शिक्षा के विभिन्न उद्देश्य क्या हैं ? उनको प्रभावित करने वाले तत्वों का उल्लेख कीजिए।
दिवलिन के शब्दों में- “शिक्षा एक सप्रयोजन नैतिक क्रिया है, अत: यह कल्पना नहीं की जा सकती कि यह. उद्देश्य-विहीन है।” तब फिर प्रश्न उठता है कि शिक्षा के उद्देश्य क्या होने चाहियें ? कुछ कहते हैं-शिक्षा का उद्देश्य है चरित्र-निर्माण, तो कुछ का मत है कि शिक्षा व्यक्ति को जीविकोपार्जन के लिये तैयार करे। प्रायः प्रत्येक विद्वान् ने शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण अपने-अपने ढंग से किया है। यह भी सच है कि देश, काल तथा परिस्थिति के अनुसार भी शिक्षा के उद्देश्य निर्धारित होते रहे हैं। प्राचीन भारत में आध्यात्मिक विकास शिक्षा का उद्देश्य था तो ग्रीक में नागरिकता का विकास शिक्षा का कर्त्तव्य था। स्पार्टा में युद्ध के लिये तैयार करना तो हिब्रू में धार्मिकता के लिये शिक्षा दी जाती थी।
शिक्षा के विभिन्न उद्देश्यों के मूल में ज्ञान, नैतिकता, वैयक्तिकता तथा सामाजिकता निहित होती है। ज्ञान की प्राप्ति से जीवन में शिक्षण का आरम्भ होता है।
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1. चरित्र निर्माण के उद्देश्य ( Character Building Aim)
शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य चरित्र निर्माण करना है। चरित्र से तात्पर्य नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का विकास है तथा उन मूल्यों को जीवन में व्यवहार करना है। डॉ० राधाकृष्णन ने कहा- “भारत सहित सारे संसार के कष्टों का कारण यह कि शिक्षा का सम्बन्ध नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति से न रहकर केवल मस्तिष्क के विकास से रह गया है। ” चरित्र-निर्माण की शिक्षा से मानव व्यवहार का शोधन होता है। बालकों का चरित्र यदि अच्छा होगा तो वे राष्ट्र की अधिक रक्षा व सेवा कर सकेंगे। चरित्र निर्माण ही सभी प्रकार के विकास व निर्माण की कुन्जी है। टी० रेमण्ट ने इसीलिये कहा है— “शिक्षक का कर्त्तव्य शरीर को स्वस्थ, ज्ञान को पूर्ण और भावना को शिष्ट बनाना नहीं है वरन् चरित्र को शक्तिशाली और पवित्र बनाना है।” डॉ० राधाकृष्णन के शब्दों में- “भारत सहित सारे विश्व के कष्टों का कारण यह है कि शिक्षा केवल मस्तिष्क के विकास तक सीमित रह गई है, उसमें धार्मिकता तथा आध्यात्मिक मूल्यों का समावेश नहीं है।” हरबार्ट ने चरित्र निर्माण तथा नैतिक विकास को शिक्षा का सर्वोत्तम उद्देश्य माना है।
चरित्र निर्माण की शिक्षा से चरित्र उत्तम बनता है, जीवन में सफलता मिलती है, समाज का हित होता है। इसके लिये सत्य का शास्त्र, सत्य से प्रेम असत्य से घृणा, सत्य आचरण की आदत का प्रशिक्षण आवश्यक है।
आलोचना- शिक्षाशास्त्रियों ने चारित्रिक शिक्षा को एकांगी शिक्षा माना है। उनका विचार है कि चारित्रिक शिक्षा पर ही बल देने से शिक्षा के अन्य उद्देश्य पिछड़ जाते हैं और उनका विकास नहीं हो पाता। तथ्य यह भी है—चरित्र सम्बन्धी मान्यतायें भी स्पष्ट नहीं हुई हैं। क्या नैतिक आचरण का नाम ही चरित्र है ? चरित्रवान् व्यक्ति दूसरे से घृणा करते भी देखे गये हैं। उनमें अहं (Ego) अत्यधिक आता है। शिक्षा शास्त्रियों ने चरित्र निर्माण का उद्देश्य एकांगी बताया है। कारण इस प्रकार हैं- (1) चरित्र की परिभाषा तथा मानदण्ड सार्वभौम नहीं है। (2) केवल चरित्र से ही मानव-व्यवहार नहीं चलता (3) नैतिकता तथा सदाचरण के शिक्षण में कठिनाई है।
