शिक्षा के उद्देश्यों का वर्णन कीजिए। व्यक्ति तथा समाज के कल्याण के लिए आप किस उद्देश्य पर वल देंगे ?
शिक्षा के उद्देश्यों के निर्धारण में शिक्षाशास्त्रियों में मतभेद रहा है। यह मतभेद आज का नहीं, प्राचीन काल से ही चला आ रहा है। अरस्तू के अनुसार- “इस विषय में हम एक मत नहीं हैं कि बालक को क्या सीखना चाहिये” ? as to what the child should learn.” – Aristotle) रॉस (Ross) ने भी इसी ओर ( There is no agreement संकेत करते हुये कहा है-“दुर्भाग्य से यह कथन अपनी जगह सही है कि इन मौलिक प्रश्नों का कोई सर्वमान्य उत्तर नहीं है।”
सवाल यह है कि शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित करने की आवश्यकता क्यों है ? औपचारिक शिक्षा का विधान पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियों, शिक्षा प्रक्रिया का सुचारु रूप से संचालन, उत्साह में वृद्धि, समय और शक्ति का सदुपयोग तथा शिक्षा के उद्देश्यों की आवश्यकता पर बल देता है।
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जीवन एवं समाज के आदर्श (Life and Ideals of Society)
पाल एच० हैन्स (Paul H. Hans) के शब्दों में- “शिक्षा का उद्देश्य जीवन की तैयारी है। पूर्णता में जीवन व्यतीत करने का अभिप्राय यथा-सम्भव समाजोपयोगी एवं अपने को सुखी बनाना है। उपयोगिता का अर्थ सेवा करना होता है। अथवा कोई भी ऐसा कार्य जो मानव जाति को भौतिक अथवा आध्यात्मिक उन्नति में से एक अथवा दोनों में सहायक हो सके, उपयोगिता के अन्तर्गत माना जाता है।” इस कथन से स्पष्ट है कि वही उद्देश्य उपयोगी होता है, जो जीवन एवं समाज के आदर्शों को प्राप्त करने में सहायक होता है।
प्रश्न उठता है कि जीवन तथा समाज के आदर्श क्या हैं ? क्या ये एक-दूसरे के विरोधी हैं अथवा एक-दूसरे के पर्याय हैं। उद्देश्यहीनता जीवन में हो तो वह समाज को भी दिशाहीन बना देती है। अत: जीवन तथा समाज के आदर्शों से शिक्षा के उद्देश्यों का सम्बन्ध इस प्रकार है-
1. जीवन तथा समाज को दिशा देना- शिक्षा के उद्देश्य मानव को दिशा प्रदान करते हैं। मनुष्य का चरम लक्ष्य क्या है, शिक्षा के उद्देश्य, उसे उस चरम लक्ष्य की ओर पहुँचाने में विशेष योग देते हैं। सभी युगों में महान विचारकों ने जीवन के उद्देश्यों को निर्धारित किया और शिक्षा के माध्यम से उन उद्देश्यों को प्राप्त करने में प्रयास किया।
2. मानव-जीवन तथा व्यवहार की जटिलता को समझना- मनुष्य का जीवन और उसका व्यवहार ही इस संसार को गति प्रदान करता है। आज के युग में जटिलताओं के विकसित हो जाने के कारण, मनुष्य के व्यवहार को समझना अत्यन्त जटिल कार्य हो गया है। शिक्षा के उद्देश्यों के द्वारा मानव व्यवहार की जटिलताओं को समझने तथा उसे सरल एवं हल करने में विशेष सहायता मिलती है।
3. औपचारिक शिक्षा- शिक्षा के उद्देश्य, व्यक्ति को औपचारिक रूप से शिक्षा प्रदान करते हैं। इनके द्वारा व्यक्ति में उन गुणों तथा शक्तियों का विकास होता है, जिनसे व्यक्ति को जीवन यापन करने तथा समाज में समायोजित रूप से रहने के अवसर प्राप्त होते हैं।
4. सर्वांगीण विकास= शिक्षा के उद्देश्य, व्यक्ति में उन गुणों तथा क्षमताओं को विकसित करते हैं, जिनके द्वारा उसका सर्वांगीण विकास सम्भव है। शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक, नैतिक एवं सामाजिक विकास के सन्तुलन से व्यक्ति पूर्ण मानव बनता है।
