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वित्तीय प्रशासन क्या है?
वित्तीय प्रशासन का अर्थ – प्रशासन तथा वित्त ऐसे ही अभिन्न अंग हैं जैसे देह और उसकी छाया। सभी प्रशासकीय कार्यों में धन खर्च होता है। शासन के द्वारा किये गये किसी भी ऐसे कार्य की कल्पना नहीं की जा सकती जिससे वित्त सम्बद्ध न हो कर वसूल करने के काम में भी तो पहले व्यय करना होता है। जहाँ धन व्यय होगा और धन एकत्रित होगा वहाँ एक वित्तीय प्रणाली तो स्वाभाविक रूप से विकसित होगी ही इस वित्तीय प्रणाली को प्रशासन रूप देना ही वित्तीय प्रशासन है। कौटिल्य ने ठीक ही कहा है कि “सभी उद्यम वित्त पर निर्भर हैं इसलिए कोषागार के प्रति सर्वाधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।” इसलिए एक ठोस एवं कुशल वित्तीय प्रणाली का होना अत्यन्त आवश्यक है। अकुशल वित्तीय प्रणाली लोगों में सरकार के प्रति बुरी भावना उत्पन्न करती है और अन्त में सरकार का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाता हैं इससे स्पष्ट है कि वित्तीय व्यवस्था जितनी अच्छी होगी प्रशासन उतना ही अच्छा चलेगा। प्रशासन की अच्छाई वित्तीय प्रणाली पर निर्भर करती है। एफ. ए. निग्रो ने वित्तीय प्रशासन के महत्व को व्यक्त करते हुए कहा है। कि “वित्तीय प्रशासन आज बड़े महत्व की वस्तु है। क्योंकि सरकारी सेवाओं पर व्यय की जाने वाली धनराशि में अत्यधिक वृद्धि हो गयी है। सरकार द्वारा किये जाने वाले कार्य के लिए धन की आवश्यकता होती है और अब वह इतने सारे कार्य करती है कि यह अत्यन्त आवश्यक हो गया है कि वित्तीय प्रशासन के सम्बन्ध में ठोस सिद्धांत तथा प्राविधियाँ प्रयोग में लायी जायें।”
वित्तीय प्रशासन के अन्तर्गत वे सब कार्य आ जाते हैं, जिनका लक्ष्य शासन के कार्यों के संचालन के लिए धन एकत्रित करना होता है तथा इस धन को विधि के अनुसार सुचारु रूप से व्यय करना होता है। वित्तीय प्रशासन का दायित्व है कि वह यह ध्यान रखे कि जनता के ऊपर उतना ही कर भार पड़े जितना आवश्यक है अर्थात् उसके ऊपर अनावश्यक कर-भार न पड़े। इसके साथ-साथ जनता की गाढ़ी कमाई को इस ढंग से व्यय किया जाना चाहिए कि एक भी पैसा व्यर्थ न जाये ।
वित्तीय प्रशासन के अभिकरण (Agency of financial Administration)
इसके अभिकरण निम्नलिखित हैं :
1. विधायिका- वित्त पर अन्तिम नियन्त्रण विधायिका का होता है। लोकतन्त्रीय तरीके से निर्मित विधायिका राजकीय वित्त पर सबसे अधिक महत्वपूर्ण नियन्त्रण रखती है। लोकतन्त्रीय सिद्धांत के अनुसार संसद या विधानमण्डल की पूर्व-स्वीकृति के बिना न तो कोई कर लगाया जा सकता है, न इसे इकट्ठा किया जा सकता है और न ही कोई खर्च किया जा सकता है। विधायिका को यह शक्ति प्राप्त होती है कि वह कोई भी कर लगाये, समाप्त करे, बढ़ाये अथवा कम करे। वास्तव में, विधायिका को धन देने की अन्तिम सत्ता प्राप्त होती है।
2. कार्यपालिका – कार्यपालिका वित्तीय प्रशासन का दूसरा महत्वपूर्ण अभिकरण हैं इसका प्रमुख कार्य वित्तीय नीति का निर्धारण करना होता है, यही वित्त की माँगें संसद के समक्ष रखती है। वित्त की माँग तथा पूरक माँगें कार्यपालिका द्वारा ही संसद के समक्ष रखी जाती हैं। किसी विभाग और योजना के संचालन के लिए कितने धन की अवश्यकता होगी, वह धन किस प्रकार व्यय होगा, कर्मचारियों के वेतन और कार्यालयों के रखरखाव पर कितना खर्च होगा, आदि का निर्धारण कार्यपालिका द्वारा किया जाता है, विधायिका सिर्फ अपनी स्वीकृति देती है।
3. वित्त विभाग – वित्त विभाग एवं राजकोष देश के सम्पूर्ण वित्तीय प्रशासन के प्रति उत्तरदायी होता है। आय तथा व्यय सम्बन्धी विवरण जिसे हम बजट कहते हैं, इसी के द्वारा बनाया जाता है। बजट पर संसद की अनुमति प्राप्त हो जाने के बाद वित्त मंत्रालय ही सरकार के सम्पूर्ण व्यय को नियंत्रित करता है तथा यह देखता है कि प्रशासकीय मंत्रालयों द्वारा फिजूल खर्चे को कैसे रोका जाये। एक तरफ तो यह विभाग सरकार के विभिन्न विभागों पर वित्तीय नियंत्रण रखता है तो दूसरी तरफ यह उनके मध्य तालमेल स्थापित करता है। वित्त विभाग के महत्व को देखते हुए कुछ विद्वानों ने इसे “प्रशासन का हृदय” कहा है।
4. लेखा-परीक्षण – लेखा-परीक्षण वित्तीय प्रशासन का एक महत्वपूर्ण अभिकरण है। सरकारी धन का व्यय हो जाने के बाद उसका स्वतन्त्र लेखा-परीक्षण विभाग द्वारा किया जाता है। लेखा-परीक्षण द्वारा निरीक्षण का मुख्य आशय यह होता है कि यह निश्चित किया जा सके कि धनराशि का नियमानुसार उपयोग किया गया है अथवा नहीं। यदि ऐसा नहीं किया गया है तो सरकार का ध्यान उन त्रुटियों की ओर आकर्षित किया जाता है। यह महत्वपूर्ण कार्य लेखा-परीक्षण विभाग करता है। लेखा-परीक्षण के सर्वोच्च अधिकारी की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इसे भारत में नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक कहा जाता है।
5. संसदीय समितियाँ – संसद की दो समितियाँ, जिन्हें अनुमान समिति तथा सार्वजनिक लेखा समिति कहा जाता है, विधायिका के उत्तरदायित्व पर वित्तीय नियन्त्रण लागू करती हैं। अनुमान समिति सरकार के विभिन्न विभागों के व्यय में मितव्ययता लाने के सुझाव देती है है। सार्वजनिक लेखा समिति महालेखा परीक्षक के लेखा-परीक्षण के प्रतिवेदन को दृष्टिगत रखते हुए विनियोजन लेखों की जाँच करती है और वित्तीय अनियमितताओं की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करती है तथा भविष्य में उनको रोकने के सुझाव देती है।
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