शिक्षा किसे कहते हैं ? शिक्षा का संकुचित व्यापक तथा वास्तविक अर्थ बताते हुए इसकी प्रक्रिया का उल्लेख कीजिए।
आमतौर पर शिक्षा से तात्पर्य विद्यालय में जाकर विधिवत् अध्ययन करने से लिया जाता है। विद्वानों का विचार है कि विद्यालयों में ही बालक को शिक्षा दी जाती है। वहीं पर रहकर वे जीवन के भविष्य का निर्माण करते हैं। वहीं पर व्यक्ति के सामान्य व्यवहार की रचना होती है और उसी के अनुरूप उसके चरित्र एवं व्यक्तित्व का विकास होता है। शिक्षा के विषय में डॉ० बी० डी० भाटिया का कथन है-“उद्देश्य के ज्ञान के अभाव में शिक्षक उस नाविक के समान है, जिसे अपने लक्ष्य या मंजिल का पता नहीं है। विद्यार्थी उस पतवार-विहीन नौका, के समान है, जो समुद्र में लहरों के थपेड़े खाती हुई तट की ओर बहती जा रही है।”
शिक्षा के अभाव में व्यक्ति पशु के समान रहता है तथा वह अपने जीवन आदर्शों, आशाओं, आकांक्षाओं, विश्वास, परम्परा तथा सांस्कृतिक विरासत को विकसित नहीं कर सकता। एडीसन ने इसीलिये कहा है-“शिक्षा द्वारा मानव के अन्तर में निहित उन सभी गुणों का दिग्दर्शन होता है। इन गुणों को शिक्षा के माध्यम से ही विकसित किया जाता है। “
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1. शिक्षा की परिभाषायें (Definitions of Education)
‘प्रिंसटन रिव्यू’ के अनुसार- “शिक्षा सीखना नहीं है, वरन् मस्तिष्क की शक्तियों का अभ्यास और विकास है और यह ज्ञान के केन्द्र तथा जीवन के संघर्षों के माध्यम से प्राप्त होती है।”
शिक्षा के विषय को प्राचीन काल से ही विद्वान् स्पष्ट कहते रहे हैं। यहाँ पर कुछ परिभाषायें प्रस्तुत हैं, जिनसे शिक्षा की विषय-स्थिति का पता चलता है-
1. प्लेटो- “शिक्षा से मेरा तात्पर्य उस प्रशिक्षण से है, जो अच्छी आदतों द्वारा बच्चों में अच्छी नैतिकता का विकास करे।”
2. अरिस्टोटल– “शिक्षा स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण करती है। “
3. काष्ट- “शिक्षा व्यक्ति का वह सम्पूर्ण विकास है, जिसके लिये वह पात्र है। “
4. पेस्टॉलॉजी- “मानव शक्तियों का प्राकृतिक, निरन्तर एवं प्रगतिशील विकास ही शिक्षा है।”
5. स्पेन्सर- “शिक्षा में आदतों, स्मरण, आदर्श, स्वरूप, शारीरिक एवं मानसिक कौशल, बौद्धिकता एवं रुचि, नैतिक विचार एवं ज्ञान ही नहीं, विधियाँ भी सम्मिलित हैं। “
6. जॉन डीवी– “शिक्षा व्यक्ति की उन योग्यताओं के विकास का नाम है, जो उसे उसके वातावरण पर नियन्त्रण रखना सिखाती है और उसकी सम्भावनाओं को पूर्ण करती है।”
7. गाँधी जी- “शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक एवं मनुष्य के सर्वांगीण विकास शरीर, मस्तिष्क एवं आत्मा से है।”
इन सभी परिभाषाओं पर चिन्तन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक होने के कारण भिन्नता पाई जाती है। इन परिभाषाओं के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि- (1) प्रत्येक शिक्षा शास्त्री ने अपने दृष्टिकोण से शिक्षा को प्रभावित किया है। (2) प्रत्येक व्यक्ति तथा समाज के जीवन-दर्शन में भिन्नता के कारण शिक्षा की परिभाषा में भिन्नता पाई जाती है। (3) शिक्षा की परिभाषायें प्राय: एकांगी हैं।
इस एकांगीपन को दूर करने का प्रयास करते हुए टी० रेमण्ट ने ठीक ही कहा है- “शिक्षा उस विकास का नाम है, जो शैशवावस्था से प्रौढ़ावस्था तक होता ही रहता है अर्थात् शिक्षा वह क्रम है, जिससे मानव अपने को आवश्यकतानुसार भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक वातावरण के अनुकूल बना लेता है। “
“Education is that process of development in which consists the passage of human being from infancy to maturity, the process whereby he adapts himself gradually in various ways to his physical, social and spiritual environment.” – T. Raymont.