चारित्रिक शिक्षा जीवन-निर्माण के लिये अत्यन्त आवश्यक होते हुये भी अधूरी है। इनसे मानव-जीवन के एक ही पक्ष का विकास होता है। मानव-जीवन के लिए सम्पूर्ण विकास की आवश्यकता है और चरित्र निर्माण उसे पूरा नहीं करता।
2. ज्ञान प्राप्ति का उद्देश्य ( Knowledge Aim)
“वेवस्टर के शब्दों में-“ज्ञान वह है जो ज्ञात है, जो ज्ञात होने के द्वारा संचित रहता है या वह जानकारी है, जो वास्तव में अनुभव द्वारा प्राप्त होती है।” जॉन डीवी ने कहा है-“केवल वहीं जो हमारे संस्कारों में संगठित हो गया है, जिससे हम वातावरण को अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल बनाने में समर्थ हो सकें और अपने आदर्शों तथा इच्छाओं को उस स्थिति के अनुकूल बना लें, जिसमें हम रहते हैं, वास्तविक ज्ञान है।”
शिक्षा, ज्ञान प्राप्ति का प्रमुख साधन है। शिक्षा को ज्ञान प्राप्ति का उद्देश्य प्राचीन काल से माना जाता रहा है। वास्तविकता यह भी है कि शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति अधिकतम ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करता है।
इस उद्देश्य में एक दोष है। कोरा ज्ञान, व्यक्ति को असामाजिक, अव्यावहारिक बना देता है। अपने ‘स्व’ में व्यक्ति केन्द्रित हो जाता है। उसका वह स्वकेन्द्रितपन उसे उपयोगी नहीं रहने देता, पान्तु ज्ञान को शिक्षा का उद्देश्य मानने वालों का कहना है कि ज्ञान मानव प्रगति का आधार है, वह मानव को अनुशासन के लिए प्रेरित करता है। शायद इसीलिए शेक्सपीयर (Shakespeare) ने कहा है-‘ज्ञान की सहायता से ही हम स्वर्ग प्राप्त कर सकते हैं।’ (Knowledge is the wing wherewith we lly to heaven.) । प्रो० हुमायूँ कबीर का भी ऐसा विचार है-“शिक्षा का उद्देश्य भौतिक संसार और समाज के विचारों तथा आदर्शों का ज्ञान प्राप्त करना है।” इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त करना, निजी उन्नति और समाज सेवा के लिए आवश्यक है।
आलोचना-जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि मानव को ज्ञान के साथ-साथ ज्ञान के प्रयोग की आवश्यकता है, जिसे वह केवल व्यवहार द्वारा ही कर सकता है। ज्ञान से ज्ञान का विकास हो सकता है, मनुष्य ज्ञान की उच्चतम सीमा को लांघ सकता है, परन्तु यदि वह व्यवहार कुशल न हुआ तो ज्ञान व्यर्थ हो जाता है। ज्ञान साधन है, साध्य नहीं; इसलिये एडम्स ने कहा है- “ज्ञान पर बल देने से विद्यालय ज्ञान की दुकान और शिक्षक सूचना विक्रेता बन जाते हैं।”
अत: यह कहा जा सकता है कि ज्ञान ही शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य नहीं हो सकता। शिक्षा के अन्य अंगों का विकास तभी हो सकता है, जबकि शिक्षा में ज्ञान प्राप्ति के साथ-साथ अन्य तथ्यों का समावेश किया जाये। एडम्स अनुसार-“सभी प्रकार के ज्ञान में कुछ झूठ है, कुछ व्यर्थ है और कुछ अभिमान उत्पन्न करता है। इसमें केवल वही थोड़ा ज्ञान बुद्धिमान व्यक्ति के अध्ययन के योग्य है, जो हमारे लिये कल्याणकारी है।
