धर्म का अर्थ तथा परिभाषा दीजिए। धार्मिक शिक्षा के क्या उद्देश्य है ? धार्मिक शिक्षा के दोष बताइए। धार्मिक शिक्षा की आवश्यकता तथा महत्व पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
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धर्म का अर्थ तथा परिभाषा (Meaning and Definition of Religion)
धर्म का अर्थ (Meaning of Religion)
‘धर्म’ शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द Religion का हिन्दी रूपान्तर है। ‘Religion’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘re’ और ‘legere’ इन दो शब्दों से मिलकर हुई है। इनका शाब्दिक अर्थ है- to bind back’ अर्थात् ‘सम्बन्ध स्थापित करना।’ इस प्रकार धर्म वह है, जो सम्बन्ध स्थापित करता है। जिस्वर्ट (Gishert) ने धर्म द्वारा इस सम्बन्ध की स्थापना के विषय में लिखा है, “धर्म दोहरा सम्बन्ध स्थापित करता है। प्रथम-मनुष्य और ईश्वर के बीच और द्वितीय-ईश्वर की सन्तान होने के कारण मनुष्य और मनुष्य के बीच।”
अतः “धर्म कम या अधिक मात्रा में अधिप्राकृतिक तत्वों, शक्तियों, स्थानों और आत्माओं से सम्बन्धित विश्वासों एवं आचरणों की एक संगठित व्यवस्था है।” इस कथन से हमारे सामने यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अधिप्राकृतिक तत्वों की इस व्यवस्था का निर्माण आरम्भ में किस तरह हुआ ? वास्तविकता यह है कि आदिम मनुष्य को प्रारम्भ से ही अनेक तरह की प्राकृतिक विपत्तियों या नयी-नयी परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। इसमें जन्म, मृत्यु, अकाल, वर्षा, तूफान, महामारी, स्वप्न तथा वनस्पति जीवन उसकी प्रमुख जिज्ञासायें रही होंगी। जीवन स्वयं एक रहस्य था। ऐसे अनुभव शायद पशुओं को भी होते होंगे, किन्तु बुद्धि के अभाव में वे इसे अभिव्यक्त कैसे करते ? केवल मनुष्य ही इतना जिज्ञासु और क्षमतावान प्राणी है, जो इन परिस्थितियों का कारण जानने की कोशिश करता है, किन्तु अक्सर इसमें अपने को बिल्कुल असहाय और निर्बल प्राणी पाता है। परिणामस्वरूप मनुष्य ने अनेक तान्त्रिक विधियों के द्वारा या तो इन प्राकृतिक और अलौकिक शक्तियों को अपने वश में करने का प्रयत्न किया अथवा उन्हें अपनी शक्ति से बाहर समझकर उनकी पूजा और आराधना में लग गया। इससे, प्रथम स्थिति में ‘जादू’ (Magic) तथा दूसरी स्थिति में ‘धर्म’ जैसी संस्था का विकास हुआ।
धर्म की परिभाषायें (Definitions of Religion)
1. मैलिनोवस्की– “धर्म, क्रिया की एक विधि है और साथ ही विश्वासों की एक व्यवस्था भी, धर्म एक समाजशास्त्रीय तथ्य के साथ ही एक व्यक्तिगत अनुभव भी है।”
“Religion is a mode of action as well as system of beliefs, and a sociological phenomena as well as a personal experience.” – Malinowski
2. फ्रेजर–“धर्म से मेरा तात्पर्य मनुष्य से श्रेष्ठ उन शक्तियों की सन्तुष्टि अथवा आराधना करना है, जिनके बारे में व्यक्तियों का यह विश्वास हो कि वे प्रकृति तथा मानव जीवन को नियन्त्रित करती हैं तथा उनको निर्देश देती हैं।”
“By religion…..I understand a propitiation or conciliation of powers, superior to man which are believed to direct and control the course of nature, and of human life.” -James Frazer
