि “एक ओर निर्णयन में उच्च आकांक्षाओं, परम्पराओं तथा कार्यों को सम्पन्न करने वाले संगठन के दृष्टिकोण को समझना आवश्यक है, तो दूसरी ओर प्रशासकों में निहित व्यक्तिगत रुचि एवं भावना भी निर्णयन को सीमित कर देती हैं। “

समाधान-

टैरी ने निर्णयन को सफल बनाने के लिए कुछ सुझाव दिए हैं-

(i) सर्वप्रथम समस्या को वास्तविक रूप में पहचानें।

(ii) समस्या की सामान्य पृष्ठभूमि से सम्बन्धित सूचनाएँ एवं दृष्टिकोण एकत्र करें।

(iii) कार्य-साधन के सर्वोत्तम मार्ग को बनाएँ।

(vi) नियोजन तथा कामचलाऊ निर्णय निश्चित करने का प्रयास करें।

(v) इस कामचलाऊ निर्णय का मूल्यांकन करें।

(vi) इस चरण में वास्तविक या स्थायी निर्णय करें तथा उसे क्रियान्वित करें तथा

(vii) प्राप्त परिणामों के आधार पर भावी कदम निश्चित करें और यदि आवश्यक हो, तो निर्णय में संशोधन कर लें।

निर्णयन को प्रभावी तथा लोकप्रिय बनाने के लिए यह सुझाव भी दिया जाता है कि यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर आधारित होना चाहिए। प्राचीन एवं मध्यकाल में निर्णयन का कार्य शासन से शीर्ष स्तर पर ही होता था तथा शेष भी उसका क्रियान्वयन करते थे, किन्तु 20वीं सदी में औद्योगिक विकास के साथ-साथ लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रसार से निर्णय में अधीनस्थों की सहभागिता भी बढ़ी है। साइमन की मान्यता थी कि एक व्यक्ति का निर्णय प्रर्णतया बौद्धिकतायुक्त नहीं कहा जा सकता है। सेक्सर-डहसन, गोरे एवं डाइसन तथा मासारिक इत्यादि विद्वान् सहभागी निर्णयन को आवश्यक मानते हैं, क्योंकि इसके कई लाभ हैं जैसे अधीनस्थों की रुचि बढ़ती है, संगठन में उदासीनता का वातावरण समाप्त होता है, पर्यवेक्षण एवं प्रत्यायोजन कार्य सरल हो जाता है, संगठन में शान्ति एवं मनोबल को बढ़ावा मिलता है, अधीनस्थों में पहल क्षमता का विकास होता है तथा उच्चाधिकारियों को निम्न स्तरीय कार्मिकों या कार्य के निष्पादन की वास्तविक समस्याओं का पता चलता है। विकेन्द्रीकरण, प्रत्यायोजन, अभिप्रेरण, मनोबल तथा संगठनात्मक प्रभावशीलता के लक्ष्य प्राप्त करने में भी निर्णयन की लोकतांत्रिक प्रक्रिया सहायक सिद्ध होती है। संगठन में लोकतांत्रिक निर्णयन को बढ़ावा देने के लिए कुछ सुधारात्मक प्रयास आवश्यक हैं।

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Anjali Yadav

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