स्कूल का अनुशासन स्थापित करने के लिए ‘पुरस्कार’ एवं ‘दण्ड’ की भूमिका की विवेचना कीजिए।
शिक्षा मनोवैज्ञानिकों का यह मानना है कि अच्छा अनुशासन स्थापित करने में ‘पुरस्कार’ और ‘दण्ड’ महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यद्यपि वर्तमान युग में स्वीकारात्मक अनुशासन पर बल दिया जा रहा है और ऐसे साधन अपनाने के प्रयास किए जा रहे हैं, जिनसे छात्रों को स्व-अनुशासन की प्रेरणा मिले। फिर भी स्कूलों में ‘दण्ड’ एवं ‘पुरस्कार’ द्वारा अनुशासन स्थापन की प्रक्रिया निरन्तर चल रही है। वर्तमान समय में भी अधिकांश अध्यापक इस बात को मानते हैं, “दण्ड छोड़ दिया जाए तो बच्चा बिगड़ जाता है।” (Spare the rod and spoil’ the child) । यह बात सत्य भी प्रतीत होती है कि बच्चा दण्ड से डरता है और यह डर उसे अनुशासन में रखता है। इसी प्रकार पुरस्कार प्राप्ति की आशा छात्रों को अनुशासन में रखने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सुप्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री लॉक (Locke) ने इस तथ्य को व्यक्त करते हुए कहा है, “आशा और डर को यदि छोड़ दिया जाए तो समूचा अनुशासन समाप्त हो जाएगा।”
(Remove hope and fear and there is the end of all discipline.) इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि अनुशासन की स्थापना में ‘दण्ड’ और ‘पुरस्कार’ महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, परन्तु प्रश्न उठता है कि इनका प्रयोग कब और कैसे किया जाए ? इनके दोष क्या हैं ?
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पुरस्कार की भूमिका (Role of Reward)
‘दण्ड’ विद्यार्थियों के मन में भय उत्पन्न करके उन्हें अनुशासन में रखता है और पुरस्कार उन्हें आकर्षित करके उन्हें अनुशासन में’ रहने की प्रेरणा देता है। प्रायः देखा गया है कि पुरस्कार प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों का अनुशासन के प्रति उत्साह निरन्तर बना रहता है और वे दूसरों के लिए भी प्रेरणा स्रोत बन जाते हैं। पुरस्कार बहुत-सी बातों पर दिए जाते हैं, जैसे-
- अध्ययन प्रक्रिया में विशेष सफलता।
- खेलों में विशेष सफलता।
- नियमित उपस्थिति ।
- दायित्व का पालन आदि ।
- पाठ्य-सहायक क्रियाओं में सक्रिय रुचि दिखाना।
- ईमानदारी तथा शिष्ट आचरण
पुरस्कार भी कई प्रकार के दिए जाते हैं, जैसे- सर्टिफिकेट, नकद राशि, सेविंग-सर्टिफिकेट, मैडल, नक्शे, पुस्तकें, मैरिट-सर्टिफिकेट, ट्राफी, बैजिज, प्रातःकालीन सभा तथा अन्य उचित अवसरों पर प्रशंसा, ऑनर-बोर्ड (Honour Board) पर नाम लिखना आदि।
पुरस्कार देना अनुशासन-स्थापन में कहाँ तक उपयोगी है, यह विचारणीय प्रश्न है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि पुरस्कार विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करते हैं तथा पुरस्कार प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों में परिश्रम की प्रवृत्ति का विकास होता है. और उनमें स्वस्थ प्रतियोगिता की भावना उत्पन्न होती है। प्रशंसा से विद्यार्थियों में आत्म-विश्वास का विकास होता है और यह आत्म-विश्वास उन्हें अधिक से अधिक प्रगति के लिए प्रेरित करता है। बालक के पुरस्कृत होने से माता-पिता को सन्तुष्टि होती है। इतनी उपयोगिताओं के उपरान्त पुरस्कारों की आलोचना भी की जाती है। कई शिक्षाविदों का विचार है कि ‘पुरस्कार’ विद्यार्थियों में प्रलोभन की प्रवृत्ति का विकास करता है। वह कोई काम कर्त्तव्य समझ कर नहीं करते, बल्कि पुरस्कार प्राप्त करने के प्रलोभन में करते हैं। ‘पुरस्कार’ प्राप्ति की होड़ में विद्यार्थी परस्पर ईर्ष्या का शिकार भी हो जाते हैं। ‘पुरस्कारों’ से दो-चार व्यक्ति ही प्रोत्साहित होते हैं और अध्यापक भी उन्हीं की ओर अधिक ध्यान देने लगते हैं। फलस्वरूप अन्य विद्यार्थी उपेक्षा का शिकार हो जाते हैं। पूरे वर्ग को प्रोत्साहित करने में पुरस्कार’ विशेष भूमिका नहीं निभा पाते।