3. महात्मा गाँधी- “धर्म वह शक्ति है, जो व्यक्ति को बड़े से बड़े संकट में ईमानदार बनाए रखती है। यह इस संसार में और दूसरे में भी व्यक्ति की आशा का अन्तिम सहारा है।”
धार्मिक शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Religious Education)
धार्मिक शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
1. नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का विकास (Development of Moral and Spiritual Values ) – धार्मिक शिक्षा मानव में नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों की प्रतिष्ठा करती है। इन मूल्यों के विकास से मनुष्य लघुता से महानता की ओर अग्रसर होता है। इससे मनुष्य की इच्छा शक्ति दृढ़ होती है तथा चित्त की एकाग्रता का विकास हो जाता है। ये मूल्य मनुष्य को कुमार्ग पर जाने से बचाते हैं तथा सन्मार्ग पर अग्रसर होने की प्रेरणा प्रदान करते हैं।
2. चरित्र का विकास (Development of Character) – धार्मिक शिक्षा बालक में सद्गुणों का विकास करती है। बालक इस शिक्षा को ग्रहण कर सदाचारी, नम्र, ईमानदार, परोपकारी और सत्यप्रिय बनने का प्रयत्न करते हैं। मेडन वार्ड के शब्दों में, “चरित्र की धार्मिक शक्ति में नम्रता सम्मिलित है, जो किसी व्यक्ति को समूह के प्रति चिन्तन एवं सहयोगपूर्ण क्रिया करने के लिए नतमस्तक बना देती है।”
3. व्यापक दृष्टिकोण का विकास (Development of Wider Attitude)- धार्मिक शिक्षा व्यक्ति के दृष्टिकोण को व्यापक बनाने का प्रयास करती है। धर्म व्यक्ति को उदार व सहनशील बनने पर जोर देता है। धर्म व्यक्ति को निःस्वार्थ भाव से कार्य करने, परोपकार करने तथा मानव मात्र की सेवा करने की भावना का विकास करता है। अतः धार्मिक शिक्षा प्राप्त कर व्यक्ति संकुचित दृष्टिकोण को त्याग देता है तथा उसमें मानव मात्र के प्रति अनुभूति का उदय हो जाता है।
4. विद्यालयों से जनतान्त्रिक परम्पराओं का विकास (Development of Democratic Traditions in School) – धर्म बालकों में यह भाव विकसित करता है कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है तथा सृष्टि का संचालक वही है, अतः कोई भी बुरा कार्य नहीं करना चाहिए। हम सब उसी परम पिता की सन्तानें हैं, अतः हम सब मनुष्यों को परस्पर मिलकर रहना चाहिए। हमें आपस में न तो किसी के प्रति ईर्ष्या-द्वेष रखना चाहिए, न ही किसी का अनिष्ट करना चाहिए। रायवर्न के अनुसार, धार्मिक शिक्षा का मानव के दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है ही, इससे जनतान्त्रिक स्कूलों की योजनाओं एवं परम्पराओं को सफल बनाने में भी अनेक सुविधायें मिलती हैं।
5. बालक के व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास (Total Development of the Personality of the Child) – धर्म के बिना शिक्षा अधूरी है। धार्मिक शिक्षा बालक के व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास पर बल देती है। जिससे वह भविष्य में महान् उदाहरण प्रस्तुत कर सके।
6. संस्कृति का संरक्षण तथा विकास (Preservation and Development of Culture ) – संस्कृति धर्म का अभिन्न अंग है। चूँकि धर्म में हमारा अखण्ड विश्वास होता है, अतः संस्कृति के प्रति भी हमारी श्रद्धा होती है तथा उसी के आधार पर हम आचरण करते हैं। इस प्रकार संस्कृति का संरक्षण एवं विकास होता है। धार्मिक संस्थाओं द्वारा संचालित विद्यालय इस उद्देश्य की प्राप्ति में प्रमुख योग देते हैं।
