धर्म और शिक्षा में क्या सम्वन्ध है ? ये एक-दूसरे को किस रूप में प्रभावित करते हैं ?
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धर्म और शिक्षा में सम्बन्ध (Relation between Religion and Education)
धर्म मनुष्य के प्राकृतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक, तीनों प्रकार के विकास के लिए आवश्यक ज्ञान एवं क्रियाओं का योग है और शिक्षा किसी भी प्रकार के ज्ञान एवं क्रियाओं के विकास एवं प्रशिक्षण का साधन, आध्यात्मिक ज्ञान तथा क्रियाओं के विकास एवं प्रशिक्षण का भी। तब स्पष्ट है कि धर्म और शिक्षा में संज्ञा और क्रिया का सम्बन्ध है। जिस प्रकार बिना संज्ञा के क्रिया नहीं हो सकती और बिना क्रिया के संज्ञा निर्जीव होती है, ठीक उसी प्रकार बिना धर्म के शिक्षा सही मार्ग पर नहीं चल सकती और बिना शिक्षा के धार्मिक आदर्शों की प्राप्ति नहीं की जा सकती। यदि हम उद्देश्यों की दृष्टि से ही देखें तो मानव जीवन के जिन उद्देश्यों प्राकृतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक विकास को धर्म निश्चित करता है, शिक्षा उन उद्देश्यों की प्राप्ति में मनुष्य की सहायता करती है।
किन्तु कुछ विद्वान् धर्म तथा शिक्षा को भिन्न समझते हैं। उनकी दृष्टि से धर्म और शिक्षा में कोई सम्बन्ध नहीं होता। उनका तर्क है कि धर्म केवल अध्यात्म की बात करता है और ज्ञान की अपेक्षा अन्धविश्वासों पर अधिक आधारित होता है. जबकि शिक्षा ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान के अन्धकार को दूर करती है। इसके अतिरिक्त धर्म ने सदैव वैमनस्यता और रक्तपात को बढ़ावा दिया है, जबकि शिक्षा मनुष्य को शान्ति की ओर अग्रसर करती है। इस सन्दर्भ में हमारा यह निवेदन है कि धर्म तथा शिक्षा का यह अन्तर धर्म के बाह्य रूप के प्रति अन्धविश्वासों और शिक्षा की आदर्श धारणा के आधार पर बना है। निष्पक्ष रूप से देखने पर स्पष्ट होता है कि धर्म अन्धविश्वासों पर नहीं, अपितु सत्य ज्ञान पर टिका होता है। और यह हमें वैमनस्यता नहीं अपितु विश्वबन्धुत्व का पाठ पढ़ाता है। हिन्दू धर्म तो किसी धर्म के बाह्य रूप की भी निन्दा नहीं करता। हमारे यहाँ उस धर्म को कुधर्म कहा गया है जो किसी दूसरे धर्म के मार्ग में बाधा पहुँचाता है।
इतिहास यह बताता है कि किसी भी देश में धर्म ने सदैव शिक्षा को प्रभावित किया है और शिक्षा ने हमेशा धर्म के रूप में परिवर्तन किया है। प्राचीन काल में हमारे देश में शिक्षा पर धर्म का नियन्त्रण था और यूरोपीय देशों में भी शिक्षा धर्म के नियन्त्रण में थी। वर्तमान में संसार के प्रायः सभी देशों में शिक्षा पर राज्य का नियन्त्रण है, हमारे देश भारत में भी। पर इस स्थिति में भी धर्म शिक्षा को तथा शिक्षा धर्म को किसी न किसी रूप में प्रभावित अवश्य करते हैं।
धर्म का शिक्षा पर प्रभाव
आज किसी भी समाज की शिक्षा उसके धर्म-दर्शन, उसके स्वरूप, उसके शासनतन्त्र, उसकी अर्थव्यवस्था, मनोवैज्ञानिक तथ्यों और वैज्ञानिक आविष्कारों पर निर्भर करती है, ये ही किसी समाज की शिक्षा के मूल आधार हैं। आज संसार के प्रायः सभी देशों में शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का उत्तरदायित्व है इसलिए उस पर सर्वाधिक पकड़ राज्य की है, परन्तु राज्य भी न तो जनता की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचा सकता है, न अर्थव्यवस्था के प्रतिकूल शिक्षा की व्यवस्था कर सकता है, न मनोवैज्ञानिक तथ्यों को नजर अन्दाज कर सकता है तथा न वैज्ञानिक तथ्यों को नकार सकता है। यह बात दूसरी है कि कुछ समाजों की शिक्षा पर धर्म का प्रभाव अधिक है और कुछ पर कम।