‘पुरस्कार’ का विरोध तर्कपूर्ण अवश्य है, परन्तु व्यावहारिक कम। यही कारण है कि दण्ड के समान ‘पुरस्कार’ का प्रयोग भी निरन्तर हो रहा है। यह ठीक है कि ‘पुरस्कार’ रुचि तथा उत्साह उत्पन्न करने का बाह्य साधन है और आवश्यकता इस बात की है कि बालकों को आन्तरिक प्रेरणा से अनुशासन की ओर अग्रसर किया जाए, परन्तु जब तक आन्तरिक प्रेरणा जाग्रत नहीं होती तब तक बाह्य प्रेरणा का प्रयोग करने में कोई दोष नहीं है। रायबर्न (Ryburn) ‘पुरस्कार के पक्ष में नहीं हैं, फिर भी उन्होंने कहा है, “इसका लक्ष्य रुचि को उत्तेजित करना है और अच्छे काम एवं व्यवहार के लिए प्रेरणा प्रदान करना है। पुरस्कारों से उत्पादित रुचि बाहरी होती है और उसकी तुलना आन्तरिक रुचि से नहीं की जा सकती। फिर भी रुचि न होने की अपेक्षा बाहरी रुचि का होना बेहतर है।” “The object of this is to stimulate interest and provide a motive for good work and good behaviour. The interest created is outside……and is therefore not to be compared with an intrinsic interest. It is possibly better than no interest at all…..”
यदि निम्नलिखित बातों की ओर ध्यान दिया जाए तो पुरस्कारों को उपयोगी बनाया जा सकता है-
(i) पुरस्कार तभी दिए जाने चाहिएँ जब आवश्यकता हो । प्रत्येक बात पर पुरस्कार देना उपयोगी नहीं होता। बहुत ज्यादा पुरस्कार नहीं दिए जाने चाहिए।
(ii) पुरस्कार अधिक कीमती नहीं होने चाहिएँ। कीमती पुरस्कार प्रलोभन का कारण बनते हैं और पुरस्कार के वास्तविक उद्देश्य के लिए हानिकारक सिद्ध होते हैं।
(iii) ‘पुरस्कार’ पुरस्कार के लिए नहीं दिए जाने चाहिएँ। इसका प्रयोग साधन के रूप में होना चाहिए, साध्य के रूप में नहीं। यह सर्वदा याद रखना चाहिए कि पुरस्कार का उद्देश्य व्यक्ति की रुचि को उत्तेजित करना तथा उसे अच्छे काम एवं व्यवहार के लिए प्रेरित करना है।
(iv) पुरस्कारों की घोषणा करते समय जहाँ पुरस्कार विजेताओं की प्रशंसा होनी चाहिए, वहाँ उन विद्यार्थियों को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जो पुरस्कार प्राप्त नहीं कर सके। पुरस्कार भले ही एक व्यक्ति जीते, परन्तु उसकी प्रेरणा सभी को मिलनी चाहिए। अध्यापक या प्रधानाध्यापक द्वारा अपनाया गया इस प्रकार का उत्साह प्रेरक व्यवहार पुरस्कार की स्वस्थ प्रतियोगिता का केन्द्र बिन्दु बन सकता है।
(v) ‘पुरस्कार’ के लिए कुछ नियम निर्धारित किए जाने चाहिएँ और उन नियमों का कठोरता से पालन होना चाहिए। इन नियमों की विद्यार्थियों को भी पर्याप्त समय पहले जानकारी देनी चाहिए।
(vi) पुरस्कारों का निर्णय, न्याय संगत तथा वस्तुनिष्ठ होना चाहिए।
दण्ड की भूमिका (Role of Punishment )
यदि ध्यान से किसी स्कूल का निरीक्षण किया जाए तो ज्ञात होगा कि प्रत्येक स्कूल में ‘दण्ड’ की व्यवस्था विद्यमान है। कक्षा में खड़ा रखना, बैंच पर खड़ा कर देना, कान पकड़वाना आदि भी तो ‘दण्ड’ के ही रूप हैं और इनका प्रयोग सभी अध्यापक तथा प्रधानाध्यापक करते हैं। वस्तुतः बालक को अनुशासन में रखने के लिए दण्ड अति आवश्यक है। बागले (Bagley) के अनुसार, “बच्चा अपरिपक्व एवं विवश होता है। इसलिए उसे लम्बी रस्सी नहीं देनी चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि वह अपने आपको लटका ले।”
“The child is immature and helpless and he must not be given long rope with which he may hang himself.”
