निर्देशन की आवश्यकता तथा महत्व का वर्णन कीजिए।
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निर्देशन की आवश्यकता एवं महत्व (Need and Importance of Guidance)
निर्देशन की आवश्यकता एवं महत्व निम्नलिखित कारणों से हैं-
- शैक्षणिक दृष्टिकोण से आवश्यकता (Need from Educational Point of View)
- सामाजिक दृष्टिकोण से आवश्यकता (Need from Social Point of View)
- आर्थिक दृष्टिकोण से आवश्यकता (Need from Economic Point of View)
- वैयक्तिक विकास के दृष्टिकोण से आवश्यकता (Need from Point of View of Individual Development)
1. शैक्षणिक दृष्टिकोण से आवश्यकता (Need from Educational Point of View)
आधुनिक शिक्षा पद्धति में शैक्षणिक निर्देशन की आवश्यकता निम्न कारणों से है-
(i) छात्रों की संख्या में वृद्धि (Increase in students’ number) – भारतीय संविधान में 14 वर्ष के बालकों तक अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा का प्रावधान है। प्रौढ़ शिक्षा के प्रचार तथा प्रसार के कारण भी माता-पिता अपने बालकों की शिक्षा के प्रति अधिक सजग हो रहे हैं। सरकारी तथा निजी तौर पर दूर-दराज क्षेत्रों में विद्यालय/कॉलेज खोले जा रहे हैं। इस प्रकार लोगों को शिक्षा प्राप्त करने की सुविधायें पर्याप्त रूप से प्राप्त हो रही हैं। इन सबके फलस्वरूप छात्रों की संख्या में वृद्धि होना स्वाभाविक है। छात्रों की बढ़ती हुई संख्या के कारण शिक्षा को उचित रूप से आयोजित एवं सुगठित करना आसान नहीं। इसमें कई प्रकार की गठनात्मक, प्रबन्धात्मक तथा प्रशासकीय समस्यायें निहित हैं, जिनके समाधान के लिए ‘निर्देशन एवं मार्गदर्शन अत्यन्त आवश्यक है।
(ii) अपव्यय एवं अवरोधन पर नियन्त्रण (Control over wastage and stagnation) – शिक्षा-प्रसार ने शिक्षा में अपव्यय एवं अवरोधक की समस्या को उत्पन्न कर दिया है। प्राइमरी स्तर पर बहुत से छात्र प्राइमरी शिक्षा पूरी किये बिना स्कूल छोड़ देते हैं और बहुत से छात्र एक ही कक्षा में दो-तीन साल फेल होते रहते हैं। इससे समय और मानवीय शक्ति का अपव्यय होता है। केवल प्राइमरी स्तर पर ही नहीं, बल्कि बड़ी कक्षाओं में भी अपव्यय का यह सिलसिला चलता रहता है। जब छात्र अपनी रुचियों एवं योग्यताओं को न पहचान सकने के कारण उचित विषयों का चयन नहीं कर पाते और गलत व्यवसायों में प्रवेश कर बैठते हैं तो निश्चित रूप से राष्ट्रीय प्रतिभा का अपव्यय होता है। इस अपव्यय को रोकने के लिए छात्रों को और कई स्थितियों में अभिभावकों को भी ‘निर्देशन एवं मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है।
(iii) अनुशासनहीनता की समस्या (Problem of Indiscipline) – छात्रों की बढ़ती हुई संख्या उनमें अनुशासनहीनता का कारण भी बनी है। अनुशासनहीनता स्कूलों से आरम्भ होती है और शिक्षा समाप्त होते-होते समाज विरोधी तत्वों में परिणत हो जाती है। समाज विरोधी तत्वों के विकास को रोकने के लिए स्कूलों/कॉलेजों में अनुशासनहीनता को समाप्त करना अत्यधिक आवश्यक है। परन्तु कैसे ? इसके लिए अनुशासनहीनता के कारणों को ढूँढ़ना, उनका विश्लेषण करना और छात्रों को स्व-अनुशासन (Self-discipline) के मार्ग पर अग्रसर करना चाहिए, परन्तु यह सब ‘निर्देशन एवं मार्गदर्शन’ के बिना सम्भव नहीं। इसलिए शिक्षण संस्थाओं से अनुशासनहीनता को समाप्त करने के लिए शिक्षा को ‘निर्देशन’ के साथ सम्बन्धित करना अत्यन्त आवश्यक है।