शिक्षा एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, जो बालक की समाज में रहने तथा विकास की क्षमता की वृद्धि करने में महत्वपूर्ण योग देती है। शिशु में अनेक महत्वपूर्ण गुण होते हैं। वे गुण शिक्षा के माध्यम से ही विकसित होते हैं। कुल मिलाकर व्यक्ति को एक सम्पूर्ण व्यक्ति बनने में योग देते हैं।
2. शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education)
उपरोक्त परिभाषाओं से दो तथ्य प्रकट होते हैं- (1) शिक्षा की प्रक्रिया निरन्तर गति से जीवन पर्यन्त चलती रहती है और मानव हर समय, हर क्षण, हर किसी से कुछ न कुछ सीखता रहता है। (2) शिक्षा का उद्देश्य केवल विद्यालय में कतिपय व्यवहार का प्रशिक्षण प्राप्त करना है। अतः इन दोनों विश्लेषणों से शिक्षा के दो अर्थ स्पष्ट होते हैं, एक है संकुचित अर्थ और दूसरा विस्तृत अर्थ है। शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट करने से पूर्व यह आवश्यक है कि शिक्षा शब्द पर विचार किया जाये।
शिक्षा शब्द लैटिन भाषा के एडूकेटम (Educatum) शब्द से निर्मित है। इसका अर्थ है शिक्षण का कार्य (Function of teaching) । इसी के समानान्तर एक शब्द और है एडुकेअर (Educare) और इसका अर्थ है, शिक्षित करना ( To educate) उठाना (To bring up), प्रगति करना (To raise), सामने लाना (To bring forth) एवं नेतृत्व देना (To lead out), ये सभी शिक्षा की क्रिया एवं कार्य की ओर संकेत करते हैं। एडम्स (Adams) एवं रॉस (Ross) इसी कारण इस शब्द को मान्यता देते हैं—“एजुकेशन, शब्द किसी प्रकार से एक अर्थ नहीं देता प्रत्युत यह शिक्षा को प्रक्रिया मानकर चलता है। इसी स्थिति में शिक्षा के दो अर्थ लिये जाते हैं विस्तृत एवं संकीर्ण ।”
1. शिक्षा का व्यापक (Wider) अर्थ- शिक्षा मानव-शक्तियों का विकास है। जो मानव अपनी शक्तियों के विकास की क्षमता नहीं कर पाता, वह जीवन में सफलतापूर्वक जी नहीं सकता है। अतः जीवन पर्यन्त मानव, प्रकृति के अनुसार अपने शरीर व मस्तिष्क को पूर्णता देने का प्रयत्न करता है। इसीलिये टी० रेमण्ट ने कहा है— “शिक्षा, विकास की वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने भौतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक वातावरण में विभिन्न प्रकार से अनुकूलित करता है। वह जीवन है, जो वास्तव में स्वयं को ही शिक्षित करता है। एक व्यक्ति अपने व्यवसाय, गृह-जीवन, मित्रता, विवाह, पितृत्व, मनोरंजन, यात्रा आदि से कुछ न कुछ सीखता ही है।”
व्यापक शिक्षा जन्म से लेकर मृत्यु-पर्यन्त चलती रहती है। बालक जन्मते ही माँ से, पिता से, कुछ बड़े होने पर समुदाय से कुछ न कुछ सीखता है। जीवन का हर क्षण व्यक्ति को कुछ न कुछ अवश्य सिखाता रहता है। लॉज के अनुसार- “व्यापक अर्थों में अनुभव ही शिक्षाप्रद है। मच्छर का काटना, तरबूज का स्वाद, प्रेम करने का अनुभव, वायुयान की सवारी, नौका का तूफान में घिरना, आदि ऐसे अनुभव हैं, जो हमें सीधे ही प्रभावित करते हैं। इसी प्रकार बालक, माता-पिता को सिखाता है, शिष्य गुरु को सिखाता