5. उत्साहवर्धन- शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को आगे बढ़ने, प्रगति करने की प्रेरणा मिलती है। यह प्रेरणा उसका उत्साह बढ़ाती है। व्यक्ति अधिक तन्मय होकर अपने कार्य सम्पन्न करता है, उसमें कौशल अर्जन की निपुणता विकसित होती है।
6. सांस्कृतिक हस्तांतरण-शिक्षा के उद्देश्य अनादि काल से मानव संस्कृति का संरक्षण करते रहे हैं। सामाजिक आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक मूल्य हमें सांस्कृतिक विरासत में मिलते हैं। हमारा इतिहास तथा संस्कृति हमारी पहचान बनाते हैं। यह पहचान पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती है। शिक्षा का उद्देश्य इस सांस्कृतिक हस्तांतरण को सम्भव करता है। शिक्षा के उद्देश्यों द्वारा हमारी संस्कृति की पहचान बनती है। यदि सामाजिक परिवर्तन के कारण कोई परिवर्तन होता है तो वह सांस्कृतिक निलम्बन (Cultural Leg) के रूप में प्रकट होता है।
7. श्री वृद्धि- मानव जीवन का उद्देश्य, श्री अर्थात् वैभव की प्राप्ति करना है। व्यक्ति तथा समाज, दोनों ही वैभवशाली होने से राष्ट्र विश्व में पहचान बनाता है। इसलिये शिक्षा के उद्देश्य, व्यक्ति तथा समाज के जीवन में वैभव की वृद्धि करने में सहायता देते हैं।
8. समाज व्यवस्था के साथ अनुकूलन- समाज व्यवस्था जिस प्रकार की होती है, उसी प्रकार के शिक्षा के उद्देश्य बनते है। पूँजीवाद व्यवस्था का आधार यदि लोकतान्त्रिक है तो वहाँ पर शैक्षिक उद्देश्य व्यक्ति तथा समाज, दोनों के संतुलित विकास पर बल देंगे। समाजवादी समाज में शिक्षा, व्यक्ति को समाजोपयोगी बनाने पर बल देती है। मिश्रित व्यवस्था वाले समाजों में व्यक्ति तथा समाज, दोनों के हितों के विकास के लिये शिक्षा के उद्देश्य निर्धारित किये जाते हैं।
9. जीवन से सम्बन्ध– शिक्षा के उद्देश्य व्यक्ति के जीवन से इस प्रकार सम्बन्धित हैं- (1) व्यक्तित्व के संतुलित विकास के लिये, (2) सर्वांगीण विकास हेतु, (3) जीवन की पूर्णता के लिये, (4) स्वयं को जानने के लिये, (5) भविष्य के निर्माण के लिये, (6) समायोजन के लिये (7) उचित निर्णय के लिये, (8) जीवन की कठिनाइयों पर नियन्त्रण करने तथा विजय प्राप्त करने के लिये।
10. समाज के आदर्शों से सम्बन्ध- शिक्षा के उद्देश्यों का सम्बन्ध समाज के आदर्श, आकांक्षा तथा स्तर से होता है। भौतिकवादी समाज में नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास पर बल नहीं दिया जाता, जबकि आदर्शवादी समाज में नैतिकता तथा चरित्र महत्वपूर्ण शैक्षिक उद्देश्य हैं। प्रयोगवादी समाज में उपयोगिता पर बल दिया जाता है तो फासिस्ट समाज में राज्य को प्राथमिकता दी जाती है। समाजवादी समाज में व्यक्ति एक पदार्थ वन जाता है और प्रजातन्त्र में सर्व-कल्याण की कामना की जाती है।
कुल मिलाकर स्थिति यह है कि शिक्षा के उद्देश्य मानव जीवन को सुखी बनाने तथा सामाजिक आदर्शों को प्राप्त करने में विशेष योग देते हैं। मानव मूल्यों तथा सामाजिक आदर्शों को गति, मानदण्ड तथा आधार देने का काम करते हैं।
शिक्षा के उद्देश्यों के आधार
