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सामाजिक संगठन के सामान्य उद्देश्य और मनोवैज्ञानिक आधार | Common Aims and Psychological Basis of Social Organization in Hindi

सामाजिक संगठन के सामान्य उद्देश्य और मनोवैज्ञानिक आधार | Common Aims and Psychological Basis of Social Organization in Hindi
सामाजिक संगठन के सामान्य उद्देश्य और मनोवैज्ञानिक आधार | Common Aims and Psychological Basis of Social Organization in Hindi

सामाजिक संगठन के सामान्य उद्देश्यों और मनोवैज्ञानिक आधारों का वर्णन कीजिए।

सामाजिक संगठन के सामान्य उद्देश्य ( Common Aims of Social Organization)

उपर्युक्त वर्णित विशेषताओं में यह बताया जा चुका है कि समान उद्देश्य संगठन के अस्तित्व के लिए आवश्यक है। यह देखा गया है कि जब तक कोई ऐसा उद्देश्य नहीं होता है, जिससे समाज के कुछ व्यक्ति प्रभावित हों तथा प्रभावित होकर किसी कार्य को करने के लिए आपस में सहयोग करें, तब तक संगठन का कोई प्रश्न नहीं उठता है। यह भी देखा गया है कि समान उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सदस्यों की क्रियाओं में सहयोग और समायोजन आवश्यक है। समान उद्देश्य होते हुए भी सदस्य जब मनमाने ढंग से कार्य करने लगेंगे तो निश्चय ही उनमें विरोध के कारण सहयोग और समायोजन कम हो जायेगा तथा बना हुआ संगठन छिन्न-भिन्न हो जायेगा। अतः स्पष्ट है कि समान उद्देश्य सामाजिक संगठन के लिए अति आवश्यक है। जब तक सदस्यों के समान उद्देश्य नहीं हों तो सामाजिक संगठन का निर्माण नहीं हो सकता है और इन समान उद्देश्यों के छिन्न-भिन्न होते ही संगठन भी छिन्न-भिन्न हो जायेगा। अधिकतर समान उद्देश्य समान आवश्यकताओं, समान विषयों का समान हितों के कारक बना करते हैं

यह देखा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक प्राणी होने के नाते विभिन्न संगठनों का सदस्य होता है। इन – एसोशिएसन्स का सदस्य वह दो प्रकार से बन सकता है। वह इनका सदस्य जन्म से हो सकता है और वह अपने स्वयं के प्रयासों से भी इन संगठनों का सदस्य बन सकता है। किसी भी संगठन के सदस्य बनने में वह विभिन्न प्रकार के सुझावों से भी प्रभावित हो सकता है। एक समाज में विभिन्न प्रकार के एसोशिएसन्स होते हैं, जैसे कॉलेज में मनोविज्ञान परिषद् या अन्य किसी विषय की परिषद्। खेल से सम्बन्धित अनेक परिषदें हो सकती हैं। कई बार व्यक्ति को न तो इन परिषदों के उद्देश्य का ज्ञान होता है और न इन परिषदों के स्पष्ट उद्देश्य ही होते हैं। मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते समूह के साथ जीवन व्यतीत करने के उद्देश्य से ही वह विभिन्न परिषदों का संगठन करता है और सदस्य बनकर परिषद् के उद्देश्यों के माध्यम से अपने उद्देश्य को पूरा करता है। एक परिषद् के सदस्य को परिषद् के नियमों और कार्य योजनाओं अर्थात् परिषद् के संगठित स्वरूप का ज्ञान इसके सदस्यों को होता है, परन्तु आवश्यक नहीं है कि परिषद के संगठित स्वरूप का ज्ञान सदस्यों को हो ही।

संगठन का मनोवैज्ञानिक आधार (Psychological Basis of Organization)

मैक्डूगल (1920) ने संगठन की व्याख्या अपने मूल-प्रवृत्ति सिद्धान्त के आधार पर की है। इनके अनुसार की मूल प्रवृत्ति, नेतृत्व करने के लिए करणागति की मूल प्रवृत्ति, नेता का अनुसरण करने के लिए सामूहिकता की मूल प्रवृत्तियाँ और सामाजिक प्रेरणाओं आदि के आधार पर संगठन की व्याख्या की जा सकती है। संगठन की व्याख्या मैक्डूगल के सिद्धान्तों के आधार पर आज उपयुक्त प्रतीत नहीं होती है। संगठन की व्याख्या के प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं-