है। विस्तृत अर्थों में जीवन ही शिक्षा है और शिक्षा ही जीवन है। जो भी हमारे दृष्टिकोण को विस्तृत करे हमारी सूझ को ग्रहण करे, हमारी प्रतिक्रियाओं को परिष्कृत करे हमारे विचार और भावों को उत्तेजित करे, वही हमें शिक्षित करते हैं।” इम्बिल ने भी इसी प्रकार के विचार प्रकट किये हैं—”शिक्षा के व्यापक अर्थ में वे सभी प्रभाव आते हैं, जो व्यक्ति को उसके जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रभावित करते हैं।” शिक्षा के व्यापक अर्थ के अनुसार शिक्षा का क्षेत्र सम्पूर्ण संसार है। हर समय, हर व्यक्ति से, हर परिस्थिति में व्यक्ति सीखता है। शिशु अपनी माँ की गोद में सीखता है, बालक अपने साथियों के बीच सीखता है। इस व्यापक अर्थ में शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। पेस्टॉलॉजी, डम्बिल, स्टुअर्ट मिल, मार्क हापकिस आदि विद्वानों की धारणा के अनुसार शिक्षा मानव के सम्पूर्ण जीवन में जन्म से मृत्यु तक फैली है। वह सदा हर परिस्थिति में मनुष्य का मार्गदर्शन करती है।
2. शिक्षा का संकुचित (Narrow) अर्थ- शिक्षा के संकुचित अर्थ से अभिप्राय परम्परागत लिखना, पढ़ना और गणित एवं अन्य प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने से है। इसके अन्तर्गत बालक किसी पाठशाला में कुछ वर्षों तक कुछ अध्यापकों के सान्निध्य में किन्हीं विशिष्ट तत्वों का प्रशिक्षण प्राप्त करता है। अत: इस प्रकार की शिक्षा को शिक्षा (Education) न कहकर निर्देश (Instruction) कहकर पुकारा जाता है। मैकेंजी के अनुसार “संकुचित अर्थ में शिक्षा का तात्पर्य अपनी शक्तियों के विकास के लिये चेतनापूर्वक किये गये प्रयास से है।”
विद्यालय से प्राप्त किये हुये निर्देश एवं सीखे हुये व्यवहार हमारी सम्पूर्ण शिक्षा नहीं है। वे तो शिक्षा के अंग हैं। उनसे हमारा जीवन पर्यन्त कार्य तो नहीं चलता, परन्तु जीवन के लिये वह आवश्यक है। विद्यालयों में बालक को कतिपय विशिष्ट व्यवहारों का प्रशिक्षण प्राप्त होता है। शिक्षा का संकुचित अर्थ किसी विशेष कौशल के सीखने तक सीमित रहता है। विद्यालय अथवा नियोजित परिवेश संकुचित शिक्षा का स्थल है। बालक को किसी विषय विशेष की शिक्षा उद्देश्य विशेष को लेकर दी जाती है। इस प्रकार की शिक्षा में बालक गौण तथा शिक्षक प्रमुख होता है। जॉन स्टुअर्ट मिल के अनुसार शिक्षा द्वारा एक पीढ़ी के लोग दूसरी पीढ़ी के लोगों में संस्कृति का संक्रमण करते हैं।
3. शिक्षा का वास्तविक अर्थ (The Real Meaning of Education)- वास्तविकता यह है कि शिक्षा को उपादेयता न तो उसके व्यापक अर्थों में है और न संकुचित में ही लोगों का यह भ्रम है कि विद्यालयों में ही शिक्षा दी जाती है। वास्तविकता यह है कि शिक्षा का अर्थ बालक की मूल प्रवृत्तियों के विकास एवं सहज प्रवृत्तियों के निर्माण से है। बाहरी ज्ञान की अपेक्षा आन्तरिक विकास कार्य आवश्यक है। यह एक गतिशील प्रक्रिया है, जिसमें, बालक शिक्षक एवं पाठ्यक्रम की त्रिवेणी है। शिक्षा से चाहे वह विद्यालय में हो या किसी अन्य साधन से बालक का वैयक्तिक तथा सामाजिक विकास होता है।