धर्म तथा शिक्षा के उद्देश्य- आज संसार के प्रायः सभी देशों में शिक्षा पर राज्य का नियन्त्रण है तथा राज्य अपने आदर्शोनुकूल शिक्षा के उद्देश्य निश्चित करते हैं। लोकतन्त्रीय देशों में यदि लोकतन्त्रीय सिद्धान्तों की शिक्षा पर बल रहता है तो साम्यवादी देशों में साम्यवादी सिद्धान्तों की शिक्षा पर बल रहता है। पर किसी भी देश में शिक्षा के उद्देश्य निश्चित तो व्यक्ति ही करते हैं और व्यक्तियों पर धर्म विशेष का प्रभाव होता है। तब वे धर्म विरुद्ध उद्देश्य कैसे निश्चित कर सकते हैं। आज भी लोग मनुष्य को पहले अच्छा मनुष्य बनाने की बात पहले सोचते हैं। और यदि गहराई में जाकर सोचें तो यह विचार धर्म की देन है। संसार का कोई भी धर्म मनुष्य को अच्छा मनुष्य बनाने की ओर ही प्रवृत्त है। हम यह भी देख रहे हैं कि कोई राज्य शिक्षा द्वारा बच्चों के आध्यात्मिक विकास की बात करे या न करे, परन्तु अधिकतर समाजों में इसकी शिक्षा की व्यवस्था है। संसार के अधिकतर देशों में धार्मिक संस्थाएँ कुछ शिक्षा संस्थाएँ भी चला रही हैं और इन संस्थाओं में शिक्षा का एक उद्देश्य धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा देना भी है। वे यह शिक्षा किस रूप में दे रही हैं, यह दूसरी बात है।
धर्म तथा शिक्षा की पाठ्यचर्या- यूँ आज संसार के अधिकतर देशों में धर्म शिक्षा की पाठ्यचर्या का अनिवार्य विषय नहीं है, इसे उच्च शिक्षा में केवल वैकल्पिक विषय के रूप में स्थान प्राप्त है किन्तु फिर भी किसी भी देश की शिक्षा की पाठ्यचर्या पर धर्म का कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य है। किसी भी देश की भाषा की पाठ्य पुस्तकों में उस देश की धर्म तथा नीति प्रधान सामग्री का होना इस सत्य का प्रमाण है। और यदि हम इतिहास की विशेष सामग्री पर दृष्टि डालें तो उसमें भी देश विशेष के धर्म-दर्शन की कहानी अवश्य मिलेगी। इस प्रकार जाने-अनजाने धर्म तथा दर्शन शिक्षा की पाठ्यचर्या में अपना आसन आज भी बनाए हुए हैं। फिर देश विशेष की शिक्षा की पाठ्यचर्या का निर्माण व्यक्ति ही करते हैं और इन व्यक्तियों पर किसी धर्म का प्रभाव होता है, तब उनके द्वारा विकसित पाठ्यचर्या में धर्मसम्मत ज्ञान तथा क्रियाओं को स्थान देना और धर्म विरुद्ध ज्ञान एवं क्रियाओं को स्थान न देना स्वाभाविक है।
धर्म और शिक्षण विधियाँ- यूँ आज शिक्षण विधियों पर सर्वाधिक प्रभाव मनोविज्ञान का है, परन्तु प्रारम्भ में शिक्षण विधियों का विकास धर्म-दर्शन प्रतिपादकों और प्रचारकों ने किया था। इनके द्वारा विकसित उपदेश और क्रियाविधियों का प्रयोग आज भी होता है। संसार में जितने भी धर्म हैं, सब मनुष्य को आत्माधारी मानते हैं, किन्तु इनमें कुछ धर्म ऐसे हैं जो आत्मा को सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिशाली मानते हैं। आत्मा को पूर्ण मानने वाले धर्म आत्मक्रिया और योग की विधियों को शिक्षण की सर्वोत्तम विधि मानते हैं। आध्यात्मिक तत्व का ज्ञान एवं अनुभूति अपने वास्तविक रूप में इन विधियों द्वारा ही हो सकते हैं। अब वह दिन दूर नहीं, जब मनोवैज्ञानिक भी इन विधियों का समर्थन करेंगे।