विभिन्न प्रकार के दण्ड (Types of Punishment )
स्कूल में अनुशासन की स्थापना के लिए कई प्रकार के दण्ड दिए जाते हैं, जैसे-
1. शारीरिक दण्ड (Corporal Punishment) – विद्यार्थियों को नियन्त्रण में रखने का यह उपाय प्राचीन काल से चला रहा है। काफी लम्बे समय तक खड़ा रखना, कान पकड़वाना, थप्पड़ मारना, बैत मारना आदि शारीरिक दण्ड के अन्तर्गत आते हैं, वे शारीरिक दण्ड को अमानवीय तथा मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के प्रतिकूल मानते हैं। ई० एस० केसल (E. S. Castle) के अनुसार, “मैं उन व्यक्तियों के तर्क में कोई-बल नहीं समझता, जो शारीरिक दण्ड का समर्थन करते हैं, छोटे-मोटे अपराधों के लिए यह बहुत कठोर है। गम्भीर नैतिक अपराधों में नितान्त असंगत है। सीखने को प्रेरित करने के दृष्टिकोण से भी यह प्रेरक की अपेक्षा निरोधक अधिक सिद्ध होता है।”
यह तो ठीक है कि शारीरिक दण्ड अमानवीय है और विद्यार्थियों के मानसिक विकास में बाधक बन सकता है, फिर भी इसका प्रयोग होता है। आवश्यकता इस बात की है कि इसका प्रयोग विवेकपूर्वक किया जाना चाहिए। रायबर्न (Ryburn) ने कहा है, “शारीरिक दण्ड का यथासम्भव कम प्रयोग किया जाना चाहिए। इसके बिना काम चलाना बेहतर है। जब इसका प्रयोग किया जाए तो उस व्यक्ति के उचित सम्मान का ध्यान रखा जाना चाहिए, जिसके लिए इसका प्रयोग किया जाता है।”
“Corporal punishment is a kind of punishment which should be indulged in as sparingly as possible. If we can get on without it so much the better. It is usually a confession of failure on our part. If it is used, it should be used with the regard for the individual who is punished.”
2. जुर्माना (Fines) – नियमित रूप से काम न करने वाले स्कूल से भाग जाने वाले तथा अनुपस्थित रहने वाले विद्यार्थियों को अक्सर जुर्माने का दण्ड दिया जाता है। यद्यपि जुर्माना माता-पिता को अदा करना होता है, परन्तु इसका प्रभाव अवश्य पड़ता है। इसकी सबसे बड़ी उपयोगिता यह है कि अभिभावकों को अपने बच्चों की अनिमितताओं का ज्ञान होता रहता है और वे अपने बच्चों को सुधारने में रुचि लेने लगते हैं।
3. कक्षा से बाहर निकालना (Suspension from the Class) – कक्षा के कोने में खड़ा कर देने पर भी यदि कोई विद्यार्थी नहीं सुधरता या जिसकी शरारतों से पूरी कक्षा तंग आ गई हो या जो अध्यापक के आदेशों की बार-बार अवहेलना करे उसे कक्षा से बाहर निकाल दिया जाता है। यह दण्ड थोड़े समय के लिए दिया जाता है और यह प्रयास किया जाता है कि वह विद्यार्थी दरवाजे के पास रहे ताकि उसकी पढ़ाई की हानि न हो।
4. स्कूल से बाहर निकाल देना (Expulsion) – यह अधिक कठोर दण्ड है। इसका प्रयोग सोच-समझकर, अच्छी प्रकार से जाँच करके और सम्बन्धित विद्यार्थी के दोषों को प्रमाणित करने के पश्चात् इसका निर्णय किसी समिति के द्वारा किया जाना चाहिए।