1. श्रृंखला आदेश (Chain of Command) – यह कहा गया है कि किसी औद्योगिक संगठन के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए श्रृंखला आदेशों का बहुत महत्व है। किसी भी उद्योग क्षेत्र के अलग-अलग समूह भिन्न-भिन्न कार्यों में विशेष योग्यता या दक्षता रखते हैं। इन अलग-अलग समूहों को संगठित और नियन्त्रित करने के लिए आवश्यक है कि एक श्रृंखला आदेश हो। किसी संगठन की आदेशों की श्रृंखला में उस संगठन के विभिन्न अधिकारी और संचालक आदि सम्मिलित हैं। इस श्रृंखला के आदेश में केवल कुछ अधिकारी तथा संचालक लोग ही नहीं सम्मिलित हैं, बल्कि एक संगठन विशेष के एक साधारण कर्मचारी से लेकर उच्चतम अधिकारी तक सभी इस श्रृंखला आदेश के सूत्र में बँधे रहते हैं।

2. आदतें (Habits) – सामाजिक संगठनों की व्याख्या में आदतों का महत्वपूर्ण स्थान है। प्राय: यह देखा गया कि व्यक्ति का व्यवहार उसकी आदतों के अनुकूल होता है। उदाहरण के लिए, प्रत्येक सैनिक संगठन में नेता की आज्ञा का बिना विचार किये हुए पालन किया जाता है। इस प्रकार आदत सैनिकों में विकसित की जाती है। सैनिक संगठनों में यदि ऐसी आदतों का सैनिकों में विकास न किया जाय तो हो सकता है कि सैनिक संगठन इतने सुदृढ़ न हों। संगठनों का आधार कुछ सामाजिक आदतें भी हैं। यह सामाजिक आदतें समाज में प्रचलित वह क्रिया पद्धतियाँ हैं, जिन्हें बार-बार दुहराये जाने के परिणामस्वरूप वे व्यवहार का अंग बन जाती हैं। सामाजिक कार्यों को करने में ये आदतें सहायक हैं, क्योंकि इनकी उपस्थिति में सामाजिक कार्य सुगम, रोचक और सरल हो जाते हैं।

3. विशेषता (Work Proficiency) – आधुनिक समाज के औद्योगिक क्षेत्रों में संगठन का मुख्य आधार कार्य विशेषता है। यह देखा गया है कि कार्य विशेषता के आधार पर औद्योगिक संगठनों का निर्माण और विकास होता है, क्योंकि विशेषता के आधार पर कम खर्च, परन्तु अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। औद्योगिक क्षेत्रों के बड़े-बड़े संगठन आज कार्यदक्षता के कारण अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं।

4. स्तरों की न्यूनतम संख्या (Minimum No. of Standard Levels) – प्रत्येक औद्योगिक संगठन में कार्य के कई स्तर या कई स्तर के कार्य होते हैं। कार्यों के स्तर जितने कम होते हैं, संगठन उतना ही सुदृढ़ होता है। जितने ही अधिक तरह के कार्य होते हैं, संगठन में उतना ही अधिक नियन्त्रण की आवश्यकता होती है। सुदृढ़ संगठन के लिए आवश्यक है कि कार्यों के स्तर न्यूनतम संख्या में हों। संगठन की व्याख्या के उपर्युक्त तीनों आधार अधिक उपयुक्त नहीं हैं, किसी हद तक औद्योगिक संगठन के लिए एक बार उपयुक्त भी हो सकते हैं, परन्तु सामाजिक संगठन के लिए यही प्रतीत नहीं होते हैं।

5. समूह भावना (Group Spirit) – प्रायः यह देखा गया है कि समूह भावना सामाजिक संगठन का एक महत्वपूर्ण कारक है। किसी समूह में समूह भावना जितनी ही अच्छी होगी, समूह उतना ही अधिक संगठित होगा। वर्तमान युग में जीवन का स्तर ऊँचा करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति प्रयास करता है। आजकल लोगों में ‘मैं’ की भावना पनपती जा रही हैं। वैज्ञानिक उन्नति के साथ-साथ लोगों के मूल्य बदलते जा रहे हैं, लोगों में समूह भावना कम होती जा रही है। समाज में बड़े-बड़े परिवर्तन हो रहे हैं। इन सामाजिक परिवर्तनों की उपस्थिति में सामाजिक संगठन को बनाये रखना कठिन हो गया है। भारतीय सामाजिक संगठन आपसी सहयोग और सहायता पर आधारित था, समाज की विभिन्न संस्थाएँ और समूह भी परस्पर सम्बन्धित थे। अपने देश के ऋषि-मुनियों ने यह अनुभव कर लिया था कि एक समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति और समाज का विकास तभी होता है, जब समाज में सहयोग और संगठन हो।