अतः शिक्षा व्यक्ति के पूर्ण विकास का माध्यम है। यह उसे विभिन्न परिस्थितियों में सामंजस्य करने की प्रेरणा देता है। शिक्षा का वास्तविक अर्थ यह है कि वह मनुष्य के विकास में सहायक हो, बाधक नहीं। संकुचित अर्थ में शिक्षा रुढ़िवादी, सीमित तथा प्रतिबद्ध हो जाती है। उदार शिक्षा में नियन्त्रण नहीं रहता, परन्तु समन्वयवादी शिक्षा व्यक्ति का विकास वैयक्तिक तथा सामाजिक दृष्टिकोण से करती है। टी० रेमण्ट के अनुसार शिक्षा मानव जीवन के विकास की प्रक्रिया है, जो शैशवावस्था से प्रौढ़ावस्था तक चलती रहती है। यह विकास का वह क्रम है, जो व्यक्ति को सभी प्रकार के वातावरण के अनुकूल बनाता है। शिक्षा का वास्तविक अर्थ इस प्रकार है-
- शिक्षा का अर्थ है सर्वांगीण विकास।
- व्यापक शिक्षा में बालक प्रमुख होता है।
- बालक की रुचि तथा मानसिक स्थिति का ध्यान रखा जाता है।
- वास्तविक जीवन की तैयारी ही व्यापक शिक्षा है।
- स्वानुभव द्वारा ही व्यापक शिक्षा दी जाती है।
3. शिक्षा की प्रक्रिया (Process of Education)
विद्वानों ने शिक्षा को एक प्रक्रिया माना है। यह जीवन पर्यन्त चलते रहने वाली प्रक्रिया है, जिसका आदि उस समय होता है जब बालक गर्भ में स्थित होता है और अन्त तब होता है जब वह मर जाता है। परन्तु संकुचित अथवा औपचारिक (Formal) अर्थों में एडम्स (Adams) ने शिक्षा को द्विमुखी प्रक्रिया बताया। उसके अनुसार- ‘शिक्षा द्विमुखी प्रक्रिया है।’ (Education is a bi-polar process. -Adams.)
रॉस (Ross) ने भी एडम्स का समर्थन किया है और कहा है- “चुम्बक की तरह शिक्षा के भी दो ध्रुव होने चाहियें। यह द्विमुखी प्रक्रिया है।” (Like a magnet education must have two poles, it is a bi-polar process. -Adams.)
इसका अर्थ यह हुआ कि शिक्षा की इस प्रक्रिया में शिक्षक तथा शिष्य को एक-दूसरे को पूरी जानकारी होनी चाहिये। शिक्षा में सदैव चेतना की आवश्यकता होती है। इसीलिये केवल शिक्षक को ही शिक्षा की प्रक्रिया नहीं मान सकते, परन्तु इस विचार को आगे बढ़ाने वाले जॉन डीवी (John Dewey) ने शिक्षा को त्रिमुखी (Tri-polar) प्रक्रिया बताया है। डीवी के अनुसार- “शिक्षा में शिक्षक तथा शिष्य के साथ-साथ सामाजिक शक्तियों को भी शिक्षा की तीसरी प्रक्रिया माना है। अतः सामाजिक शक्तियों के रूप में शिक्षक तथा शिष्य के मध्य पाठ्यक्रम आ जाता है, तब तक शिक्षक एवं शिष्य दोनों ही व्यर्थ बैठे रहेंगे।”
अत: शिक्षा की प्रक्रिया में त्रिमुखी प्रक्रिया को अधिक बल दिया जाता है और यह शिक्षाशास्त्रियों द्वारा मान्य भी है। शिक्षा की प्रक्रिया का अर्थ है-बालक के विकास की प्रक्रिया का सम्पन्न होना, शिक्षा बालक की क्षमताओं को विकसित करती है। इसीलिये, इसे एक सचेतन प्रक्रिया कहा गया है। यह सचेतन प्रक्रिया जीवन पर्यन्त चलती रहती है। यह गत्यात्मक (Dynamic) है। इसमें परिवर्तनशीलता पाई जाती है। देश, काल तथा परिस्थिति के अनुसार इसमें परिवर्तन होते रहते हैं।
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