7. मूल प्रवृत्तियों का मार्गान्तीकरण एवं शोधन (Redirection and Sublimation of Instincts)- बालक को पशु से मनुष्य बनाने के लिए आवश्यक है कि उसकी मूल प्रवृत्तियों का मार्गान्तीकरण एवं शोधन हो। धार्मिक शिक्षा उसमें सामाजिक आदर्शों की स्थापना कर उसे समाज सेवा हेतु प्रेरित करती है। इससे बालक में सामाजिकता का विकास होता है।
धार्मिक शिक्षा के दोष (Demerits of Religious Education)
धार्मिक शिक्षा के निम्नलिखित दोष हैं-
1. संकीर्णता का विकास (Development of Narrow Mindedness) धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने से बालक किसी धर्म विशेष के अनुसार पूजा-पाठ व कर्मकाण्ड सीख जाता है। इससे उसमें धार्मिक कट्टरता व संकीर्णता के भाव उदित हो जाते हैं। राष्ट्रीय एकता के मार्ग में भावों की यह संकीर्णता सबसे बड़ी बाधक सिद्ध होती है।
2. अस्वस्थ दृष्टिकोण का निर्माण (Formation of Unhealthy Attitude) धार्मिक शिक्षा अन्धविश्वासों को जन्म देती है। इस शिक्षा से छात्रों में साम्प्रदायिक भावना भड़क उठती है और वे अन्धविश्वासी एवं धर्मान्ध बनकर अन्य सम्प्रदाय या मत के व्यक्तियों को ही बुरा समझने लगते हैं। मुहीउद्दीन मो० सुल्तान के शब्दों में, “ऐसी धार्मिक शिक्षा किशोर के संवेगात्मक जीवन में उथल-पुथल एवं संघर्ष उत्पन्न कर देती है। इससे दुहरे व्यक्तित्व का निर्माण हो जायेगा-संसारी मामलों में व्यापक, उदार तथा सहनशील तथा धार्मिक मामलों में संकुचित, कट्टर तथा असहनशील।”
3. अनेक समस्याओं का जन्म (Creation of Many Problems)- धार्मिक शिक्षा प्रदान करने से विद्यालय में – अनेक समस्यायें जन्म ले सकती हैं, जैसे किसी भी विद्यालय में अनेक धर्मों के मानने वाले बालक शिक्षा प्राप्त करने आते हैं। यदि विद्यालय में किसी एक धर्म की शिक्षा ही प्रदान की गई तो इससे दूसरे धर्मों के अनुयायी व्यक्तियों को आपत्ति हो सकती है। दूसरे, यदि भिन्न-भिन्न धर्मों के बालकों उनके धर्मों के अनुकूल शिक्षा प्रदान करने के लिए भिन्न-भिन्न विद्यालयों का निर्माण किया गया, तो इसके लिए अत्यधिक धन की आवश्यकता पड़ेगी। तीसरे धार्मिक शिक्षा का स्वरूप क्या हो, इस बात पर विद्वानों में मतभेद है ? चौथे, धार्मिक शिक्षा प्रदान करने के लिए योग्य एवं अनुभवी शिक्षकों की आवश्यकता होगी, जो सरल कार्य नहीं है। इस प्रकार हम देखते हैं कि धार्मिक शिक्षा, यदि प्रदान की जाती है, तो इससे अनेक समस्यायें उत्पन्न हो जायेंगी।
4. वर्तमान जीवन के प्रति अज्ञानता (Ignorance about Present Life)- धार्मिक शिक्षा बालक को इस यथार्थ लोक के स्थान पर परलोक के लिए तैयार करती है। इससे बालक सदा परलोक के हित की बात सोचते सोचते इस जीवन की यथार्थ परिस्थितियों एवं वास्तविक जीवन में सुधार के प्रति उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण अपना सकता है। इससे बालक के मन में संघर्षों से जूझने का विचार नहीं उत्पन्न हो पाता और छात्र कल्पना-लोक में घूमने में ही आनन्द प्राप्त करने लगता है।
