शिक्षा में विद्यालय संगठन की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
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शिक्षा में विद्यालय संगठन की भूमिका | Role of school organization in education
विद्यालय का कार्य किसी एक ही व्यक्ति द्वारा संचालित नहीं किया जा सकता। विद्यालय में छात्र, अध्यापक, प्रधानाचार्य एवं अन्य कर्मचारी, संरक्षक अधिकारी सभी व्यक्ति अपना स्थान रखते हैं। विद्यालय तो इन सभी व्यक्तियों के विचारों का समूह होता है। विद्यालय की विभिन्न प्रकार की भूमिकाओं के सम्बन्ध में, विद्वानों ने अलग-अलग ढंग से विचार किया है, इस सम्बन्ध में कुछ विचारकों तथा उनके द्वारा विद्यालय का स्वरूप निम्न प्रकार निर्धारित किया गया है-
विचारक | विद्यालय संगठन का रूप |
1. वेबर तथा मेयो (Webber & Mayo) | 1. विद्यालय एक नौकरशाही संगठन के रूप में (The School as a Bureaucratic organization) |
2. 2. पार्सन्स तथा एडवर्ड शिल्ज (T. Parsons & E.Shils) | 2. विद्यालय एक प्राणाली के रूप में (The School as a system) |
3. जै० कैली (J. Kelly) | 3. विद्यालय एक संयुक्त संगठन के रूप में (The School as a Complex organization) |
4. साइमन तथा अन्य (Simon & others) | 4. विद्यालय एक सामाजिक प्राणाली के रूप में (The School as a Social system) |
5. हेथार्न तथा पीटर ड्यूकर (Hawthorne & Piter Duker) | 5. विद्यालय एक सामाजिक तथा राजनीतिक संगठन के रूप में (The School as a Socio-Political system) |
प्रत्येक विद्यालय को अपने सभी कार्यों का निर्वाह, समाज में रहकर ही करना पड़ता है। विद्यालय की उन्नति अवनति तथा अच्छाई-बुराई की चर्चा समाज में सर्वत्र की जाती है। अनेक व्यक्ति, विद्यालय के सम्बन्ध में बातें अवश्य किया करते हैं। विद्यालयों के प्रधानाचार्यों, अध्यापकों, छात्रों आदि के सम्बन्ध में, समाज के व्यक्तियों का एक विशेष प्रकार का मत बन जाता है। स्वीकार करना होगा कि समाज के व्यक्तियों की टीका टिप्पणी, किसी भी विद्यालय की छवि को निखारने अथवा बिगाड़ने में अपना स्थान अवश्य रखती है। विद्यालय संगठन पर भी समाज का प्रभाव पड़ता ही है। समाजशास्त्रियों ने विद्यालय संगठन को निम्न विभिन्न रूपों में देखने का प्रयास किया है-
1. विद्यालय एक संयुक्त संगठन (School as a Complex Organization) – ‘कैली’, ‘आर्थर मोलमन’ आदि विद्वानों ने विद्यालय को मिश्रित या संयुक्त संगठन के रूप में स्वीकार किया है। अंग्रेजी भाषा के ‘Complex’ शब्द का अर्थ ‘Consisting of parts’ होता है। यह ‘कॉम्पलैक्स’ शब्द हिन्दी भाषा के मिश्रित या संयुक्त का पर्याय है। मिश्रित या संयुक्त का अर्थ भी उस व्यवस्था को बतलाता है, जिसमें एक के साथ कुछ अन्य भाग भी मिले हुए हों। इस दृष्टि से यदि विद्यालय के सम्बन्ध में विचार किया जाए तो विद्यालय भी एक ‘मिश्रित संगठन’ प्रतीत होता है।