5. विशेषाधिकारों से वंचित करना (Deprivation of Privileges)- यह दण्ड उन विद्यार्थियों को दिया जा सकता है, जिनके पास विशेष अधिकार हों, जैसे-मॉनीटर, किसी समिति का सदस्य, टीम का कप्तान आदि। यदि ऐसा कोई विद्यार्थी अनुशासन भंग करता है और बार-बार चेतावनी दिए जाने पर भी अपनी हरकतों से नहीं हटता तो उसे विशेष अधिकारों से वंचित करके उसे अपनी अनुशासनहीनता का अनुभव कराया जा सकता है।
6. नैतिक दण्ड (Moral Punishment)- दोषी विद्यार्थी से किसी व्यक्ति विशेष के सामने अथवा सार्वजनिक रूप से क्षमा याचना करवाना, क्लास द्वारा किसी का बॉयकाट करवाना आदि नैतिक दण्ड के अन्तर्गत आते हैं। अनुशासन स्थापना की दृष्टि से नैतिक दण्ड बहुत प्रभावशाली सिद्ध होता है। इससे विद्यार्थियों को सुधारने में बहुत सहायता मिलती है, परन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह अत्यधिक कठोर दण्ड है, क्योंकि इससे व्यक्ति के आत्म-सम्मान को ठेस लगती है और वह आत्महीनता का शिकार भी हो सकता है।
दण्ड के उपर्युक्त प्रकारों के अलावा अध्यापक और भी कई प्रकार के दण्ड देते हैं, जैसे किसी विद्यार्थी को आधी छुट्टी बन्द कर देना, स्कूल समय के पश्चात् दोषी विद्यार्थी को रोककर उससे गृहकार्य करवाना आदि। ‘दण्ड’ नकारात्मक साधन (Negative) अवश्य है, परन्तु बालकों की अपरिपक्व स्थिति के कारण इसका प्रयोग अनिवार्य है। ‘झिड़कना बहुत ही नर्म दण्ड माना जाता है, परन्तु यह भी निर्दोष नहीं है। मुहीयुद्दीन (Mohyiud-din) ने इसकी आलोचना करते हुए कहा है, “व्यंग्य, उपहास और गाली बड़े ही कायरतापूर्ण साधन हैं और मनोवैज्ञानिक रूप से सुधारने के ये साधन बहुत हो अस्वस्थ एवं प्रभावहीन हैं।”
“Sarcasm, ridicule and abuse are cowardly weapons to employ and psychologically they are very unwholesome and ineffective means of correction.”
‘दण्ड’ बुराई अवश्य है, परन्तु इसके बिना गुजारा नहीं है। अनुशासन की स्थापना के लिए इसका प्रयोग करना पड़ता है। आवश्यकता इस बात की है कि ‘दण्ड’ का प्रयोग सोच-समझकर, उचित सीमा से तथा न्याय संगत तथा निष्पक्ष रूप से किया जाना चाहिए। पी० सी० रेन (P. C. Wren) के अनुसार, “दण्ड सर्जन के चाकू की तरह एक आवश्यक बुराई है।” (“Punishment is a necessary evil like the surgeon knife:’) ‘दण्ड’ देते समय अध्यापक को अपने क्रोध पर सन्तुलन रखना चाहिए। याद रहे कि ‘दण्ड’ बदले और क्रोधाभिव्यक्ति का साधन नहीं है, बल्कि सुधारने का साधन है। श्री रायबर्न (Ryburn) ने ठीक कहा है कि, “जब कोई अध्यापक किसी विद्यार्थी के लिए शारीरिक दण्ड का सुझाव देना है तो उसे उसका कारण बताना चाहिए और प्रधानाध्यापक को स्वयं निर्णय लेना चाहिए कि उस विद्यार्थी को दण्ड दिया जाए या नहीं और दिया जाए तो कितना।” कक्षा में अध्यापक को यदि तत्काल ‘दण्ड’ देने की आवश्यकता अनुभव हो तो उसे समूची कक्षा को उसका न्याय संगत कारण बताना चाहिए। कहने का अभिप्राय है कि दण्ड न्याय-संगत, विवेकपूर्ण तथा निष्पक्ष होना चाहिए।
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