3. शारीरिक विकास का उद्देश्य (Physical Development Aim)
प्राचीन काल में यूनान के स्पार्टा, रोम आदि नगर राज्यों में शिक्षा का उद्देश्य बालक को स्वस्थ बनाना था। उनका विचार था कि शरीर के विकास के बिना अन्य प्रकार के विकास नहीं हो सकते। अरस्तू ने इसीलिए कहा था- ‘स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है।’ ( Sound mind in a sound body – Aristotle)
उस समय विद्वान् शरीर के विकास को महत्व देते थे। उनका विचार था कि शरीर के स्वस्थ न रहने पर शेष सभी काम अपूर्ण रह जाएंगे। उपरोक्त नगर राज्यों में तो केवल शक्तिशाली बच्चों को ही जीवित रहने का अधिकार था। बच्चों को पहाड़ पर से नीचे लुढ़काया जाता था, जो जीवित बचते उनका पालन-पोषण उचित रीति से किया जाता था। रूसो ने शिक्षा में खेल-कूद, व्यायाम आदि की व्यवस्था इसीलिए की थी।
आलोचना- अन्य विशिष्ट उद्देश्यों की भाँति यह उद्देश्य भी एकांगी है। शारीरिक विकास के साथ-साथ मानसिक विकास भी होना चाहिये। यदि शारीरिक विकास ही हुआ तो बालक उजड़ पहलवान मात्र रह जाएँगे, जो शरीर एवं शक्ति प्रदर्शन मात्र को जीवन का पाथेय समझ लेते हैं। इसका परिणाम कभी-कभी बहुत ही भयंकर हो जाता है। केवल शारीरिक शक्ति के विकास में मानव गुणों का नहीं, पाशविकता का विकास होता है। इसका परिणाम प्लेटो के अनुसार यह होता है- स्वास्थ्य, धन, सौंदर्य और शक्ति एवं वे सभी वस्तुयें जो अच्छी कही जा सकती हैं, दुष्ट और अन्यायो व्यक्तियों पर समान रूप से बुरा प्रभाव डालती हैं। “
अतः ‘जियो और जिन्दा रहने दो’ के लिए सह-अस्तित्व की आवश्यकता है। यह सह-अस्तित्व उस समय विकसित होगा, जबकि शिक्षा के साथ-साथ अन्य प्रकार के विकास पर भी ध्यान दिया जाएगा।
4. सांस्कृतिक उद्देश्य (Cultural Aim)
शिक्षा, संस्कृति के निरन्तर आगे प्रवाहित करने के साधन के रूप में समझी जाती है, शिक्षा का कार्य भी मानव को सुसंस्कृत (Cultured) एवं परिष्कृत (Cultivated) करना है। टालयर के अनुसार-“संस्कृति वह जटिल समग्रता है, जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, प्रथा तथा अन्य योग्यतायें और स्वभाव सम्मिलित होते हैं, जिनको मनुष्य समाज के रूप में प्राप्त करता है। “
एच० रग (H. Rugg) के अनुसार- “संस्कृति का अर्थ है मनुष्यों के सम्पूर्ण जीवन से, जो समूहों के साथ सम्बद्ध है। उस समाज विशेष में व्यक्ति किस प्रकार चिन्तन करते हैं, कैसे उनके अनुभव, इच्छायें और विकास हैं एवं भय किस प्रकार के हैं।” इसलिए संस्कृति में भौतिक जीवन, सामाजिक संस्थायें तथा मानव व्यवहार आते हैं। शिक्षा के द्वारा संस्कृति की जानकारी तथा सांस्कृतिक हस्तान्तरण होता है। सांस्कृतिक उद्देश्य मानव के सम्पूर्ण विकास पर बल देता है।
इस उद्देश्य के समर्थकों का विचार है कि संस्कृति में वे सभी अनुभव सम्मिलित होते हैं, जो मानव ने आदिकाल से अब तक संचित किए हैं। सांस्कृतिक वंशक्रम (Cultural Heritage) इसी के माध्यम से आगे पीढ़ियों में चलता है। ज्ञान से मस्तिष्क शिक्षित होता है और संस्कृति से हृदय। महात्मा गाँधी ने भी संस्कृति को मानव जीवन की आधारशिला माना है।