(iv) पाठ्य-विषयों का चयन (Selection of Subjects) – ज्ञान के विस्फोट (Explosion of knowledge) ने कई नवीन विषयों को जन्म दिया है और पुराने विषयों में नये-नये परिवर्तन और परिवर्द्धन किये हैं। विज्ञान और टैक्नॉलोजी के विकास के कारण व्यक्ति को किसी भी व्यवसाय में प्रवेश करने के लिए सैद्धान्तिक तथा तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता रहती है। व्यवसाय भी अनेक हैं, जिनमें व्यक्ति अपनी योग्यताओं, रुचियों तथा क्षमताओं के अनुसार प्रवेश कर सकता है। भारत की वर्तमान शिक्षा पद्धति में दसवीं कक्षा तक सामान्य शिक्षा प्रदान की जाती है। उसके पश्चात् +1 तथा +2 में विभिन्न प्रकार के विषयों की व्यवस्था होती है और छात्रों को उनकी रुचियों के अनुसार विभिन्न व्यवसायों की ओर अग्रसर किया जाता है। ज्ञान, विज्ञान तथा शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे इन परिवर्तनों के कारण छात्रों को विषयों के चयन में कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अधिकांश छात्रों को समझ नहीं आता कि उन्हें किन विषयों का चयन करना चाहिए। बहुत-से छात्र अपनी आरम्भिक सफलता से अपनी योग्यताओं का अधिक अनुमान लगा लेते हैं और ऐसे विषयों का चयन कर लेते हैं, जो अन्ततः उन्हें हताशा की ओर ले जाता है। बहुत-से छात्र अपनी योग्यताओं का बहुत कम अनुमान लगा लेते हैं और बाद में उन्हें पछताना पड़ता है। विषयों के ठीक चयन पर ही छात्रों का भविष्य निर्भर करता है। इस कार्य में बहुत कम माता-पिता मार्गदर्शन प्रदान कर सकते हैं। इसके लिए योग्य, कुशल तथा प्रशिक्षित ‘निर्देशन एवं मार्गदर्शन’ की आवश्यकता होती है। अतः पाठ्य-विषयों के उचित चयन के लिए शिक्षा के क्षेत्र में ‘निर्देशन एवं मार्गदर्शन की व्यवस्था है होना अत्यधिक आवश्यक है।
2. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से आवश्यकता (Need from the Psychological Point of View) –
प्रत्येक व्यक्ति का व्यवहार मनोभावों और मूल प्रवृत्तियों द्वारा प्रभावित होता है। व्यक्ति की कुछ मनोशारीरिक आवश्यकतायें होती हैं। इन आवश्यकताओं की सन्तुष्टि तथा मनोभाव व्यक्ति के व्यक्तित्व को निर्धारित करते हैं। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व पर वंशानुक्रम के साथ-साथ पर्यावरण भी प्रभाव डालता है। निर्देशन की सहायता से यह निश्चित होता है कि बालक के व्यक्तित्व के विकास के लिए पर्यावरण की आवश्यकता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से निर्देशन की आवश्यकता का वर्णन निम्नलिखित है-
(i) व्यक्तित्व का विकास करने के लिए – व्यक्तित्व शब्द की परिभाषा व्यापक है। इसके अन्तर्गत मनो-शारीरिक विशेषतायें तथा अन्तिम गुण आदि सभी शामिल किये जाते हैं। प्रत्येक बालक के व्यक्तित्व का समुचित विकास करना शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है, किन्तु इस उद्देश्य की प्राप्ति में निर्देशन सेवा से सहायता मिलती है। निर्देशन व्यक्ति को वंशानुसंक्रमण से प्राप्त गुणों को प्रकाश में लाकर उनके विकास के लिए उचित पर्यावरण का निर्माण कर अपनी महत्वपूर्ण सेवा प्रदान करता है।
(ii) भावात्मक समस्याओं का समाधान करने के लिए – भावात्मक समस्यायें व्यक्ति के जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों के कारण जन्म लेती हैं। ये समस्यायें व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करती हैं और मानसिक अशान्ति उत्पन्न करती हैं। निर्देशन सहायता द्वारा भावात्मक नियन्त्रण में सहायता मिलती है। इसके अतिरिक्त निर्देशक उन कठिनाइयों का पता लगा सकता है, जिनके कारण भावात्मक अस्थिरता उत्पन्न हुई है।