5. मानसिक द्वन्नू (Mental Conflict) – धार्मिक शिक्षा बालकों में न केवल संकुचित दृष्टिकोण उत्पन्न करती है वरन् यह उनमें पाप और पुण्य, लोक और परलोक, पवित्र और अपवित्र, स्वर्ग और नरक और स्वर्ग की भावनाओं को विकसित करके उनके मन में द्वन्द्व पैदा कर देती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि धार्मिक शिक्षा व्यक्तिगत अनुभूति का विषय है। इसे सामूहिक ढंग से प्रदान करना उचित नहीं है।
धर्मनिरपेक्ष भारत में धार्मिक शिक्षा (Religious Education in Secular India)
हमारा देश एक धर्मनिरपेक्ष देश है। प्रश्न यह है कि क्या इस धर्मनिरपेक्ष देश में धार्मिक शिक्षा अथवा किसी धर्म की शिक्षा प्रदान की जा सकती है ? आइये इस सम्बन्ध में विचार करें।
श्री प्रकाश समिति ने अपने प्रतिवेदन के तेरहवें अनुच्छेद में धार्मिक शिक्षा की समस्या पर विचार किया है तथा चौदहवें अनुच्छेद में संविधान की मान्यताओं का उल्लेख किया हैं। संविधान की 28वीं धारा में कहा गया है कि राज्य द्वारा सहायता प्राप्त विद्यालय में धार्मिक शिक्षण नहीं दिया जाएगा, किन्तु यह धारा उन शैक्षिक संस्थाओं पर लागू नहीं होगी जिन्हें राज्य प्रशासित तो करता है, किन्तु जिनकी स्थापना धार्मिक शिक्षा प्रदान करने का आग्रह करने वाले न्यास के द्वारा की गई हो। राज्य द्वारा सहायता प्राप्त किसी भी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा को छात्र या अभिभावक की सहमति के बिना प्रदान नहीं किया जायेगा। संविधान की 30वीं धारा के अनुसार धार्मिक अथवा भाषा भी अल्पसंख्यकों को अपनी इच्छा की शिक्षा-संस्था स्थापित करने का अधिकार दिया गया है और इस प्रकार के विद्यालय को अनुदान देने में राज्य कोई भेदभाव की नीति नहीं बरतेगा। अतः स्पष्ट है कि विद्यालयों में यदि धार्मिक शिक्षा दी जाए तो वह संविधान विरुद्ध है। धर्म-निरपेक्षता से आशय सम्प्रदाय-निरपेक्षता से ही लगाना चाहिए।
विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था करते समय सावधानियाँ (Precautions while Introducing Religious Education in Schools)
भारतीय विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा प्रदान करते समय निम्नलिखित सावधानियाँ बरतनी चाहिएँ-
1. बालकों में सभी धर्मों के समान गुण विकसित करने के प्रयत्न किए जाने चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि उन्हें संसार के सभी प्रसिद्ध संतों व महापुरुषों की जीवनियों का अध्ययन कराया जाये।
2. धार्मिक शिक्षा प्रदान करने की दृष्टि से बालकों को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से बाध्य न किया जाए।
3. विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा अभिभावकों की इच्छा के अनुसार ही प्रदान की जानी चाहिए।
4. विद्यालयों में प्रदान की जाने वाली धार्मिक शिक्षा किसी विशिष्ट धर्म के संस्कारों तथा अन्धविश्वासों से सम्बन्धित न हो। इससे शिक्षा बाह्य आडम्बरों से परिपूर्ण हो जाएगी। शिक्षा में वस्तुतः सभी धर्मों में पाए जाने वाले समान गुणों अथवा सत्यों का ही ज्ञान कराया जाना चाहिए।
5. बालकों में आलोचनात्मक दृष्टिकोण का विकास करने के लिए उन्हें वास्तविक अनुभव करने के अवसर प्रदान किए जाने चाहिएँ।
6. शिक्षक का जीवन ऐसा आदर्शमय होना चाहिए कि बालक उसका अनुकरण करते हुए स्वयं अपना जीवन भी वैसा ही बनाने को उत्सुक एवं तत्पर रहें ।
7. विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा इस रूप में न दी जाए कि वे मन्दिर, मस्जिद व गुरुद्वारे का रूप ले लें।
