शिक्षा के सिद्धान्त / PRINCIPLES OF EDUCATION

शिक्षा और संस्कृति की अवधारणा | Concept of Education and Culture in Hindi

शिक्षा और संस्कृति की अवधारणा | Concept of Education and Culture in Hindi
शिक्षा और संस्कृति की अवधारणा | Concept of Education and Culture in Hindi

शिक्षा और संस्कृति की अवधारणा की व्याख्या कीजिए।

संस्कृति और शिक्षा एक-दूसरे के पर्याय हैं। संस्कृति का काम है- संस्करण अर्थात् परिष्कार करना। यही काम शिक्षा भी करती है। समाज की रचना में भी संस्कृति का विशेष योग रहता है। किसी भी सामाजिक संरचना को समझने के लिए संस्कृति एक आवश्यक तत्व है। संस्कृति समाज को संगठित रखती है। जीवन शैली के स्वरूप को प्रस्तुत करने का कार्य संस्कृति करती है। संस्कृति शब्द की व्युत्पत्ति सम् उपसर्ग कृ-धातु स्तिन प्रत्यय से हुई है। इसमें जीवन के सभी पक्षों का समन्वय है। राल्फ लिंटन के अनुसार- “संस्कृति सीखे हुए व्यवहारों तथा उनके परिणामों का वह समग्र रूप है, जिसके निर्माणकारी तत्व किसी विशिष्ट समाज के सदस्यों द्वारा प्रयुक्त और संचरित होते हैं। “

संस्कृति का सम्पूर्ण जीवन शैली से सम्बन्ध होता है। सभ्यता संस्कृति का भौतिक पक्ष है। भौतिक तथा अभौतिक है संस्कृति को क्रमशः सभ्यता तथा संस्कृति कहा जाता है।

संस्कृति की परिभाषा

1. ओटावे (Ottaway) – किसी समाज की संस्कृति से अर्थ उस समाज की सम्पूर्ण जीवन पद्धति से होता है। The culture of society means the total way of life of a society.

2. एडवर्ड वी० टायलर (E. B. Taylor) – संस्कृति वह जटिल पूर्णता है जिसमें उन सब ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, नियम, रीति-रिवाज और इसी प्रकार की अन्य क्षमताओं और आदतों का समावेश होता है, जिन्हें मनुष्य समाज के सदस्य के रूप में सीखता है Culture is that complex whole which includes knowledge; belief, art, morals, law, customs and any other capabilities and habits acquired by man as a member of society.

3. सदरलैण्ड एवं वुडवर्थ- संस्कृति में वह प्रत्येक वस्तु सम्मिलित होती है, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित की जा सकती है। किसी जन समुदाय की संस्कृति उसकी विरासत होती है।

संस्कृति, व्यक्ति तथा समाज के व्यवहारों का समग्र रूप है। समाज के नवीन सदस्य इसी समग्रता के कारण ही समाज के पूर्व प्रचलित व्यवहार को सीखते हैं। मैकआइवर एवं पेज ने कहा भी है-“हम जो हैं, वह संस्कृति है, हम जो इस्तेमाल करते हैं वह हमारी सभ्यता है।” राल्फालिटन के अनुसार- “संस्कृति सीखे हुए व्यवहारों तथा उनके परिणामों का वह समग्र रूप है, जिसके निर्माणकारी तत्वं किसी विशिष्ट समाज के सदस्यों द्वारा प्रयुक्त एवं संचरित होते हैं।” डॉ० सीताराम जायसवाल के अनुसार-“संस्कृति सामाजिक व्यवहार का एक ऐसा प्रारूप है, जिसे व्यक्ति समाज में रहकर सीखता है, इसका अर्थ है—संस्कृति अर्जित वस्तु है। जन्म से किसी व्यक्ति को संस्कृति का ज्ञान नहीं होता, किन्तु भारतीय संस्कृति में पूर्व जन्म के संस्कारों का महत्व है और वस्तुतः यह कहा जा सकता है कि जन्म के समय व्यक्ति के भीतर सांस्कृतिक विकास सम्बन्धी सम्भावनायें होती हैं।”

संस्कृति अर्जित व्यवहार

संस्कृति मानव का अर्जित व्यवहार है। वह सामाजिक जीवन व्यतीत करने के लिए ही समाज के व्यवहारों को सीखता है। संसार के सभी लोग भोजन करते हैं, परन्तु उनका भोजन करने का ढंग एक-सा नहीं होता। जैविक तथा मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ पूरी करने का तरीका पृथक् होता है।

व्यवहारों का समग्र रूप

समाज के जिन व्यवहारों को व्यक्ति सीखता है, वे समग्र होते हैं। इनमें प्रतिमान होते हैं और उन्हें आदर्श रूप में स्वीकार किया जाता है। इसलिए संस्कृति अर्जित व्यवहारों का योग होने के साथ-साथ प्रतिमानित भी होती है।

आदान-प्रदान – संस्कृति में विभिन्न समाज आपस में आदान-प्रदान भी करते हैं। इस प्रक्रिया को संस्कृतिकरण कहा जाता है। आज हम अन्य देशों के व्यवहारों को अपना रहे हैं। विदेशी भी कृष्ण सम्प्रदाय के भक्त हो रहे हैं। संस्कृति अर्जित व्यवहारों के संचरण तथा आदान-प्रदान पर बल देती है।

संस्कृति के प्रकार-

1. भौतिक संस्कृति- यह संस्कृति भौतिक पदार्थों के रूप में दिखाई देती है। मकान, वस्त्र, भोजन, बर्तन आदि सभी भौतिक संस्कृति होते हैं।

