समाजशास्त्र एवं निर्देशन / SOCIOLOGY & GUIDANCE TOPICS

व्यक्तिगत निर्देशन के उद्देश्य, प्रकार एंव आवश्यकता

व्यक्तिगत निर्देशन के उद्देश्य, प्रकार  एंव आवश्यकता
व्यक्तिगत निर्देशन के उद्देश्य, प्रकार एंव आवश्यकता

व्यक्तिगत निर्देशन के उद्देश्यों का वर्णन कीजिए। व्यक्तिगत समस्याओं के प्रकार तथा व्यक्तिगत निर्देशन की आवश्यकता का वर्णन कीजिए।

व्यक्तिगत निर्देशन के उद्देश्य (Aims of Personal Guidance) 

व्यक्तिगत निर्देशन के निम्नलिखित उद्देश्य होते हैं-

1. पारस्परिक सम्बन्धों को बनाये रखने से सम्बन्धित कौशल के विकास में सहायता प्रदान करना ।

2. व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित समस्याओं की जानकारी प्राप्त करने, उनके कारणों तथा प्रभावों को खोजने तथा उनका समाधान खोजने में सहायता देना।

3. परिवार तथा समाज में सम्बन्धित सदस्यों के साथ बेहतर सम्बन्ध बनाये रखने की योग्यता का विकास करने में सहायता देना।

4. व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित समस्याओं का बोध तथा उन समस्याओं का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण करने की योग्यता का विकास करना।

5. परिवार, पड़ोस, विद्यालय तथा समुदाय के मध्य समंजन की योग्यता का प्रदर्शन करते हुए जीवन व्यतीत करने में सहायता प्रदान करना।

6. इस प्रकार के अवसरों की व्यवस्था करना, जिनके माध्यम से पारस्परिक सम्पकों को स्थापित करने तथा उनका विकास करने हेतु प्रोत्साहन प्राप्त हो सके।

7. व्यक्ति में समंजन की योग्यता का विकास करना।

8. जीवन से सम्बन्धित विभिन्न परिस्थितियों में विवेक तथा सूझयुक्त व्यवहार का विकास करने में सहयोग प्रदान प्रदान करना।

9. व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित मस्याओं के सन्दर्भ में निर्णय लेने की क्षमता का विकास करना।

10. अपने स्वास्थ्य के प्रति निरन्तर सचेत रहने तथा मानसिक एवं सांवेगिक सन्तुलन को बनाए रखने में सहायता करना।

11. अपनी योग्यताओं तथा क्षमताओं के बेहतर उपयोग तथा बाह्य पर्यावरण में उत्पन्न अवसरों की सम्भावनाओं के सन्दर्भ में विचार करने की योग्यता का विकास करने में सहायता प्रदान करना

12. संवेगात्मक नियन्त्रण हेतु आवश्यक अभ्यास की दिशा में व्यक्ति को प्रेरित करना।

व्यक्तिगत समस्याओं के प्रकार (Types of the Personal Problems)

मनोवैज्ञानिक अध्ययनों तथा निर्देशन के क्षेत्र में किए जाने वाले अनुसंधानों के आधार पर, मनुष्य के वैयक्तिक जीवन से सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन और वर्गीकरण करने के अनेक प्रयास किए गए हैं। रॉस एल० भूनी तथा रेमर्स ने अपने मनोवैज्ञानिक अध्ययन के आधार पर इन समस्याओं का गहनता से अध्ययन किया है। इन समस्त समस्याओं को डॉ० सीताराम जायसवाल ने सुप्रसिद्ध पुस्तक, ‘शिक्षा में निर्देशन और परामर्श’ में सात वर्गों में विभक्त किया है-

  1. सामाजिक सम्बन्धों से जुड़ी समस्याएँ,
  2. पारिवारिक जीवन तथा परिवार सम्बन्धी समस्याएँ,
  3. आर्थिक जीवन से सम्बन्धित समस्याएँ,
  4. स्वास्थ्य तथा शारीरिक विकास सम्बन्धी समस्याएँ,
  5. धर्म, चरित्र, आदर्श तथा मूल्यों से सम्बन्धित समस्याएँ,
  6. संवेगात्मक व्यवहार से सम्बन्धित समस्याएँ,
  7. यौन, प्रेम तथा विवाह सम्बन्धी समस्याएँ

व्यक्तिगत निर्देशन की आवश्यकता (Need for Personal Guidance)

1. व्यक्तिगत समस्याओं के सन्दर्भ में सही निर्णय लेने हेतु (To take proper decision in the context of personal problems ) – निर्णय लेने की क्षमता का प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में सर्वाधिक महत्व होता है। जो व्यक्ति अपने वैयक्तिक जीवन से सम्बन्धित समस्याओं के सन्दर्भ में सही निर्णय लेने में दक्ष होता है, वही व्यक्ति अपेक्षाकृत अधिक प्रगति करने की दिशा में सफल हो पाता है। अतः क्षमता का विकास बाल्यकाल से ही किया जाना चाहिए। इस दिशा में व्यक्ति को यह बताया जा सकता है कि उसे किस प्रकार अपनी क्षमता, योग्यता, समय तथा साधनों के सन्दर्भ में निर्णय लेना चाहिए तथा निर्णय लेते समय किस मानसिक प्रक्रिया को प्रयुक्त करना चाहिए।