विद्यालय सचमुच एक ऐसी इकाई होती है, जिसके प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप औपचारिक तथा अनौपचारिक रूप में अनेक भाग होते हैं। विद्यालय संगठन के अन्तर्गत प्राचार्य, अध्यापक, छात्र आदि प्रत्यक्ष रूप में भाग लेते हुए दिखाई देते हैं। समाज की परिस्थितियों का परोक्ष प्रभाव भी, विद्यालय पर अवश्य होता है। कक्षा भवनों में अध्यापक परिश्रमपूर्वक अपने छात्रों को पाठ्यक्रम सम्बन्धी सामग्री का ज्ञान कराते हैं, किन्तु कभी-कभी प्रधानाचार्य द्वारा आमन्त्रित समाज के सम्मानित व्यक्ति भी विद्यालय में आकर प्रवचन देते हैं और छात्रों के ज्ञान में वृद्धि करते हैं। विद्यालय प्रांगण में कभी कोई राजनीतिक नेता (मन्त्री आदि) भाषण देता है, कभी कोई वयोवृद्ध दार्शनिक अथवा समाज सुधारक विद्यालय को आदर्श रूप देने के लिये प्रवचन देता है, कभी कोई योगासनों में प्रवीण व्यक्ति, छात्रों के शरीर तथा मस्तिष्क को पुष्ट बनाने के लिए आकर्षक प्रदर्शन करता है। वास्तव में, इन सभी व्यक्तियों की विद्यालय में नियुक्ति नहीं होती, ये व्यक्ति परोक्ष में रहते हुए भी विद्यालय संगठन को प्रभावयुक्त बनाने में सहायक होते हैं। सारांश में कहा जा सकता है कि विद्यालय संगठन की रचना करने में दार्शनिक, समाजशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों, राजनीतिज्ञों, अर्थवेत्ताओं, शरीर-विज्ञान वेत्ताओं आदि का योगदान होता है। विद्यालय एक इकाई अवश्य है, किन्तु इसके निर्माण में अनेक तत्वों का समावेश होता है। जिस प्रकार समाज में एक ‘औषध मिश्रित संगठन’ (Medical complex) में नेत्र, हृदय, हड्डी आदि के विशेषज्ञ चिकित्सक अपने कर्तव्यों को पूरा करते हैं; उसी प्रकार ‘मिश्रित विद्यालय संगठन में भी अनेक प्रकार के व्यक्ति अपने कार्यों का निर्वाह करते हैं। इस प्रकार मिश्रित संगठन में सभी का सहयोग, सराहनीय समझा जाता है।
विद्यालय संगठन के संयुक्त या मिश्रित स्वरूप के सम्बन्ध प्रसिद्ध विद्वान आर्थर मोलमन के अनुसार-संगठन कार्य करने की एक मशीन है, जिसमें पुर्जों के रूप में व्यक्ति, उपकरण, विचार, प्रत्यय प्रतीक, नियम, सिद्धान्त आदि स्वतन्त्र होकर तथा मिश्रित रूप में कार्य करते हैं।”
उपर्युक्त कथन के अतिरिक्त विद्यालय को मिश्रित संगठन कहने वाले जे० कैली (J. Kelly) के अनुसार-विद्यालय का वातावरण सभी सामाजिक गतिविधियों से प्रभावित होता है तथा अन्य औपचारिक संगठनों के समान, विद्यालय संगठन का सम्बन्ध, उसके रचना सम्बन्धी कार्यो, प्रबन्धकीय तथा सभी मानवीय एवं भौतिक साधनों को संयुक्त रूप में निर्देशन प्रदान करना होता है।”
वस्तुतः, विद्यालय में अनेक व्यक्ति मिलकर अपना कार्य करते हैं। विद्यालय की अर्थव्यवस्था, क्रीड़ा, व्यवस्था, भवन निर्माण, चिकित्सा, पाठ्येतर क्रिया, सामुदायिक कार्य आदि में प्रधानाचार्य, शिक्षक, छात्र, कार्यालय, व्यक्ति, संरक्षक तथा अधिकारीजन सभी सहयोग करते हैं। इन सभी का आपस में सम्बन्ध होता है। एक व्यक्ति की विचारधारा का दूसरे पर प्रभाव पड़ता है। सभी व्यक्तियों के मिले-जुले प्रयासों से विद्यालय की उन्नति होती है। विद्यालय की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि दशाओं में भी अनेक व्यक्तियों का योगदान होता है। विद्यालय, एक मिश्रित संगठन के रूप में अपने लक्ष्यों की प्राप्ति करता रहता है।
