मानव जीवन में शिक्षा के विभिन्न कार्यों की विवेचना कीजिए।
शिक्षा, सम्पूर्ण मानव समाज को नियन्त्रित करती है। यह सामाजिक जीवन पर नियन्त्रण रखकर औचित्य तथा अनौचित्य पर विचार करती है और समाज को सम्पूर्ण रूप से उस परम्परा का रूप देती है। मानव जीवन को उन्नत एवं समाजोपयोगी बनाने के लिये शिक्षा निम्नलिखित कार्य करती है-
1. चरित्र निर्माण- शिक्षा के द्वारा बालक की मूल प्रवृत्तियों का परिष्कार होता है और यह परिष्कार आदत बनकर चरित्र का निर्माण करता है। चरित्र की व्याख्या करते हुए राधाकृष्णन ने कहा है-“चरित्र भाग्य है। चरित्र वह वस्तु है, जिस पर राष्ट्र के भाग्य का निर्माण होता है। तुच्छ चरित्र वाले मनुष्य श्रेष्ठ राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते। यदि हमारे पैरों के नीचे की जमीन खिसक रही है तो हम पहाड़ पर नहीं चढ़ सकते, जबकि हमारे भवन की नींव ही हिल रही है, तब हम उस ऊंचाई पर किस प्रकार पहुँच सकते हैं, जिस पर हम पहुँचना चाहते हैं।”
2. आवश्यकताओं की पूर्ति के योग्य बनाना- शिक्षा मानव को उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्षमता का विकास करती है। शिक्षा व्यक्ति को रोजी, रोटी कमाने के अवसर प्रदान करती है। जीवन संघर्ष में उसे समायोजना की शक्ति प्रदान करती है। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार-“शिक्षा का कार्य यह पता लगाना है कि जीवन की समस्याओं को किस प्रकार हल किया जाये और आधुनिक सभ्य समाज का ध्यान इसी बात में लगा हुआ है।”
3. व्यावसायिक कुशलता एवं आत्म-निर्भरता- शिक्षा के द्वारा मानव व्यावसायिक कुशलता प्राप्त कर आत्म-निर्भर हो जाता है। प्राय: देखा जाता है कि निश्चित अवधि की सामान्य शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् किसी उद्योग या व्यवसाय में बालक विशेषता प्राप्त करने की चेष्टा करता है। इससे आत्म-विश्वास बढ़ता है।
4. जीवन की तैयारी-विलमॉट के अनुसार- “शिक्षा जीवन की तैयारी है।” (Education is the apprenticeship of life Willmott) यह कथन शिक्षा की सम्पूर्ण प्रक्रिया का प्रतिनिधित्व करता है। यदि शिक्षा यह कार्य न करे तो बालक कुण्ठित एवं पलायनवादी हो जायेगा। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- “यदि कोई मनुष्य केवल कुछ परीक्षायें पास कर सकता है और अच्छे व्याख्यान दे सकता है तो आप उसे शिक्षित समझते हैं। क्या वह शिक्षा, शिक्षा कहलाने योग्य है, जो जन समूह को जीवन से संघर्ष करने के लिये अपने आप को तैयार करने में सहायता नहीं देती और उसमें शेर का साहस उत्पन्न नहीं करती।”
5. समायोजना की क्षमता- थॉमसन ने कहा है- “शिक्षा में वातावरण एवं कार्य छात्रों के अनुसार होने चाहियें। उसे अस्तित्व के लिये यथा सम्भव अनुभव के अवसर मिलने चाहिये, जिससे उनकी मूल प्रवृत्तियाँ सन्तुष्ट हो सकें।”
“The educator in the environment and the function of education is to fit the pupil to that environment so that he may survive and have as many opportunities as possible of experiencing the pleasure of satisfying his instincts.”