8. धार्मिक शिक्षा को बालक को परलोक के लिए वरन् इस यथार्थ जीवन के लिए तैयार करना चाहिए। उसे बालकों में ऐसी योग्यतायें व दक्षतायें विकसित करनी चाहिए कि वह जीवन में आने वाली जटिलतम समस्याओं को सुलझाने में समर्थ हो सके।
9. सभी धर्मों के समान गुणों को बालकों में विकसित करने के लिए आवश्यक है कि विद्यालयों का ऐसा श्रेष्ठ व आदर्श वातावरण हो कि जहाँ बालकों में ये गुण स्वयं ही प्रस्फुटित हो जाएँ।
10. धार्मिक शिक्षा प्रदान करते समय विभिन्न धर्मों के विश्वासों व संस्कारों आदि की तुलना तथा उनके विषय में कोई विरोध प्रगट नहीं करना चाहिए, क्योंकि यदि ऐसा किया गया तो इससे बालकों में अपने धर्म के प्रति संकीर्णता व कट्टरता पनपेगी तथा वे अन्य धर्मों से घृणा करने लगेंगे।
धार्मिक शिक्षा की आवश्यकता व महत्व (Need and Importance of Religious Education)
धार्मिक शिक्षा वस्तुतः व्यापक आधार पर दी जानी चाहिए। इसकी आवश्यकता एवं महत्व क्या है इस पर हम निम्न पंक्तियों में विचार प्रगट कर रहे हैं-
1. संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग होने के कारण धार्मिक शिक्षा संस्कृति के प्रचार व प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान देती है।
2. आधुनिक युग में मनुष्य भौतिक सम्पन्नता तो प्राप्त कर लेता है, किन्तु उसे आत्मिक सुख व शान्ति प्राप्ति नहीं होती। यह केवल धार्मिक शिक्षा द्वारा ही सम्भव है।
3. मन की स्थिरता, इच्छा शक्ति और चित्त की एकाग्रता को विकसित करने में धार्मिक शिक्षा महत्वपूर्ण योगदान देती है।
4. धार्मिक शिक्षा के द्वारा सामाजिक नियन्त्रण व सामाजिक एकता को बल मिलता है।
5. धार्मिक शिक्षा के द्वारा व्यक्तित्व का पूर्ण विकास सम्भव है।
6. अधिकांश मनुष्य धर्म को हृदय से स्वीकार करते हैं। अतः धार्मिक शिक्षा के द्वारा विभिन्न सामाजिक बुराइयों को दूर किया जा सकता है।
7. धार्मिक शिक्षा से हमें ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की शिक्षा मिलती है।
8. धार्मिक शिक्षा से बालकों की मूल प्रवृत्तियों का शोधन होता है। इससे वे भविष्य में एक श्रेष्ठ सामाजिक प्राणी बनते हैं।
9. धार्मिक शिक्षा व्यक्ति में सत्य, अहिंसा, सदाचार, सहिष्णुता आदि सामाजिक गुणों का विकास करती है।
10. धार्मिक शिक्षा व्यक्ति को सामाजिक व नैतिक मूल्यों का बोध कराती है।
11. धार्मिक शिक्षा प्राप्त कर व्यक्ति उचित आचरण करने हेतु प्रेरित होता है।
स्पष्ट है कि आज के भौतिकवाद में भी धार्मिक शिक्षा की नितान्त आवश्यकता है। यह शिक्षा व्यापक आधार पर दी जानी चाहिए, जिससे बालकों में साम्प्रदायिकता और संकीर्णता के अंकुर न उपजें। वस्तुतः धर्म तथा धार्मिक शिक्षा के अभाव में जीवन शून्यता की स्थिति में पहुँच जायेगा। रेमण्ट के अनुसार, “हम अपने आधुनिक दृष्टिकोण से चर्च को केवल व्यक्ति के सामाजिक वातावरण का अंग समझते हैं, पर शिक्षक द्वारा उसकी किसी प्रकार की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। विभिन्न चर्चा के बारे में हमारे विचार चाहे कुछ भी हों, पर हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि वे राष्ट्र के शिक्षक हैं।”
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