2. विद्यालय एक नौकरशाही के रूप में (The School as a Bureaucratic Organization) – प्रशासन के क्षेत्र में ‘नौकरशाही’ तन्त्र का भी एक प्रमुख स्थान होता है। जर्मन समाजशास्त्री ‘वेबर’ (Weber) ने तो कहा है कि नौकरशाही अर्थात् कर्मचारियों से सम्बन्धित प्रशासन तथा संगठन ही अधिक सफल होता है। विद्यालय के वातावरण को देखने से यही ज्ञात होता है कि विद्यालय के सम्बन्ध में प्रधानाध्यापक, प्रबन्धक, शिक्षक एवं छात्रों को विद्यालय की सूक्ष्म बातों का इतना अधिक ज्ञान नहीं होता, जितना कार्यालय के कार्णिकों तथा कार्यालय अधीक्षकों को होता है। विद्यालय की दशा को उन्नत बनाने में कार्यालय के व्यक्तियों की उपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि विद्यालय की उन्नति अवनति एवं सभी कर्मचारियों के कार्यों का लेखा-जोखा कार्यालय में ही होता है। शिक्षा विभाग तथा सरकार से अनेक बातों में जो लिखित कार्यवाही की जाती है, उसका लेखा-जोखा (Record) भी कार्यालय के कर्मचारी ही रखते हैं। विद्यालय के प्रधानाचार्य एवं शिक्षकों के स्थानान्तरण से विद्यालय के वातावरण पर अधिक प्रभाव नहीं होता, किन्तु कार्यालय से सम्बन्धित किसी भी कर्मचारी की अनुपस्थिति विद्यालय के दैनिक कार्यों की गति में भी रुकावट उत्पन्न कर देती है। विद्यालयों में पद क्रमबद्धता (Hierarchy) का प्रचलन भी नौकरशाही तन्त्र को दृढ़ बनाने में सहायक होता है। शिक्षा विभाग में यह तन्त्र इस प्रकार देखा जाता है-
शिक्षाधिकारी वर्ग | कार्यालय सम्बन्धी वर्ग |
निदेशक ↓ उप निदेशक ↓ जिला विद्यालय निरीक्षक ↓ प्रधानाध्यापक ↓ शिक्षक ↓ छात्र |
शिक्षा सचिव
↓ निदेशालय के कार्यालय अधीक्षक एवं अन्य सहायक कार्णीक ↓ उपनिदेशक कार्यालय अधीक्षक एवं अन्य सहायक कार्णीक ↓ जिला विद्यालय निरीक्षक कार्यालय अधीक्षक एवं अन्य सहायक कार्णीक ↓ विद्यालयों के वरिष्ठ कार्णीक ↓ विद्यालय के अन्य कार्णीक एवं कर्मचारी |
शिक्षा विभाग के कार्य विभाजन की दृष्टि से, उपर्युक्त वर्गीकरण में, कुछ अन्य कर्मचारियों को भी सम्मिलित किया जा सकता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि शिक्षा के क्षेत्र में और विद्यालयों में यह नौकरशाही तन्त्र अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यहाँ स्थानाभाव के कारण इसके गुण-दोषों पर विचार नहीं किया जा रहा है, केवल नौकरशाही संगठन को समझाने का ही प्रयास किया गया है।
3. विद्यालय एक सामाजिक तथा राजनीतिक संगठन के रूप में (The School as a Socio-Political System)- विद्यालय को एक सामाजिक तथा राजनीतिक संगठन के रूप में समझने का प्रयास सर्वप्रथम ‘हेथार्न तथा पीटर ने किया। विद्यालय के बाह्य प्रभावकारी तत्वों में जहाँ दार्शनिक तथा नैतिक तत्वों की मान्यता है, वहाँ ‘सामाजिक’ एवं ‘राजनीतिक’ तत्वों को भी मुख्य रूप में समझा जाता है। विद्यालय पर समाज का प्रभाव अवश्य पड़ता है। विद्यालय को समाज का लघु रूप कहा जाता है। इसका कारण भी यही है कि समाज की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला विद्यालय ही अधिक लोकप्रियता प्राप्त करता है। विद्यालय की प्रबन्धकारिणी समिति में भी समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति होते हैं। इन व्यक्तियों का उद्देश्य अपने विद्यालय को अधिक सामाजिक बनाने का होता है। शिक्षक भी विद्यालय में पढ़ाने के अतिरिक्त समाज के व्यक्तियों से सम्बन्धित होते हैं। विद्यालयों की अनेक वार्षिकोत्सव, क्रीड़ा, नाटक, कवि सम्मेलन, विचार मंच आदि क्रियाओं में, सम्पूर्ण विद्यालय को एक सामाजिक संगठन के रूप में ही कार्य करना पड़ता है। वास्तव में, विद्यालय की शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य छात्रों को, सामाजिक सम्बन्धों में उत्तम नागरिक बनाना है। यही कारण है कि समाज की अनेक कुरीतियों, जैसे दहेज प्रथा उन्मूलन, अस्पृश्यता निवारण, साक्षरता आन्दोलन, सामाजिक सेवा (N. S. S.) एवं समाज में आकस्मिक उत्पन्न संकटकालीन परिस्थितियों यथा भीषण अकाल, अनावृष्टि, बाढ़, अग्निकांड, युद्ध विभीषिका आदि में विद्यालयों का योगदान समाज के अन्य सामाजिक संगठनों की भाँति महत्वपूर्ण ही होता है। ऐसे अवसरों पर विद्यालयों को बन्द करके छात्रों तथा शिक्षकों को सामाजिक कार्यों में भाग लेने के लिए उत्साहित किया जाता है।
विद्यालय, राजनीतिक संगठन के रूप में प्रभावशील होते हैं। देश की सम्पूर्ण शिक्षा में सरकारी एवं गैर-सरकारी दोनों प्रकार के विद्यालयों की भूमिका होती है। प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर की शिक्षा में सरकारी तथा गैर-सरकारी संगठन कार्य करते हैं। सरकारी अर्थात् राजकीय विद्यालयों में सरकारी आदेशों का पालन शीघ्रमेव होता है। इन विद्यालयों का तन्त्र तथा वातावरण तथा कर्मचारियों की सेवा के नियम आदि सरकारी कर्मचारियों के समान ही होते हैं। सरकारी अधिकारियों के अतिरिक्त, इन विद्यालयों के शिक्षकों पर अन्य किसी राजनीतिक संगठन का प्रभाव नहीं देखा जाता। गैर-सरकारी अर्थात् अराजकीय विद्यालयों में अनेक राजनीतिक संगठनों का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। डी० ए० वी०, सनातन धर्म, गुरु नानक, तेगबहादुर, इस्लामिया, महावीर सदन, सेण्टमेरी, सोफिया आदि नाम वाले विद्यालयों में आर्य समाज, सनातन धर्म, सिक्ख, मुस्लिम, जैन, ईसाई आदि धर्मों की राजनीति का ही प्रभाव होता है। इनके अतिरिक्त भी प्राथमिक एवं पूर्व प्राथमिक विद्यालयों ‘सरस्वती शिशु मन्दिर, शिक्षा सदन, होली चिल्ड्रेन होम’ आदि अनेक संस्थाएँ, ऐसी होती हैं, जिनमें उन संस्थाओं के संस्थापक, अपनी विचारधाराओं को ही थोपने का प्रयास करते हैं। राजनीति के कुशल खिलाड़ी तो विद्यालयों की स्थापना, अपने राजनीतिक उद्देश्य को पूरा करने के लिए ही करते हैं। इस प्रकार राजनीतिक प्रभाव से विद्यालयों को बचाना, एक कठिन कार्य प्रतीत होता है।