आलोचना– सांस्कृतिक शिक्षा की आलोचना से पूर्व यदि साम्यवादी चीन के सांस्कृतिक संघर्ष की ओर दृष्टिपात करें तो हमें सारी स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। जब भी संस्कृति किसी संकीर्ण व्यक्ति का नेतृत्व प्राप्त कर सकी, वह अपना महत्व खो बैठी। दूसरी बात यह भी है कि संस्कृति के अनेक अर्थ हैं। हम किसको संस्कृति मानें ? यह समस्या सदैव रही है। यह शिक्षा मनोवैज्ञानिक इसलिए भी है कि आज के युग में व्यक्ति नई परम्पराओं तथा स्थितियों में जीता है। वह प्राचीन के साथ बंधकर नहीं चल पाता।
5. समायोजन का उद्देश्य (Adjustment Aim )
कुछ शिक्षाशास्त्रियों के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य समायोजन की कुशलता की अभिवृद्धि है। यदि शिक्षा बालक को अपनी परिस्थितियों के अनुकूल समायोजित करने में असफल रहती है तो वह अपने उद्देश्य में असफल रहती है। डार्विन से समायोजन के योग्य बनाता है। वातावरण ही वास्तविक शिक्षक है। इसके द्वारा अनुभव प्राप्त करके मनुष्य सदैव कुछ न कुछ सीखता है। अतः शिक्षा का उद्देश्य समायोजन की क्षमता होना चाहिए।
का मत रहा है कि शक्तिशाली ही जीवन संघर्ष में जीवित रहता है। शिक्षा का कार्य मानव को शारीरिक एवं बौद्धिक रूप आलोचना समायोजन केवल मनुष्यों के लिए ही नहीं पशुओं के लिए भी उतना ही आवश्यक है। प्राकृतिक वातावरण में समायोजन करने के लिए तो मनुष्य और पशु दोनों की स्थिति समान है, परन्तु प्राकृतिक वातावरण से परे भी सामाजिक वातावरण है। यह उद्देश्य अत्यन्त संकीर्ण है। प्रकृति जहाँ शक्तिशाली को जीवित रखती हैं, वहाँ वह अयोग्यों को भी योग्य बनाती है। जॉन डीवी के अनुसार “वातावरण से पूर्व अनुकूलन का अर्थ है मृत्यु आवश्यक बात यह है कि वातावरण पर नियन्त्रण किया जाये।”
अतः समायोजन का उद्देश्य अपूर्व एवं आवश्यक है।
6. जीविकोपार्जन का उद्देश्य (Vocational Aim)
मानव की तीन मौलिक आवश्यकतायें हैं-रोटी, कपड़ा और मकान। इन मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये मनुष्य प्रयत्न करता है। अतः शिक्षा का उद्देश्य बालक को इस योग्य बनाना होना चाहिये कि वह बड़ा होने पर अपनी जीविका स्वयं कमा सके और अपने परिवार पर आर्थिक बोझ न डाले।
जीविकोपार्जन के उद्देश्य को उपयोगिता का ‘Bread and Butter Aim’ भी कहा गया है। डॉ० जाकिर हुसैन ने कहा है-“राज्य को, अपने नागरिकों को किसी लाभकारी कार्य के लिए शिक्षित करना चाहिए।”
इस मत के मानने वालों का मत है कि शिक्षा यदि बालक को जीविकोपार्जन के योग्य बना देती है तो वह भविष्य की अनेक असंगतियों से बच जाता है। उसमें समाज में जीवन-यापन करने का आत्म-विश्वास आ जाता है और वह उत्तम है नागरिक बन जाता है। जॉन डीवी ने कहा है-“यदि एक व्यक्ति अपनी जीविका प्राप्त करने में असमर्थ है तो इस बात की आशंका है कि वह स्वयं पथ भ्रष्ट हो जाए और दूसरों को हानि पहुँचाए। “
बुनियादी शिक्षा में उपयोगिता को आधार मानकर गाँधी जी ने भी कहा है-“सच्ची शिक्षा को बच्चों को बेरोजगारी से एक प्रकार की सुरक्षा देनी चाहिए।”