(iii) वैयक्तिक भिन्नताओं को महत्व देने के लिए – मनोवैज्ञानिक अनुसन्धानों ने वैयक्तिक भिन्नताओं पर अधिक बल दिया है। इन अनुसन्धानों के अनुसार कोई दो व्यक्ति एक समान नहीं हो सकते। प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व भिन्न-भिन्न होता है। यदि हम व्यक्ति के व्यवहारों में आवश्यक परिवर्तन लाना चाहते हैं तो इन विभिन्नताओं को महत्व प्रदान करना अनिवार्य है। बालकों का समुचित विकास करने के लिए उनकी वैयक्तिक विभिन्नताओं को जानना तथा उन्हें विकास की सही दिशा प्रदान करना आवश्यक होता है। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए निर्देशन सेवाओं की सहायता ली जा सकती है।
(iv) समाज में सन्तोषप्रद समायोजन करने के लिए – समायोजन प्रत्येक प्राणी की एक आधारभूत आवश्यकता है। बिना समायोजन के व्यक्ति का जीवन कठिन हो जाता है। व्यक्ति के समायोजन के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति की योग्यताओं तथा क्षमताओं के विकास के अवसर प्रदान किये जाने चाहिएँ। यदि किसी व्यक्ति को अभिव्यक्ति के अवसर नहीं दिए जाते तो उसकी प्रतिभाओं को विकसित होने का अवसर ही नहीं मिलता। यदि स्कूल तथा परिवार के वातावरणों में बहुत अधिक अन्तर है तो बालक को समायोजन करने में कठिनाई होती है। समायोजन के अभाव के अनेक कारण हो सकते हैं, जैसे-पाठ्यक्रम का गलत चुनाव, अयोग्य शिक्षकों का चुनाव। इनके अतिरिक्त यदि किसी छात्र को उसकी रुचि के अनुसार व्यवसाय न मिले तो इस कारण भी उसके सामने समायोजन की समस्या आ सकती है। उसे अपने कार्य से सन्तुष्टि प्राप्त नहीं होती और उसकी उन्नति में बाधा आती है। ऐसी परिस्थितियों में व्यक्ति को निर्देशन की आवश्यकता होती है। निर्देशन के द्वारा उसके समायोजन से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।
(v) मनुष्य की आधारभूत समस्या – अन्य आधारभूत आवश्यकताओं के समान निर्देशन को भी व्यक्ति की एक मूलभूत आवश्यकता माना गया है। निर्देशन के अभाव में व्यक्ति के विकास के मार्ग में अनेक कठिनाइयाँ जा सकती हैं। व्यक्ति जैसे-जैसे विकास के विभिन्न चरणों में प्रवेश करता है, वैसे-वैसे उसकी समस्याओं में वृद्धि होती जाती है और नई-नई परिस्थितियाँ पैदा होने लगती हैं। इन परिस्थितियों को समझना, अवसरों का लाभ उठाना और आवश्यकताओं की पूर्ति तभी सम्भव है, जब व्यक्ति ऐसा करने के योग्य हो। इस योग्यता को अर्जित करने के बाद ही व्यक्ति अनेक समस्याओं को हल कर सकता है और तेजी से विकास कर सकता है। ऐसा करने के लिए निर्देशन की आवश्यकता तो प्रत्येक समय रहती है।
3. सामाजिक दृष्टिकोण से आवश्यकता (Need from Social Point of View) –
सामाजिक निर्देशन की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से होती है-
(i) सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन (Changes in social values)- आज सामाजिक मूल्य निरन्तर परिवर्तित हो रहे हैं। प्राचीन सामाजिक मूल्यों के प्रति आस्था टूट रही है। मूल्यों के इस टकराव में अधिकांश व्यक्ति समझ नहीं पाते कि उन्हें किस ओर जाना चाहिए और क्या करना चाहिए। बिना सोचे-समझे नये मूल्यों को अपना लेना तथा प्राचीन मूल्यों का निरादर करना उतना ही भयानक है जितना प्राचीन मूल्यों का अन्धानुकरण करना । ऐसी स्थिति में मनुष्य को विवेक से काम लेना चाहिए और विवेक के प्रति सजग करने के लिए ‘निर्देशन’ अत्यधिक आवश्यक है।