उपर्युक्त राजनीतिक प्रभाव के अतिरिक्त छात्र विद्यालयों में निर्मित छात्र परिषदों एवं विभिन्न कार्यों की समितियों में रहकर भी राजनैतिक प्रशिक्षण प्राप्त कर लेते हैं। छात्र परिषदों के चुनावों में प्रत्याशी के रूप में खड़े होकर, चुनाव प्रक्रिया को समझकर तथा शिक्षक वर्ग के साथ विद्यालय की विभिन्न क्रियाओं में भाग लेकर, छात्र राजनीति की मूल बातों को समझ जाते हैं। विद्यालयों में शिक्षक संघों, कर्मचारी संघों, प्रबन्ध समितियों के समूहों के निर्वचनों तथा उनकी गतिविधियों को भी छात्र खुली आँखों से देखते हैं। इस प्रकार धीरे-धीरे वे प्रशिक्षित होते रहते हैं। छात्र जीवन के कुशल नेता ही आगे चलकर देश तथा समाज की राजनीति में हाथ बटाते हैं। शिक्षा के अन्य उद्देश्यों के अतिरिक्त, छात्रों को कुशल नेतृत्व की शिक्षा प्रदान करने का उत्तरदायित्व विद्यालयों पर ही होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि विद्यालयों की राजनीतिक संगठन के रूप में भी प्रमुख भूमिका होती है।
4. विद्यालय एक प्रणाली के रूप में (The School as a system) – विद्यालय को प्रणाली के रूप में मानने वालों में टी० पार्सन तथा एडवर्ड शिल्ज का नाम प्रमुख है। वास्तव में, प्रणाली सिद्धान्त विभिन्न क्षेत्रों के ज्ञान को स्वीकृत करने का पक्षपाती है। यह सिद्धान्त प्रत्येक विद्यालय के लिये उपयोगी होता है। प्रणाली के सम्बन्ध में निम्नलिखित विचारकों के कथन उल्लेखनीय हैं-
(i) अनविन – प्रणाली विभिन्न अंगों का वह योग है, जो स्वतन्त्र एवं सामूहिक रूप से कार्य करते हुए, अपनी आवश्यकताओं पर आधारित, वांछित परिणामों को प्राप्त कर सके।
(ii) जोहन्स होपकिन्स – प्रणाली अन्तरक्रिया युक्त अवयवों का एक ऐसा स्वीकृत समूह है, जिसका निर्माण, पूर्वनिर्धारित कार्यों को सहयोगात्मक रूप से विकास करने के लिए किया जाता है।
विद्यालय भी एक प्रणाली के रूप में होता है। विद्यालय के अन्तर्गत शिक्षक, प्रधानाचार्य, छात्र एवं अन्य कर्मचारी अवयवों (Parts) के रूप में स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करते हैं। ये सभी अवयव अपना-अपना कार्य स्वतन्त्रतापूर्वक करते हैं, इनका एक-दूसरे से अन्तर सम्बन्ध भी होता है। इन सभी अवयवों का कार्य एक साथ मिलकर विद्यालय प्रशासन को उन्नत बनाना होता है।
5. विद्यालय एक सामाजिक प्रणाली के रूप में (The School as a Social System) – विद्यालय को आधुनिक युग में एक सामाजिक प्रणाली के रूप में देखा जाता है। ‘साइमन’, तालकोट पार्सन्स एवं अन्य प्रसिद्ध विचारकों ने विद्यालय को एक ‘सामाजिक प्रणाली’ मानकर गहन विचार किया है। किसी भी सामाजिक प्रणाली के लिए व्यक्तियों के अन्तरक्रिया सम्बन्ध की अत्यन्त आवश्यकता होती है। विद्यालय में भी कार्य करने वाले व्यक्ति अपना कार्य करते हैं तथा एक दूसरे के व्यक्तित्व से भी प्रभावित होते रहते हैं। इस सम्बन्ध में ‘बेमबेक’ के अनुसार, “विद्यालय के अन्तर्गत मानवीय अन्तरक्रिया सम्बन्ध को ही सामाजिक प्रणाली कहा जाता है।” जिस प्रकार समाज के अन्य क्षेत्रों में ‘मिश्रण अवस्था’ तथा ‘सामाजिक प्रणाली’ उपयोगी सिद्ध हुई है, उसी प्रकार सामाजिक प्रणाली शिक्षा के क्षेत्र को उन्नत बना सकेगी। इस सम्बन्ध में ‘तालकोट पार्सन्स’ का कथन भी उल्लेखनीय है-“शिक्षा को अन्य संयुक्त संगठनों की तरह तकनीकी प्रबन्धकीय एवं संस्थागत प्रणाली के मिले-जुले रूपों में ही समझा जाना चाहिए।” इसमें सन्देह नहीं कि शिक्षा का लक्ष्य तभी पूरा होता है, जब वह सभी संगठनों के साथ मिलकर चलती है।