वास्तविकता यह है कि शिक्षा के द्वारा व्यक्ति में संघर्षो का निर्माण होता है, जिसके द्वारा व्यक्ति में संघर्षों का सामना करने का अदम्य साहस उत्पन्न होता है। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति या तो वातावरण को बदल देता है अथवा वातावरण के अनुकूल स्वयं को ढाल लेता है। समायोजन से हमारा तात्पर्य व्यावहारिकता से है। स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा है- “कार्य के सभी क्षेत्रों में आपको व्यावहारिक होना है। सम्पूर्ण देश सिद्धान्तों की भीड़ में तबाह हो चुका है।”
“You have to be practical in all spheres of work. The whole country has ruined by masses of theories.”
6. नेतृत्व के लिये शिक्षा – आज संसार में लोकतन्त्र का बोलबाला है। लोकतन्त्र सफल नागरिक व अच्छे नेताओं के अभाव में सफल नहीं हो सकता। डॉ० आर० एस० मणि ने कहा है- “विशेष रूप से उस समय जबकि लोकतन्त्र जीवन पद्धति हो गई है और मतदान मंजूषा राजनीतिक लोकतन्त्र की प्रतीक हो गई है, अच्छे नेतृत्व की आवश्यकता है। लोगों की उन स्वार्थी एवं बेईमान नेताओं से रक्षा की जानी चाहिये, जो अपने हितों के लिये सब कुछ कर सकते हैं।” अत: सच्चे नेतृत्व के लिये सेवा की भावना के साथ-साथ, अच्छे प्रशिक्षण की भी आवश्यकता है।
7. राष्ट्रीय व भावनात्मक एकता – सफल जनतन्त्र एवं राष्ट्र के निर्माण का आधार राष्ट्रीय एकता का विकास उस समय तक नहीं हो सकता जब तक कि शिक्षा की प्रगति नहीं हो पाती। जवाहरलाल नेहरू ने कहा था- “राष्ट्रीय एकता के प्रश्न में जीवन की प्रत्येक वस्तु आ जाती है। शिक्षा का स्थान इन सबसे ऊपर है और यही आधारशिला है। “
भारत में विविधता है, अनेकता है। विविधता तथा अनेकता के होते हुए भी राष्ट्र उस समय तक एक नहीं होगा, जब तक सभी धर्मों, सम्प्रदायों व जातियों के लोग अपने आप को भावात्मक रूप से एक नहीं समझते। जवाहरलाल नेहरू का विचार था-“जहाँ कहीं मैं जाता हूँ, वहीं मैं एक ऐसी बात पर बल देता हूँ, जो प्रत्यक्ष है और जिससे हर व्यक्ति को सहमत होना चाहिये। मैं भारत की एकता पर बल देता हूँ, न केवल राजनीतिक एकता पर जिसको हमने प्राप्त किया है, पर इससे भी अधिक महत्वपूर्ण भावात्मक एकता पर अपने मनों और हृदयों की एकता पर और पृथकता की भावनाओं के दमन पर।”
अतः स्पष्ट है कि शिक्षा के द्वारा ही मानव पूर्णता को प्राप्त करता है। शिक्षा के अभाव में मानव, इस संसार में जीता अवश्य है, पर वह अपना शोषण कराकर जीता है। वह स्वतन्त्र रूप से जीवन-यापन नहीं करता और परतन्त्र होकर वह दूसरों के लिये गुलामी करता रहता है, आत्मसम्मान भावना का उसमें से लोप हो जाता है, और हीनता उसमें इस सीमा तक भर जाती है कि वह आजीवन उसी कशमकश में पड़ा रहता है।
शक्षा ने मानव को पूर्णता दी है, संस्कृति की रक्षा की है और संस्कृति के माध्यम से मानव विकास की सभी प्रक्रियाओं को सुरक्षित रखा है। डॉ० जाकिर हुसैन के शब्दों में- “केवल संस्कृति की सामग्री के द्वारा ही हर शिक्षा की प्रक्रिया को गति दी जा सकती है। केवल इसी सामग्री से मानव मस्तिष्क का विकास हो सकता है।”
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