2. सूक्ष्म या अभौतिक संस्कृति-धार्मिक, दार्शनिक विश्वास, विचार, मूल्य आदि अनार्थिक संस्कृति कहलाती है। भौतिक संस्कृति व्यक्ति के विचारों को अभिव्यक्ति प्रदान करती है।

संस्कृति और शिक्षा

संस्कृति और शिक्षा, दोनों का सम्बन्ध व्यक्ति से है। व्यक्तित्व के विकास में संस्कृति की भूमिका अभिन्न होती है। शिक्षा संस्कृति के कार्य को इस प्रकार सम्पादित करती है-

1. व्यक्तित्व का विकास- आलपोर्ट के अनुसार व्यक्तित्व, व्यक्ति के अन्दर वह गतिशील और मन शारीरिक प्रणालियों का संगठन है, जो पर्यावरण के प्रति उसके समंजन का स्वरूप निर्धारित करता है। व्यक्तित्व के विकास में सांस्कृतिक वातावरण का विशेष योग रहता है।

2. सांस्कृतिक निर्धारक- वातावरण व्यक्ति तथा समाज दोनों को प्रभावित करता है। शिक्षा, सांस्कृतिक निर्धारकों का विश्लेषण एवं व्याख्या, दोनों करती है। डॉ० जायसवाल के अनुसार-“शिशुओं और बालकों को उन सामाजिक तथा सांस्कृतिक रीतियों, जीवन मूल्यों आदि को महण करना पड़ता है, जो उन्हें सुरक्षा प्रदान करते हैं। इस प्रकार प्रत्येक संस्कृति में यह व्यवस्था होती है कि श्रेष्ठ व्यक्तियों द्वारा शिशुओं तथा बालकों को सांस्कृतिक शिक्षा प्रदान की जाये, जिससे कि वे अपनी संस्कृति के अनुसार जीवन व्यतीत कर सकें।”

3. देश, काल, समाज की शिक्षा- संस्कृति हमें देश की परिस्थितियों, समाज और समय की धारा के अनुरूप चलने और जीवन-यापन की शिक्षा प्रदान करती है। शिक्षा संस्कृति और व्यक्तित्व मुख्य बात यह है कि शिक्षा, व्यक्तित्व और संस्कृति के विकास का महत्वपूर्ण साधन है। हमें इनमें ये तत्व दिखाई देते हैं-

  1. प्रत्येक संस्कृति में मानव मूल्यों एवं जीवन की शिक्षा दी जाती है,
  2. व्यक्ति को सांस्कृतिक विघटन से बचाने के लिए सांस्कृतिक मूल्यों की शिक्षा देना जरूरी है।
  3. शिक्षा ही सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाती है।
  4. शिक्षा, संस्कृति तथा व्यक्तित्व एक त्रिभुज के समान हैं।

इसीलिए संस्कृति और शिक्षा का महत्व अत्यधिक है, क्योंकि प्रत्येक समाज में जीवन शैली और संस्कृति को सामाजिक संरचना का प्रमुख अंग माना जाता है।

संस्कृति का शिक्षा पर प्रभाव

संस्कृति का शिक्षा पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति को विकसित करने में संस्कृति का विशेष हाथ रहता है। आलपोर्ट के अनुसार-“व्यक्तित्व व्यक्ति के अन्दर वह गतिशील और मन शारीरिक प्रणालियों का संगठन है, जो पर्यावरण, के प्रति उसके समंजन का स्वरूप निर्धारित करता है।” संस्कृति इसमें योग देती है। संस्कृति का शिक्षा पर प्रभाव इस प्रकार पड़ता है-

  1. संस्कृति मनुष्य को अपने प्राकृतिक पर्यावरण में समायोजन करने योग्य बनाती है।
  2. संस्कृति मनुष्य को अपने सामाजिक परिवेश में समायोजन करने योग्य बनाती है।
  3. संस्कृति मनुष्य को समायोजन के योग्य बनाती है।
  4. संस्कृति व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करती है।

संस्कृति और शिक्षा

उक्त प्रभावों को देखते हुए संस्कृति की शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम आदि का विशेष महत्व है-

1. शिक्षा के उद्देश्य – संस्कृति की शिक्षा के उद्देश्यों में सांस्कृतिक विरासत का अधिग्रहण, मूल्यों, मान्यताओं का अनुपालन संक्रमण आदि है।

2. पाठ्यचर्या – पाठ्यचर्या में वे सभी प्रकरण लिए जाते हैं, जिनका ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक महत्व होता है। भारत में वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण तथा महाभारत आदि सांस्कृतिक पक्ष हैं।

3. शिक्षण विधियाँ – शिक्षण विधियों में स्पष्ट ज्ञान तथा उसके उपयोग के अनेक साधन अपनाए जाने चाहिए।

4. शिक्षक तथा शिक्षार्थी – शिक्षक संस्कृति का संवाहक होता है। वह शिक्षार्थी को देशकाल की संस्कृति से परिचित कराता है।

5. विद्यालय – विद्यालयों में संस्कृति का संरक्षण तथा हस्तान्तरण होता है।

शिक्षा भी संस्कृति को प्रभावित करती है। यह प्रभाव इस प्रकार हैं-

  1. शिक्षा संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित करती है
  2. शिक्षा संस्कृति का संरक्षण करती है।
  3. शिक्षा संस्कृति का विकास करती है।
  4. शिक्षा से उदार दृष्टिकोण का विकास होता है।

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Anjali Yadav

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