आलोचना-यह सत्य है कि यदि जीविकोपार्जन को शिक्षा का उद्देश्य बनाया जाए तो उससे देश में बेकारी व बेरोजगारी की समस्या का अन्त हो जाएगा। इस प्रकार की शिक्षा के उद्देश्य से दो खतरे पैदा होते हैं- (1) बालक केवल उन कार्यों में रुचि लेने लगते हैं, जिनमें धन प्राप्ति की आशा होती है। (2) जीवन में केवल धन कमानः ही एकमात्र उद्देश्य नहीं है। केवल धन के पीछे दौड़ने वाले व्यक्ति समाज के लिए खतरा बन जाते हैं। स्वयं प्लेटो ने भी कहा है- “वह शिक्षा अनुदार है, जिसका उद्देश्य बुद्धि और न्याय की ओर ध्यान न देकर केवल धन या शारीरिक बल की प्राप्ति है।”
अतः शिक्षा का उद्देश्य केवल जीविकोपार्जन ही होना चाहिए।
7. सर्वांगीण विकास का उद्देश्य (Harmonious Development Aim)
पेस्टॉलॉजी के अनुसार- “मानव प्रकृति का एकांगी विशिष्ट विकास अप्राकृतिक एवं झूठा है।” शिक्षा मानव जीवन पूर्णतः प्रदान करने के रूप में जानी जाती है। किसी भी एक योग्यता या क्षमता के विषय में सोचना मानव के प्राकृतिक सन्तुलन को समाप्त करना है।
इस उद्देश्य के समर्थन में विचार रखने वाले शिक्षाशास्त्रियों का विचार है कि किसी एक अंग विशेष पर बल देने से एक ही पहलू का विकास होता है। एक पहलू के विकास को समविकास नहीं कह सकते। यह उद्देश्य मनोवैज्ञानिक भावभूमि पर आधारित है। माध्यमिक शिक्षा आयोग ने भी कहा है-“वह शिक्षा, शिक्षा कहलाने के योग्य नहीं है, जो मनुष्य में अपने साथी मनुष्यों के साथ सुन्दरता, सामंजस्य और कुशलता से रहने के आवश्यक गुणों का विकास नहीं करती। “
महात्मा गाँधी ने भी समविकास पर जोर दिया है। उनके अनुसार-“शरीर, मस्तिष्क और आत्मा का उचित और सामंजस्यपूर्ण मिश्रर्ण, पूर्ण मनुष्य के निर्माण के लिए आवश्यक है और शिक्षा की सच्ची व्यवस्था का आधार है। “
आलोचना – समविकास मनोवैज्ञानिक होते हुए भी स्पष्ट नहीं है। समविकास अर्थात् सर्वांगीण विकास में क्या-क्या अपेक्षित है, यह स्पष्ट नहीं हो पाता। अब विशेषीकरण (Specialization) का युग है। इसमें समविकास का उतना महत्व नहीं रह पाता। इसके साथ ही यह भी बात सत्य है कि किसी एक दिशा में विकास ही मानव को प्रबुद्ध बनाता है। इस उद्देश्य में अभी वाद-विवाद अधिक है।
8. पूर्ण जीवन का उद्देश्य (Complete Living Aim)
शिक्षा के इस अंग के अन्तर्गत यह व्यवस्था है कि शिक्षा के द्वारा उन सभी अंगों का विकास हो जाना चाहिये, जो जीवन को सरलतापूर्वक व्यतीत करने की सम्भावनाओं का विकास कर सकें। जीवन की हर परिस्थिति का डटकर मुकाबला करने की सामर्थ्य व्यक्ति में आ जानी चाहिए। हरबर्ट स्पेन्सर के अनुसार- “हमें केवल भौतिक अर्थ में नहीं, वरन् विस्तृत रूप में जीवन व्यतीत करना है। परिस्थितियों और सभी दिशाओं में आचरण पर उचित नियन्त्रण करना सामान्य समस्या है। “
इस उद्देश्य की विशेषता यह है कि यह जीवन को पूरी तरह व्यतीत करने की सम्भावनाओं पर विचार करता है। हरबर्ट स्पेन्सर ने पूर्ण जीवन के लिए निम्नलिखित क्रियायें और पाठ्यविषय प्रस्तावित किए हैं-