6. प्रेरणाएँ (Motives)- समाज में व्यक्ति एक दूसरे से संगठित विभिन्न सामाजिक प्रेरणाओं के कारण भी रहते हैं। इन प्रेरकों में सम्बन्धन अभिप्रेरणा अधिक महत्वपूर्ण है। व्यक्ति दूसरों के साथ यूथ वृत्ति बना कर सन्तोष प्राप्त करता है। प्रत्येक व्यक्ति इस अभिप्रेरणा के कारण दूसरों के साथ रहना चाहता है, दूसरों से सम्पर्क बनाए रखने में उसे सन्तोष प्राप्त होता है। सम्बन्धन की आवश्यकता के निष्कर्ष स्वरूप व्यक्ति, समाज एवं उनकी विभिन्न इकाइयों का निर्माण होता । विभिन्न समूह, सम्प्रदाय, संस्थान, क्लब, संगठन, आदि का निर्माण इसी अभिप्रेरक के कारण होता है। शैचटर (Schachter, 1959) ने इस अभिप्रेरणा पर कई महत्वपूर्ण प्रयोगात्मक अध्ययन किये हैं। अपने एक प्रयोग से उसने सिद्ध किया है कि अप्रिय परिस्थितियों से छुटकारा पाने वाली परिस्थितियों में सम्बन्धन अभिप्रेरणा में अधिक तत्परता दिखाई देती है। उसने अपने अध्ययन में यह भी देखा कि सम्बन्धन से व्यक्ति को सुख तो प्राप्त होता ही है, इसके साथ ही उसकी वित्ता भी कम हो जाती है। शैचटर ने अपने प्रयोगों में यह भी देखा कि सम्बन्धन प्रेरणा पर जन्म क्रम का भी प्रभाव पड़ता है। परिवार की प्रथम सन्तान में सम्बन्धन प्रेरणा अधिक, दूसरी में कम तथा अन्य सन्तानों में और कम पाई जाती है।

7. विवेक और संकल्प ( Reason and Will) – विवेक और संकल्प व्यक्तित्व के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। यह देखा गया है कि सामाजिक जीवन को एक सूत्र में बाँधने का कार्य सामाजिक सिद्धान्त करते हैं तथा वह सामाजिक सिद्धान्त विवेक और संकल्प पर आधारित होते हैं। जिन्सबर्ग (1954) के अनुसार किन्हीं लक्ष्यों के लिए साधन ढूंढने में विवेक के व्यावहारिक पहलू संकल्प का एक महत्वपूर्ण कारक होते हैं। यह विभिन्न लक्ष्यों में एकता ही कायम नहीं करते हैं वरन् यह संगठन के लिए मार्ग दिखाने में भी एक महत्वपूर्ण कारण होते हैं। यह भी देखा गया है कि विवेक और संकल्प के द्वारा सामाजिक जीवन में अनुरूपता, सफलता तथा सामाजिक समायोजन की मात्रा भी बढ़ती है। कुछ विवेकपूर्ण आदर्श जैसे-जय जवान, जय किसान, आराम हराम है तथा युद्ध की समाप्ति के लिए युद्ध आदि विवेकपूर्ण आदर्श ही सामाजिक संगठनों के अस्तित्व को बनाये रखने में सहायक हैं।

8. सामाजिक नियन्त्रण (Social Control) – शान्तिपूर्ण सामाजिक जीवन के लिए आवश्यक है कि उत्तम सामाजिक •संगठन सामाजिक नियन्त्रण के बिना सम्भव नहीं है। अतः सामाजिक नियन्त्रण का सामाजिक संगठन में महत्वपूर्ण स्थान है। सामाजिक नियन्त्रण के कारण एक समाज के व्यक्ति स्वीकृत ढंग से व्यवहार करते हैं; परिणामस्वरूप उनमें अनुरूपता उत्पन्न होती है। एक समूह के व्यक्तियों की आदतों, रुचियों, अभिवृत्तियों तथा अन्य व्यवहार प्रतिमानों के अतिरिक्त उनको प्रथाएँ, आदर्श, दर्प, विश्वास आदि में अन्तर रहता है। इन अन्तरों की उपस्थिति में व्यक्ति में तनाव तथा संघर्ष की स्थितियों समय-समय पर उत्पन्न होती रहती हैं। सामाजिक नियन्त्रण के कारण यह तनाव और संघर्ष की स्थितियाँ दबी रहती हैं। कुछ विद्वानों का विश्वास है कि नियन्त्रण के कारण ही मनुष्य मानव है। अतः स्पष्ट है कि सामाजिक नियन्त्रण भी सामाजिक संगठन का एक महत्वपूर्ण कारक है।

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Anjali Yadav

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