विद्यालय को एक ‘मुक्त-प्रणाली’ (Open System) के रूप में स्वीकार किया जाता है। मुक्त प्रणाली, उसी प्रणाली को कहा जाता है, जिसके अन्तर्गत बालक नवीन ज्ञान तथा गुणों को अधिक उदारतापूर्वक सीख सके। इस प्रणाली में सीखने के क्षेत्र में पर्याप्य स्वतन्त्रता होती है। विद्यालय में भी बालक अनेक बातों को उदारतापूर्वक सीखता है। विद्यालय का सम्बन्ध, समाज की आवश्यकताओं से घनिष्ठ रूप में होता है। बालक भी विद्यालय में रहकर नवीन ज्ञान को रुचिपूर्वक सीखता है। विद्यालयों में मुक्तावस्था (Openness) या संकीर्ण अवस्था (Closed System) को नियन्त्रित रूप में ही रखा जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में ‘किम्बो’ का मत विचारणीय है-“अत्यधिक मुक्तावस्था विद्यालयों के अन्दर उपद्रव को जन्म दे सकती है तथा मुक्तावस्था की कम मात्रा विद्यालय के प्रत्ययों पर नकारात्मक प्रभाव डालती है, जिससे विद्यालय को आन्तरिक एवं बाह्य वातावरण के अनुकूल बनाने में असुविधा होती है।” ‘किम्ब्रो’ के अनुसार, किसी भी विद्यालय के सम्पूर्ण वातावरण में, उसी मात्रा तक स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए, जहाँ तक बालक अनुशासित होकर अच्छे गुणों की प्राप्ति कर सके।
विद्यालय एक सामाजिक प्रणाली के रूप में विद्यालय को ‘सामाजिक प्रणाली’ के रूप में मानने का प्रमुख कारण यह है कि बालक या किशोर, विद्यालय में रहकर, समाज की उन कुशलताओं और व्यवहारों को सीख लेता है, जिन्हें विद्यालय से बाहर, वह नहीं सीख पाता। सभी स्वीकार करते हैं कि बालक के सामाजीकरण (Socialization) में विद्यालय की मुख्य भूमिका होती है। विद्यालय बालकों को केवल शिक्षा ही नहीं देता, अपितु उन्हें स्वतन्त्र जीवन जीने के लिए भी तैयार करता है। बालक को सामाजिक कार्यों में कुशल बनाने की प्रक्रिया, वास्तव में विद्यालय, धीरे-धीरे और आत्म-विश्वास के साथ करता है। बालक घर में परिवार सदस्यों के बीच एक गोद से दूसरी गोद में जाकर अधिक सुरक्षा की अनुभूति करता है, किन्तु विद्यालय में प्रविष्ट होते ही, उसे घर की चारदीवारी तक सीमित वातावरण को भूलना पड़ता है। विद्यालय की शिशु है कक्षाओं में उसे नये चेहरे दिखाई देते हैं, माता के स्थान पर प्रशिक्षित शिक्षकों का मधुर स्नेह मिलता है, विद्यालय के वातावरण में मन को लुभाने वाली वस्तुओं को वह स्वयं उठा कर देखता है। अन्य शिशुओं के साथ ही वह उठता, बैठता, पानी पीता है तथा अवकाश होने पर अपनी पुस्तकों को अपने बैग में संभाल कर रखने लगता है। इन क्रियाओं को करने एवं सीखने का अर्थ यही है कि बालक, विद्यालय के नवीन वातावरण में स्वयमेव समायोजित होने का प्रयास करता है बालक में ‘आत्मावलम्बन’ तथा ‘आत्मनिर्भरता’ की भावना अंकुरित होने लगती है। विद्यालय के नए वातावरण में, बिना किसी सहारे के ही खड़ा रहने की आवश्यकता को वह अनुभव करने लगता है। यह निश्चित है कि मात्र घर पर रहकर उसमें इन गुणों का विकास इतना नहीं हो सकता। इसी विचार को तालकोट पार्सन्स ने अपने शब्दों में इस प्रकार कहा है— “विद्यालय एक ऐसा साधन है, जिसके माध्यम से बालकों को प्रेरणा तथा युक्तियों के अतिरिक्त वयस्कों जैसी भूमिका निभाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है।” ‘तालकोट’ की इस परिभाषा को मानते हुए ‘जॉन डीवी’ ने भी विद्यालय को सामाजिक प्रणाली के रूप में ही स्वीकार किया है। उनके अनुसार- “विद्यालय एक ऐसा विशिष्ट वातावरण है, जहाँ बालक के वांछित विकास की दृष्टि से, जीवनोपयोगी विशिष्ट क्रियाओं तथा व्यवसायों की शिक्षा दी जाती है।” वास्तव में, विद्यालयों की स्थापना का उद्देश्य ही होनहार युवकों को कुशल नागरिक बनाना होता है। विद्यालय तो अनेक गुणों को समाज से ही सीखता है तथा समाज का निर्माण करने में विद्यालय की प्रमुख भूमिका होती है। इसी बात को जे० एस० रॉस ने अपने शब्दों में इस प्रकार कहा है—“विद्यालय में संस्थाएँ हैं, जिन्हें सभ्य मानव ने इस दृष्टि से स्थापित किया है कि समाज में सुव्यवस्थित एवं कुशल सदस्यता के लिए युवकों की तैयारी में सहायता मिल सके।” इन सभी विशिष्ट कथनों से स्पष्ट होता है कि विद्यालयों का सामाजिक प्रणाली के रूप में अत्यधिक महत्व है।
विद्यालय को एक सामाजिक प्रणाली के रूप में समझाने का प्रयास ऊपर की पंक्तियों में किया गया है। कुछ अन्य को संक्षेप में भी निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-
अन्य कारणों का संक्षेपीकरण (Causes in brief)
1. जिन सामाजिक कुशलताओं को बालक घर पर नहीं सीखता, उन्हें वह विद्यालयों में सरलतापूर्वक सीख लेता है।
2. नई पीढ़ी को प्रशिक्षित करने में शिक्षा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका होती है, इस दृष्टि से विद्यालय, सामाजिक संस्था के रूप में शिक्षा के उद्देश्य की पूर्ति करते हैं।
3. बालक विद्यालयों में अपने परिवार की आर्थिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि को साथ लेकर अवश्य आता है, परन्तु विद्यालयों का वातावरण उसे समानता, जातिभेद-रहितता, हृदय की व्यापकता, वर्गहीनता आदि श्रेष्ठ गुणों को सीखने के लिए विवश कर देता है।
4. विद्यालय ही छात्रों के लिये ज्ञानोपलब्धि, व्यवहार कुशलता तथा भावी उन्नति का द्वार खोलता है। वस्तुतः विद्यालयों में छात्रों का प्रत्येक प्रकार का प्रस्तुतीकरण (Performance) ही यह निश्चित कर देता है कि वे भविष्य में समाज के लिए कितने उपयोगी व्यक्ति सिद्ध होंगे।
5. विद्यालय बालकों तथा कि शोरों का सामाजीकरण करने के सशक्त साधन होते हैं।
6. विद्यालयों में बालक, ज्ञान तथा व्यवहार में वयस्क तथा प्रौढ़ समझे जाने वाले शिक्षकों के सम्पर्क में रहकर सामाजिक कुशलता प्राप्त करने का अवसर प्राप्त करता है।
7. विद्यालयों में, बालकों को संगी-साथियों (Peer, Group) के साथ रहने के अनेक अवसर मिलते हैं। बालक अपने साथियों के अनेक गुणों को प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप में सीखता है और सामाजिक सम्बन्धों में कुशल बनता है।
8. विद्यालयों में छात्रों की बौद्धिक, पाठ्यसहग़ामी तथा पाठ्यातिरिक्त क्रियाओं, नेतृत्व आदि से सम्बन्धित उपलब्धियों पर ध्यान दिया जाता है। इन उपलब्धियों को प्राप्त करके छात्र सामाजिक जीवन के लिए ही तैयार होते हैं।
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