आलोचना– विद्वानों ने इस उद्देश्य की आलोचना करते हुए कहा है कि पूर्ण जीवन के लिए क्या आवश्यक है, यह हर व्यक्ति के अपने सोचने व रहने के ढंग पर आधारित होता है। स्पेन्सर ने पूर्ण जीवन को पाँच क्रियाओं में सीमित कर दिया है, जबकि जीवन में अभी भी बहुत से क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें अभी विकास की बहुत सी सम्भावनायें अपेक्षित हैं। स्पेन्सर ने पूर्ण जीवन के लिए धर्म, नैतिक तथा आध्यात्मिक को भी प्रश्रय नहीं दिया है। पूर्ण आवश्यक होते हुए भी विषयों को समान रूप से स्पेन्सर ने प्रस्तावित किया है। उससे स्पेन्सर की योजना की अमनोवैज्ञानिकता सिद्ध हो जाती है।
क्रियायें | पाठ्यविषय |
1. आत्मरक्षा 2. परोक्ष रूप में जीवन रक्षा 3. सन्तान रक्षा सम्बन्धी 4. समाज रक्षा सम्बन्धी 5. अवकाश सम्बन्धी |
1. भाषा, गणित, भूगोल 2. शरीर एवं पदार्थ विज्ञान 3. गृह विज्ञान एवं बाल मनोविज्ञान 4. इतिहास, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र 5. कला, संगीत और साहित्य |
9. नागरिकता का उद्देश्य (Citizenship Aim)
आज विश्व में शान्ति प्रणाली में परिवर्तन आया है। राजसत्ता के स्थान पर जनसत्ता का अस्तित्व अच्छे नागरिकों के द्वारा होता है। अतः शिक्षा का उद्देश्य नागरिकता का प्रशिक्षण देना है। आज लोकतन्त्र में हर व्यक्ति को उसके अधिकार व कर्त्तव्यों का ज्ञान होना आवश्यक है। कुछ प्रमुख गुणों का विकास नवीन मूल्यों की स्थापना के लिए आवश्यक है। शिक्षा के द्वारा बालकों को देश की राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति को बल मिलना चाहिए। डॉक्टर जाकिर हुसैन के अनुसार- “प्रजातन्त्र व्यक्ति की प्रेरणा पर आश्रित रहता है न कि ऊपर से मिलने वाले निर्देशों पर राज्य का सबसे कठिन कार्य प्रत्येक नागरिक में सामान्य राष्ट्रीय स्वभाव का विकास करना है। ” प्लेटो ने तो नागरिकता की शिक्षा को सर्वोपरि बताया है। उसके अनुसार- “केवल नागरिकता की शिक्षा ही अपना नाम चरितार्थ करती है।” (Education for Citizenship is the only education which deserves the name. – Plato)
आलोचना– नागरिकता का विकास आज के युग में होना चाहिए, परन्तु कहीं ऐसा न हो जाये कि नागरिकता की शिक्षा संकीर्ण राष्ट्रीयता में परिवर्तित हो जाये। हिटलर, मुसोलिनी और स्टालिन जैसे अधिनायकों ने नागरिकता के नाम पर संकीर्णता की भावनाओं का विकास किया है। अतः नागरिकता की शिक्षा के साथ-साथ उदार दृष्टिकोण को भी प्रोत्साहन मिलना चाहिये।
10. अवकाश के समय के उपयोग का उद्देश्य (Leisure Utilization Aim)
प्रायः देखा जाता है कि आवश्यक काम-काज के बाद व्यक्ति अवकाश में विश्राम करता है। अवकाश का उपयोग कई प्रकार से किया जा सकता है। शिक्षा का उद्देश्य अवकाश के समय को ठीक-ठीक प्रकार से उपयोग कराना होना चाहिए। अवकाश के समय के उपयोग से हमारा आशय यह है कि व्यक्ति अपने समय का उपयोग किस प्रकार करता है। व्यक्ति अपने सम्पर्क से जाना जाता है। शिक्षा के इस उद्देश्य से बालकों में अव्यक्त गुणों की अभिव्यक्ति होने लगती है। रुचियों का विकास होता है। संस्कृति का प्रसार होता है।
आलोचना- अवकाश के समय के उपयोग की शिक्षा सभी व्यक्तियों के लिए नहीं हो सकती। अवकाश तो उसे मिलता है जो साधन सम्पन्न होता है। जिसे अवकाश नहीं मिलता, उसे अवकाश के उपयोग की शिक्षा देने का प्रश्न ही नहीं उठता।
11. आत्मबोध का उद्देश्य (Self-Realisation Aim)