धर्म तथा अनुशासन – यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो किसी भी देश की शिक्षा के क्षेत्र में अनुशासन से तात्पर्य अन्दर से नियन्त्रित सदाचार से लिया जाता है। अनुशासन सम्बन्धी यह विचार धर्म की देन है। अब यह अनुशासन कैसे प्राप्त किया जाए, इस विषय में पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक तथा धर्म मर्मज्ञों के कुछ भिन्न मत हैं। पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक मन और आत्मा से परिचित नहीं हैं, इसलिए वे अन्दर से का अर्थ बुद्धि एवं विवेक से लेते हैं, परन्तु भारतीय धर्म-दर्शन एवं मनोविज्ञान के ज्ञाता मन और आत्मा से भी परिचित हैं, इसलिए वे मनुष्य के आचार-विचार को बुद्धि तथा विवेक के साथ-साथ मन और आत्मा से भी नियन्त्रित करने पर बल देते हैं और इसी को वे सच्चा अनुशासन मानते हैं। आज नहीं तो कल, पाश्चात्य मनोविज्ञान को भारतीय धर्म-दर्शन एवं मनोविज्ञान की यह बात माननी पड़ेगी।
धर्म तथा शिक्षक-संसार के सभी धर्मों में गुरु का बड़ा महत्व है। सामान्य जन अपने धर्म गुरु को श्रद्धानमन करते हैं। इसका प्रभाव शिक्षा के क्षेत्र में सर्वत्र नजर आता है। सामान्य जन विद्यालयी शिक्षकों को भी आदर की दृष्टि से देखते हैं, यह बात दूसरी है कि किस समाज में शिक्षकों को कितना सम्मान प्राप्त है। सामान्यतः सभी धर्म शिक्षकों को समर्पित भाव से शिक्षण कार्य करने का उपदेश देते हैं और यह तथ्य किसी से छिपा नहीं कि जो शिक्षक अपना कार्य समर्पित भाव से करते हैं, उन्हें समाज में बड़ा सम्मान प्राप्त होता है।
धर्म तथा शिक्षार्थी-संसार के सभी धर्मों में शिक्षार्थियों को संयमित जीवन जीने और शिक्षकों का सम्मान करने का उपदेश है। किसी भी समाज की शिक्षा में आज भी शिक्षार्थियों से यही आशा की जाती है। यह बात अवश्य है कि धर्मप्रधान समाजों में इस बात पर विशेष बल है तथा धर्म को शिक्षा में स्थान न देने वाले समाजों में अपेक्षाकृत कम। धर्म शिक्षार्थियों का क्या, सभी मनुष्यों का सच्चा मार्गदर्शक है।
धर्म तथा विद्यालय–विद्यालय तो समाज के आदर्श प्रतिनिधि होते हैं। जिस समाज में जिस धर्म को माना जाता है, उसका प्रभाव उसके विद्यालयों में साफ दिखाई देना चाहिए और ऐसा ही है, शिक्षा की पाठ्यचर्या में धर्म को स्थान हो या न हो, किन्तु उसके विद्यालयों में समाज विशेष के धर्म का प्रभाव अवश्य होता है। अपने देश भारत को ही लीजिए, यहाँ सरकार द्वारा चलाए जा रहे विद्यालयों में भी समाज के धर्म-दर्शन के दर्शन हो जाएँगे। धार्मिक संस्थाओं द्वारा संचालित विद्यालयों में तो प्रवेश करते ही यह बात जाहिर हो जाती है कि यह किस धर्म के मानने वालों के द्वारा संचालित है। सनातन धर्मावलम्बियों द्वारा स्थापित विद्यालयों में प्रायः सरस्वती की प्रतिमा स्थापित होती है तथा ईश प्रार्थना से विद्यालय प्रारम्भ होता है और आर्य समाज द्वारा स्थापित विद्यालयों में प्रायः दयानन्द सरस्वती की प्रतिमा स्थापित होती है तथा ईश प्रार्थना से विद्यालय प्रारम्भ होता है। इसी प्रकार जैनों के विद्यालयों में महावीर और बौद्धों के विद्यालय में बौद्ध प्रतिमाएँ देखी जाती हैं। इस्लाम धर्मावलम्बी तो विद्यालयों में मस्जिदों का निर्माण करते हैं। विद्यालयों में लगे चित्र तथा लिखे उपेदश तो साफ जाहिर कर देते हैं कि यह विद्यालय किस धर्म से प्रभावित है।