शिक्षा के उद्देश्य, मनुष्य तथा समाज, दोनों को दिशा प्रदान करते हैं। व्यक्ति तथा समाज, दोनों ही कुछ आधारों पर शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित करते हैं। शिक्षा के उद्देश्यों की निर्माण प्रक्रिया अनेक आधारों पर विकसित होती है। मुख्य आधार इस प्रकार हैं-
1. दार्शनिक आधार- शिक्षा के उद्देश्यों का निर्माण दार्शनिक आधारों पर होता है। आदर्शवाद, प्रकृतिवाद, प्रयोजनवाद तथा यथार्थवाद अपने-अपने ढंग से शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण करते हैं। दर्शन जीवन को आदर्श प्रदान करता है। यह दार्शनिक आदर्श जीवन तथा समाज की दिशा को निर्धारित करता है। आदर्श, सर्वव्यापी एवं सार्वभौम होते हैं। सांस्कृतिक सुरक्षा तथा विकास, चिरन्तन मूल्यों की स्थापना में दार्शनिक आधार विशेष योग देते हैं।
2. समाजशास्त्रीय आधार- शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित करने में समाज की जीवन शैली, सामाजिक मूल्य, सामाजिक एवं आर्थिक दशा में भी योग देते हैं। माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार- “छात्रों को इस प्रकार चारित्रिक प्रशिक्षण प्रदान करना चाहिये, जिससे वे प्रजातान्त्रिक सामाजिक व्यवस्था में रचनात्मक ढंग से भाग ले सकें तथा उनकी व्यावहारिक एवं व्यावसायिक क्षमता का विकास होए जिससे वे देश को आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बनाने में योगदान दे सकें।”
3. मनोवैज्ञानिक आधार- ये वैयक्तिक मूल्यों के आधार पर भी शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित करते हैं। जब से व्यवहार विज्ञानों (Behavioural Sciences) में प्रगति हुई है, तब से शिक्षा के आधार मनोवैज्ञानिक हो गये हैं। शिक्षा पहले अध्यापक केन्द्रित थी, मनोवैज्ञानिक आधारों ने उसे बाल-केन्द्रित बनाया। शिक्षा को वांछित दिशा प्रदान करने में मनोवैज्ञानिक आधारों ने विशेष योग दिया है।
4. वैज्ञानिक आधार- वैज्ञानिक विकास के कारण जीवन पर भी प्रभाव पड़ता है। अन्धविश्वास को दूर करने में भी वैज्ञानिक आधारों पर उद्देश्य निर्धारित होते हैं। वैज्ञानिक विकास में मनुष्य को यथार्थवादी बनाया है। चाँद की कल्पना में खोने वाला कवि आज विज्ञान के पंख पर बैठ कर पाद तक पहुंचता है। चाँद की यथार्थता उसे ज्ञात होती है। कार्य-कारण सम्बन्धों ने मनुष्य को वैज्ञानिक चिन्तन दिया है। इसी से उसे यथार्थवादी आधार प्राप्त होते हैं।
अतः शिक्षा का सर्वमान्य उद्देश्य क्या हो, यह कहना कठिन है। जॉन डी० वी० ने शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण करने वाले तीन आधारभूत तथ्य बताये हैं-
(i) अच्छे उद्देश्य वास्तविक परिस्थितियों के आधार पर, देश, काल और परिस्थिति से सम्बन्धित हों।
(ii) उद्देश्यों में समय तथा परिस्थिति के अनुसार लचीलापन अवश्य होना चाहिये। यदि शिक्षा का कोई उद्देश्य समय की मांग पूरी नहीं करता तो वह अच्छा नहीं है।
(iii) अच्छे उद्देश्यों की प्राप्ति की प्रक्रिया सरल होती है। मानव शक्तियों को उसमें स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयुक्त होने का अवसर मिलता है।
अतः शिक्षाशास्त्रियों को इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि शिक्षा के उद्देश्य हमारी आवश्यकता की पूर्ति करने वाले हों।
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