इस उद्देश्य के अन्तर्गत जीवन की आध्यात्मिक वृत्तियों का समावेश हो जाता है। आत्मबोध से तात्पर्य है-आत्मानुभव । डॉक्टर राधाकृष्णन के अनुसार- “शिक्षा का उद्देश्य न तो राष्ट्रीय कुशलता है न अन्तर्राष्ट्रीय एकता, वरन् व्यक्तियों को यह अनुभव कराना है कि उसमें बुद्धि से अधिक महत्वपूर्ण कोई चीज है, जिसे यदि आप चाहें तो आत्मा कह सकते हैं।”
इस उद्देश्य के समर्थन में लोगों का विचार है कि आत्मबोध से आध्यात्मिक उन्नति होती है। व्यक्ति स्वार्थों से ऊपर उठ जाता है और फिर वह समाज के लिए उपयोगी बन जाता है।
आलोचना- आत्मबोध का उद्देश्य मानव को लौकिक एवं अलौकिक जगत की अनुभूति कराना है, परन्तु यह अनुभूति कब और कैसे होती है, इसकी क्रिया शिक्षा की नहीं, योग की है। यह उद्देश्य मानव के गुणों का परिष्कार करता है और उसे सद्भाव के लिए तत्पर करता है, परन्तु ऐसा भी देखा गया है कि आत्म-बोध मुक्त कहलाने वाले व्यक्ति समाज द्वारा अस्वीकृत कार्य करते हैं।
12. व्यक्तिगत एवं सामाजिक उद्देश्य (Social and Individual Aim)
वास्तविकता यह है कि शिक्षा के सभी उद्देश्य व्यक्तिगत और सामाजिक उद्देश्यों में आ जाते हैं। ये दोनों उद्देश्य समाज में चलित व्यक्तिवादी एवं समाजवादी विचारधारा के परिणाम हैं। व्यक्तिगत उद्देश्य के अनुसार शिक्षा का कार्य व्यक्ति का सम्पूर्ण विकास करना है। यह व्यक्ति को प्रधान मानता है और उसके विकास के हर सम्भव प्रयत्न को सफल बनाना चाहता है। सामाजिक उद्देश्य समाज की एकता और व्यवस्था बनाये रखता है। रेपष्ट के अनुसार “समाजविहीन व्यक्ति एक कोरी कल्पना है।”
आलोचना- शिक्षा के ये दोनों उद्देश्य एक-दूसरे के अभाव में अपूर्ण हैं। व्यक्ति और समाज दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। अतः दोनों का समन्वय आवश्यक है। रॉस के अनुसार- “सामाजिक वातावरण से अलग वैयक्तिकता का कोई मूल्य नहीं है और व्यक्तित्व एक अर्थहीन शब्द है, क्योंकि इसी में इसको विकसित और कुशल बनाया जा सकता है।”
निष्कर्ष – शिक्षा के सभी उद्देश्यों पर विचार करने पर हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि शिक्षा का कोई भी उद्देश्य अपने में पूर्ण नहीं है। प्रत्येक उद्देश्य केवल एक ही अंग को विकसित करता है।
शिक्षाशास्त्री किसी एक ऐसे उद्देश्य का समर्थन करने के लिए उत्सुक रहे हैं जो जीवन के सम्पूर्ण उद्देश्यों को पूरा कर सके। ऐसे उद्देश्यों में हरबर्ट स्पेन्सर के पूर्ण विकास के उद्देश्य को स्वीकार करते हुए शिक्षा शास्त्रियों ने इसका समर्थन किया है। हरबर्ट स्पेन्सर के अनुसार- “शिक्षा को हमें पूर्ण जीवन के नियमों और ढंगों से परिचित कराना चाहिए। शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण कार्य हमें जीवन के लिए इस प्रकार तैयार करना है कि हम उचित प्रकार का व्यवहार कर सकें और शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा का सदुपयोग कर सकें।” स्पेन्सर के अनुसार, शिक्षा का कोई एक उद्देश्य नहीं हो सकता। आधुनिक जीवन में एक ही उद्देश्य के साथ ऐसी क्रियायें अवश्य होनी चाहिएँ जो कि मानव को सभी दिशाओं में विकसित कर सकें। अतः आज के युग में शिक्षा के उद्देश्यों में समन्वय होना आवश्यक है।
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