धर्म तथा शिक्षा के अन्य पक्ष-संसार में लाख परिवर्तन होने के बाद भी जनजीवन पर धर्म का गहरा प्रभाव है। आज भी कुछ धर्म जनशिक्षा तथा स्त्रीशिक्षा में बाधक हैं। संसार में कुछ धर्म ऐसे भी हैं जो कुछ व्यवसाय को हेय मानते हैं। ऐसे धर्मावलम्बी समाजों में ऐसे व्यवसायों की शिक्षा की व्यवस्था नहीं होती। एक विषय पर सभी धर्म एकमत हैं और वह है आध्यात्मिक नैतिकता। आज भले ही किसी समाज या राष्ट्र में सामाजिक अथवा राजनैतिक नैतिकता की बात की जाती हो पर उसके सभी सदस्य यह मानते हैं कि इनमें सर्वोपरि आध्यात्मिक नैतिकता ही है। आज संसार के प्रायः सभी देशों में धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा की आवश्यकता अनुभव की जा रही है।
शिक्षा का धर्म पर प्रभाव
यदि एक ओर यह बात सत्य है कि धर्म शिक्षा को प्रभावित करता है तो दूसरी ओर यह बात भी सत्य है कि शिक्षा भी धर्म को प्रभावित करती है। शिक्षा के धर्म पर प्रभाव को निम्नलिखित रूप में देखा समझा जा सकता है-
शिक्षा तथा धर्म का हस्तान्तरण – शिक्षा संस्कृति हस्तान्तरण का उत्तम साधन है और धर्म संस्कृति का अंग होता है। तब शिक्षा द्वारा धर्म का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होना स्वाभाविक है। यूँ यह कार्य मुख्य रूप से अनौपचारिक शिक्षा द्वारा होता है, किन्तु इसमें औपचारिक शिक्षा की भी अहम् भूमिका होती है। औपचारिक शिक्षा उसे उचित दिशा प्रदान करती है।
शिक्षा तथा धर्म को संरक्षण-धर्म का आधा संरक्षण कार्य तो उसके एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित करने में हो जाता है। शेष आधा कार्य उसके मूल सिद्धान्तों तथा नियमों की शिक्षा द्वारा होता है। जब तक शिक्षा द्वारा इन सिद्धान्तों एवं नियमों का ज्ञान नहीं कराया जाता, तब तक उन्हें आचरण का अभिन्न अंग कैसे बनाया जा सकता है। आज तो किसी भी देश में उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में विभिन्न धर्मों को वैकल्पिक विषयों के रूप में स्थान प्राप्त है। इससे सभी धर्मों का अस्तित्व बना हुआ है।
शिक्षा तथा धर्म का विकास- यूँ यह माना जाता है कि कोई भी धर्म शाश्वत मूल्यों पर आधारित होता है, किन्तु – वास्तविकता यह है कि धर्म के ठेकेदार स्वार्थ सिद्धि हेतु इसे विकृत करते रहते हैं। परिणाम यह है कि प्रायः सभी धर्मों के क्षेत्र में अन्धविश्वास बढ़ते रहते हैं। इन अन्धविश्वासों को समाप्त करने का कार्य शिक्षा करती है। शिक्षा मनुष्य में समझ पैदा करती है, उन्हें विवेकशील बनाती है। इससे वे सत्य-असत्य में भेद करने लगते हैं। विज्ञान के ज्ञान ने तो हमारे अनेक अन्धविश्वासों का अन्त कर दिया है। सत्य को स्वीकार करने तथा असत्य (अन्धविश्वासों) को त्यागने से धर्म अधोगति से बचता है और विकास की ओर उन्मुख होता है। विभिन्न धर्मों के विशिष्ट ज्ञान से भी धर्म विशेष से असत्य तथ्य दूर हो रहे हैं और उनमें नए सत्य जुड़ रहे हैं। यह बात अवश्य है कि उदार धर्म इस प्रक्रिया से विकास कर रहे हैं और कट्टरपंथी कूपमंडूक की स्थिति में ही बने हैं।
निष्कर्ष
इसमें कोई सन्देह नहीं कि विज्ञान के इस युग में हम धार्मिक अन्धविश्वासों से दूर होते जा रहे हैं, पर हम धर्म से दूर हो रहे हों, यह बात नहीं है। आज भी हमारे सम्पूर्ण जीवन में धर्म का अपना प्रभाव है, हमारी शिक्षा पर भी। यह तथ्य सर्वविदित है कि किसी भी समाज की शिक्षा पर धर्म का प्रभाव अवश्य है, यह बात दूसरी है कि किस धर्म का तथा कितनी मात्रा में दूसरी ओर यह तथ्य भी सर्वविदित है कि शिक्षा धर्म को प्रभावित कर रही है, उससे अन्धविश्वास दूर 1 होते जा रहे हैं और नए सत्य जुड़ते जा रहे हैं और यह चक्र सदैव से चलता आ रहा है और हमेशा चलता रहेगा। हाँ, कट्टरपंथी और कूपमंडूक इस चक्र से बाहर हैं।
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