राजनीति विज्ञान / Political Science

भारत में लोक सेवाओं की भूमिका एंव विशेषताएँ

भारत में लोक सेवाओं की भूमिका एंव विशेषताएँ
भारत में लोक सेवाओं की भूमिका एंव विशेषताएँ

भारत में लोक सेवाओं की भूमिका व विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

भारत में लोक सेवाओं की उत्पत्ति एवं विकास ब्रिटिश शासन काल के दौरान हुआ । स्वतंत्रता के पश्चात् उन सेवाओं का पूरी तरह से भारतीयकरण किया गया और उन्हें संशोधित रूप में अपनाया गया। केवल नीति निर्धारण करने वाले नेतृत्व में तो परिवर्तन आया, लेकिन कार्यपालिका का अधिकारी तंत्र वही रहा। ब्रिटिश कालीन प्रशासनिक व्यवस्था को बनाए रखने के पीछे तर्क यह दिया गया कि इस प्रशासनिक संरचना एवं प्रक्रिया की भारतवासियों को आदत पड़ चुकी है। इसलिए यह व्यवस्था सहम एवं सुगम्य है।

लोक सेवाओं की विशेषताएँ (Features of Public Services)

भारत में लोक सेवाओं की निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं-

(i) लोक सेवाओं की ब्रिटिश विरासत के कारण भारत की लोक सेवाएँ ब्रिटिश कालीन लोक सेवा के गुण-दोषों से भी युक्त रही है।’

(ii) भारत में लोक सेवाएँ कुलीन एवं अभिजात्य स्वरूप की हैं। यह उच्च कुलीन वर्ग स्वयं को आम जनता से पृथक एवं ऊपर समझता है तथा उसी प्रकार व्यवहार करता है। इस अभिजात्य वर्ग की मानसिकता लोक सेवकों में निरन्तर बनी हुई है।

(iii) भारत में लोक सेवाएँ सामानज्ञ’ स्वरूप में विकसित हुयी हैं। भारत में ब्रिटिश काल के दौरान लोक सेवाओं का उद्देश्य शान्ति एवं कानून व्यवस्था बनाए रखते हुए अधिक से अधिक राजस्व एकत्रित करना था। इस कार्य के लिए किसी विशेषज्ञ की आवश्यकता नहीं थी। अतः ब्रिटिश सरकार ने विशेषज्ञों की ओर ध्यान नहीं दिया जिससे लोक सेवाओं में विशेषज्ञों की भर्ती नहीं हो पायी और न ही विकास हो सका। इस परम्परा का अनुपालन स्वतंत्र भारत में भी हो रहा है।

(iv) भारत में लोक सेवाएँ तटस्थ स्वरूप के रूप में विकसित हुयी है। नौकरशाही को सरकार के स्वरूप में परिवर्तन से कुछ लेना देना नही होता है।

(v) लोक सेवकों की सेवा की पहली शर्त शासन के प्रति प्रतिबद्ध एवं वफादारी है। प्रत्येक लोक सेवक का यह कर्तव्य हैं कि वह सदैव सरकार के प्रति वफादार बना रहेगा।

(vi) भारतीय सामाजिक स्तरीकरण से व्याप्त सामाजिक विषमताओं एवं सामाजिक अन्याय को दूर करने के लिए संविधान निर्माताओं ने संविधान में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए लोक नियोजन में विशेष प्रावधान करने के लिए सरकार को अधिकृत कर दिया। सरकार ने जनसंख्या के आधार पर लोक नियोजन में सामाजिक एवं शैक्षणिक वर्गों (अनुसूचित जाति, जनजाति एवं अन्य पिछड़े वर्गों) के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर दी है, जो आज भी जारी है।

इस आरक्षण व्यवस्था से लोक सेवाओं का अभिजनवादी स्वरूप समाप्त हो गया है। स्वतंत्रता के पचास से अधिक वर्षों में लोक सेवाओं में एक बड़ी संख्या में व्यक्ति पिछड़े वर्गों या जातियों से आ गये हैं। इसके साथ ही मध्यम वर्ग के प्रत्याशी भी लोक सेवाओं में आ रहे हैं।