2. व्यक्तिगत कौशलों का विकास करने की दृष्टि से (To develop the skills related to individual life) – शैक्षिक तथा व्यावसायिक जगत के अतिरिक्त वैयक्तिक जीवन में भी अनेक प्रकार के कौशलों की आवश्यकता होती है। इन कौशलों का विकास करके शैक्षिक तथा व्यावसायिक उपलब्धियों की गति में वृद्धि की जा सकती है। हम किस प्रकार अपने स्वास्थ्य को बनाए रखें, किस प्रकार अपने लक्ष्यों तथा दैनिक दिनचर्या का निर्धारण करें किस प्रकार अपने मित्रों, बालकों, पड़ौसियों, अभिभावकों, गुरुजनों के साथ व्यवहार करें, आदि से सम्बद्ध कौशलों का विकास होने की स्थिति में हमारी जीवनधारा अपेक्षाकृत अधिक सहज गति से प्रवाहित होने लगती है। व्यक्तिगत निर्देशन के द्वारा उद्देश्य की प्राप्ति हेतु सहायता प्रदान की जा सकती है।

3. पारस्परिक तनावों को कम करने हेतु (To minimise the mutual tensions) – वर्तमान परिप्रेक्ष्य में, व्यक्ति की आवश्यकताओं, अपेक्षाओं तथा प्रतिस्पर्धाओं में होने वाले तीव्रगामी विकास को सहज ही देखा जा सकता है। इन समस्त परिवर्तनों के परिणामस्वरूप, पारस्परिक सम्बन्धों को सौहार्दपूर्ण बनाये रखना अत्यन्त जटिल हो गया है। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि व्यक्ति, न केवल स्वार्थ केन्द्रित होता जा रहा है, बल्कि स्वयं को लाभान्वित करने के साथ ही दूसरों का अहित करने की प्रवृत्ति का भी विकास करता चला जा रहा है। इस प्रकार की स्थिति से व्यक्ति तथा समाज को विमुक्त करने हेतु भी व्यक्तिगत निर्देशन का प्रभावी उपयोग किया जा सकता है।

4. व्यक्तिगत जीवन में सुख-शान्ति तथा सन्तोष का विकास हेतु (To develop the feelings of happiness, peace and satisfaction)- प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में अधिक से अधिक सुख, शान्ति एवं सन्तोष चाहता है। सामान्यतः यह देखने में आता है कि विभिन्न दृष्टियों से बहुत कुछ उपलब्ध करने के उपरान्त भी व्यक्ति में सन्तोष वृत्ति का उदय नहीं हो पाता है तथा वह मृत्युपर्यन्त कुछ न कुछ और पाने की धुन में तनावग्रस्त बना रहता है। इसी स्थिति में जो उपलब्ध है, उसका सुख भी वह नहीं भोग पाता है और फलस्वरूप अशान्त रहता है। ऐसा नहीं है कि सुख, सन्तोष या स्थिति को प्राप्त कर पाना असम्भव है। यह सम्भव है, किन्तु इसके लिए आत्मबोध का विकास आवश्यक है, उससे प्रायः हम वंचित रहते हैं। व्यक्ति निर्देशन के द्वारा व्यक्ति में इस आत्मबोध का विकास किया जा सकता है।

5. व्यक्तिगत समंजन की क्षमता का विकास करने हेतु (To develop the efficiency of Personal Adjustment) – व्यक्तिगत समंजन की क्षमता का विशेषतः वर्तमान सामाजिक परिप्रेक्ष्य में अत्यन्त महत्व है। परिवार, समुदाय या समाज के व्यक्तियों से बने सम्बन्धों को तो यह क्षमता प्रभावित करती ही है, व्यक्ति के निजी एवं भावी जीवन की दृष्टि से भी समंजन की क्षमता का परम् महत्व होता है। अपने एवं दूसरे व्यक्तियों के मध्य सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्धों की स्थापना तथा उनको यथावत बनाएँ रखना ही इस योग्यता की कसौटी है। इसके लिए अपना तथा समाज के सदस्यों का सही अध्ययन तथा मूल्यांकन नितान्त आवश्यक होता है। इस योग्यता का व्यक्ति की शैक्षिक तथा व्यावसायिक उपलब्धियों से भी गहन सम्बन्ध होता है। जो व्यक्ति अपने परिवार, समुदाय या समाज में समायोजित नहीं हो पाता है, वह अपने शिक्षालयी जीवन तथा व्यावसायिक जगत में भी किसी न किसी दृष्टि से असमायोजित ही रहता है।

6. पारिवारिक तथा व्यावसायिक जीवन में सामंजस्य स्थापित करने हेतु (To establish coordination in between familial and vocational life) – व्यक्ति की पारिवारिक परिस्थितियों का व्यावसायिक जीवन पर विशेष प्रभाव होता है। जो व्यक्ति अपने परिवार में समायोजित नहीं है और परिवार के सदस्यों से असन्तुष्ट है, वह स्वाभाविक रूप से व्यावसायिक जगत में कर्म करते हुए भी अपनी पारिवारिक परिस्थितियों के सम्बन्ध में विचार करता रहेगा। उसकी निराशा, खिन्नता, असन्तोष, चिन्ता तथा विरक्ति का प्रभाव, उसकी व्यावसायिक उपलब्धियों तथा व्यवसाय में रत सहकर्मियों के साथ स्थापित किए गए सम्बन्धों पर भी होगी। इसी प्रकार व्यावसायिक जीवन के प्रति असन्तोष, निराशा के द्वारा व्यावसायिक तथा पारिवारिक जीवन में समन्वय स्थापित करने हेतु सहायता प्रदान की जा सकती है।

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Anjali Yadav

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