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भारतीय कानून एवं व्यवस्था की विशेषताएँ
भारतीय कानून एवं व्यवस्था की विशेषताएँ जिन भी पुलिस संगठनों का निर्माण हुआ और जो भी परीक्षण किए गए उसको सार रूप में यही कहा जाएगा कि उपनिवेशवादी इतिहास में पुलिस का जो महास्तरीय संगठन बनाया गया उसका ध्येय ‘नागरिक पुलिस’ बनने की बजाय ‘विधि एवं व्यवस्था’ बनाना ज्यादा रहा, परिणामतः वह वर्तमान युग के लोकतंत्र और विकास के संदर्भों में सर्वथा अप्रासंगिक लगने लगी है।
भारतीय कानून और व्यवस्था की निम्न विशेषताएँ हैं-
1. नकारात्मक दर्शन (Philosophy of Negativism) – भारत में पुलिस का कर्म एवं दर्शन नकारात्मक रहा है। इसका सम्बन्ध चोर, डाकुओं, अपराधियों, विधिभंजकों से रहा है। पुलिस आमतौर से गुप्त जाँच-पड़ताल, गिरफ्तारी, मार-पीट, डराना-धमकाना, दण्डित करवाने आदि कार्य करती है जो कि नकारात्मक स्वरूप के हैं। लोगों को अच्छे व्यवस्थित जीवन- यापन का प्रशिक्षण देना, स्कूली बच्चों को सड़क पर चलने के नियम सिखाना, भूले-भटके को राय बताना, संकट में नागरिकों की अपरिहार्य सहायता करना, लोगों में आत्मविश्वास आग्रत करना आदि सकारात्मक कार्यों से भारतीय पुलिस का बहुत दूर का रिश्ता है।
2. राज्य आधारित संगठन (State-based System) – भारत का पुलिस प्रशासन राज्य आधारित संगठन है। संविधान के अनुसारपुलिस ‘राज्य सूची’ का विषय है। पुलिस का कार्य राज्य और सरकार के हितों का संरक्षण है, राज्य के कानूनों का पालन करवाना है, राज्य निर्देशित अनुशासन को बनाए रखवाना है, चाहे ऐसा करते हुए नागरिक की भावनाओं और गरिमाओं पर आंच ही क्यों न आए।
3. शस्त्र सज्जित तथा अनास्त्र कान्टेबुलेरी (The Armed and Unarmed Constabulary) – भारत की पुलिस शस्त्र सज्जित तथा अनास्त्र दोनों प्रकार की है। आमतौर से सामान्य काल में नागरिकों का वास्ता अनास्त्र पुलिस मैन से पड़ता है, जिसका कार्य दिन-प्रतिदिन की कानून तोड़ने की घटनाओं की जाँच-पड़ताल करना होता है। इनके पास केवल ‘लाठी’ होती है और वे सादे वस्त्रों में भी रह सकते हैं। शस्त्र सज्जित पुलिस अर्द्ध-सैनिक (Para-military) स्वरूप की होती है। यह बैरक में रहती है और इसका संगठन सेनाओं की तरह का होता है। इस प्रयोग कानून और व्यवस्था की गम्भीरतम संगठन की परिस्थितियों में किया जाता है।
4. शारीरिक सौष्ठव पर आधारित पुलिस बल (Muscle-oriented Police Force) – भारतीय पुलिस का कार्यक्षेत्र केवल ‘फील्ड’ में माना जाता है, अतः ‘स्टाफ कार्य’ करने वालों को हेय दृष्टि से देखा जाता है और निम्न कोटि की क्षमता वाले व्यक्तियों को ‘स्टाफ कार्य’ हेतु किन्हीं कारणों से नियुक्त किया जाता है। पुलिस के जवानों और यहाँ तक कि अधिकारियों के प्रशिक्षण में भी जोर केवल शारीरिक सौष्ठव पर ही दिया जाता है जबकि आधुनिक लोकतंत्रात्मक युग में शारीरिक सौष्ठव के साथ-साथ नागरिक अधिकार, कर्त्तव्य, सामाजिक परिवर्तन आदि का दिशा बोध भी आवश्यक है।
5. पुलिस पर मजिस्ट्रेटों की सर्वोपरिता (Magisterial Supremacy over Police) – भारतीय पुलिस को ‘कानून-व्यवस्था’ सम्बन्धी दायित्व मजिस्ट्रेटों के अधीक्षण और देखरेख में करने होते हैं। जिले में पुलिस अधीक्षक तथा अन्य सभी पुलिसकर्मियों को जिला मजिस्ट्रेट के निर्देशन में चलना होता है।
भारतीय पुलिस के स्वरूप पर टिप्पणी करते हुए दिनमान ने लिखा है- “पुलिस और गुण्डों में क्या फर्क है? कोई फर्क नहीं है। फर्क इतना है कि पुलिस जो कुछ करती है कानून और व्यवस्था के नाम पर जबकि गुणों को यह लाइसेन्स नहीं है। दोनों जनता के दुश्मन हैं, उसे लूटते हैं, दोनों को सेठ साहूकारों और नेता लोग पाले रहते हैं, जहाँ गुण्डे कमजोर पड़ते हैं वहाँ पुलिस काम आती है। कस्बों में आज भी पुलिस का राज है, वह निरंकुश है, भ्रष्ट है, यदि कस्बे की नींद हराम है तो उसी कारण चोरी, डकैती, गुण्डागर्दी बढ़ रही है, हर कस्बा एक पुलिस राज है, थानेदार, दरोगा वहाँ किसी नादिरशाह से कम नहीं, बस उसका हुक्म और उसकी मर्जी चलती है।
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