इन आरक्षित वर्गों से जहाँ अभिजनवादी स्वरूप समाप्त हुआ है, वहीं लोक सेवकों के दो वर्ग बन गये हैं- एक आरक्षित वर्ग एवं अनारक्षित वर्ग, जिससे लोक सेवाओं की एकबद्धता समाप्त हो गई है। लोक सेवाओं की भूमिका एवं कार्य (Role and Functions of Public Services) – स्वतंत्र भारत में लोक सेवाओं के उद्देश्य कार्यप्रणाली में अन्तर आ गया, क्योंकि भारत सरकार के उद्देश्य एवं स्वरूप में परिवर्तन हो रहा है। ब्रिटिश सरकार के उद्देश्य राजस्व एकत्रित करना एवं कानून व्यवस्था बनाए रखने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण उद्देश्य भारत सरकार ने निर्धारित किए हैं। स्वतंत्र भारत की सरकार का उद्देश्य कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना हैं।

भारत में लोक सेवाओं के कार्य एवं भूमिका

भारत में लोक सेवाओं के कार्य एवं भूमिका का वर्णन निम्नलिखित है-

(i) भारत का चहुँमुखी विकास करना लोक सेवकों का प्रथम उद्देश्य है। लोक सेवाकों को इस कठिन और चुनौती पूर्ण कार्य को पूरा करने के लिए स्वयं में परिवर्तन करना होगा ।

(ii) ब्रिटिश काल में ब्रिटिश शासकों के सेवक एवं जनता के ‘मालिक’ कहे जाने वाले अधिकारियों की इस प्रवृत्ति को बदलना पड़ा। अब अधिकारी जनता के ‘मालिक’ न होकर ‘सेवक’ की भावना से कार्य करेंगे, तभी सरकार एवं संविधान के लक्ष्य को पा सकेंगे।

(iii) स्वतंत्रता से पूर्व लोक सेवकों की प्रकृति एवं प्रवृत्ति आदेशकारी, बचावकारी, दमनकारी एवं नकारात्मक थी। जनता पर शासन करने के लिए उसकी भावनाओं, आवश्यकताओं की उपेक्षा करते हुए सरकार के हित में केवल आदेश एवं निर्देश दिये जाते थे, जिनका कड़ाई से पालन कराया जाता था। स्वतंत्र भारत में परिस्थितियाँ बिल्कुल बदल गयीं है। वर्तमान में जनता की भावनाओं, आकांक्षाओं एवं आवश्यकताओं का ध्यान रखना लोक सेवकों का प्रथम कर्तव्य है।

(iv) स्वतंत्र भारत में नौकरशाही के राजनीतिक रूप से तटस्थता के सिद्धान्त को सैद्धान्तिक रूप से अपनाया गया है। लेकिन भारतीय राजनीति सामाजिक जातीयकरण और आरक्षण के कारण लोक सेवकों में जातीयकरण के परिणामस्वरूप लोक सेवक वर्तमान में तटस्थ नहीं रह गये हैं। वह राजनीतिक दलों के प्रति परोक्ष रूप से प्रतिबद्ध हो गये हैं। सत्ता में राजनीतिक दल के बदलते ही प्रशासनिक अधिकारियों के बड़े पैमाने पर किए गये स्थानान्तरण इसका जीवन्त प्रमाण है।

सरकार के प्रति प्रतिबद्ध यह नौकरशाही सरकार के नीति निर्माण से लेकर नीति कार्यान्वयन तक सक्रिय रूप से भागीदार होती है।

(v) स्वतंत्र भारत की राजनीतिक व्यवस्था में सामाजिक, आर्थिक परिवर्तन से लोक सेवकों के समक्ष अनेक चुनौतियाँ बढ़ रही हैं। उनके कार्य का क्षेत्र विस्तृत हो गया है, जिससे उत्तरदायित्व भी बढ़ गया है। अतः लोक सेवकों को इन चुनौतियों से निपटने में और सक्षम बनाना होगा।

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Anjali Yadav

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