(ii) मानवीय शक्ति का संरक्षण (Conservation of human energy) – मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। परिवर्तित होते हुए सामाजिक मूल्यों और विघटित परिवारों के उपरान्त व्यक्ति समाज के बिना नहीं रह सकता। उसे समाज में समायोजन प्राप्त करना होता है और समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होती है। ऐसा तभी हो सकता है जब उसकी शक्ति एवं योग्यता सही दिशा में प्रयुक्त हो और इसके लिए ‘निर्देशन का विशिष्ट प्रबन्ध करना अत्यधिक आवश्यक है। कुशल निर्देशन के बिना अधिकांश व्यक्ति भटक जाते हैं और उनकी शक्तियों एवं योग्यताओं का अपव्यय हो जाता है। इसलिए मानवीय शक्ति के संरक्षण और उसके उचित उपयोग के लिए ‘निर्देशन’ की व्यवस्था करना आवश्यक है।
(iii) पारिवारिक मूल्यों में परिवर्तन (Changes in family-values) – परिवार समाज का आधार है। बालक में सामाजिक चेतना जागृत करने की प्रारम्भिक भूमिका परिवार निभाता है, परन्तु इस चेतना के लिए मार्गदर्शन की आवश्यकता है। वह आधुनिक परिवारों में नहीं मिल पाता है। इसका प्रमुख कारण पीढ़ियों का टकराव (Generation Gap) और अन्य व्यावसायिक तथा समायोजन सम्बन्धी समस्यायें हैं। इन समस्याओं के कारण संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। फलस्वरूप व्यक्ति को अपने परिवार से वांछित निर्देशन नहीं मिल पाता। इस अभाव को पूरा करने के लिए ‘निर्देशन’ का विशिष्ट प्रबन्ध करना अत्यधिक आवश्यक है।
4. आर्थिक दृष्टिकोण से आवश्यकता (Need from Economic Point of View)-
प्राचीन काल में बालक अपने पैतृक व्यवसाय को अपना लेते थे और उनके सामने रोजी-रोटी की विशेष समस्या नहीं होती थी, परन्तु वर्तमान युग में ऐसा सम्भव नहीं। प्रत्येक बालक पैतृक व्यवसाय नहीं अपना सकता। फिर, केवल अपनी रोजी-रोटी की चिन्ता करना ही पर्याप्त नहीं, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को विकसित करना भी प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है। विज्ञान और टैक्नॉलोजी ने नये-नये व्यवसायों के द्वार खोल दिए हैं। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी रुचियों, योग्यताओं तथा क्षमताओं के अनुसार व्यवसाय चुनने और उसमें प्रशिक्षण प्राप्त करने के अवसर प्राप्त होने चाहिएँ। इसी लक्ष्य को पूरा करने के लिए आजकल व्यावसायिक शिक्षा (Vocational Education) पर बल दिया जा रहा है, परन्तु उचित ‘निर्देशन’ के अभाव में व्यक्ति को उसकी रुचियों और योग्यताओं के अनुरूप व्यवसाय चयन की ओर अग्रसर करना असम्भव है, अतः व्यक्ति और देश के आर्थिक विकास के लिए कुशल ‘निर्देशन’ अत्यन्त आवश्यक है।
5. वैयक्तिक विकास की दृष्टि से आवश्यकता (Need from the Point of View of Individual Development) –
वैयक्तिक विकास में निर्देशन की आवश्यकता अग्रलिखित कारण से है-
(1) वैयक्तिक विभिन्नता (Individual differences) – यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि कोई भी दो व्यक्ति एक जैसे नहीं होते। सभी व्यक्ति एक दूसरे से शारीरिक, संवेगात्मक, मानसिक और बौद्धिक दृष्टिकोण से एक-दूसरे से भिन्न हैं। यही वैयक्तिक भिन्नता केवल छात्रों के लिए ही नहीं, बल्कि शिक्षकों के लिए भी कई बार विकट समस्या का कारण बन जाती है। शिक्षक एक डण्डे से सम्पूर्ण कक्षा हो हांकना चाहता है, परन्तु कई छात्र मानसिक रूप से ऐसा नहीं चाहते और शिक्षक की इच्छानुसार घिसटते रहते हैं। इससे कई प्रकार की मानसिक समस्यायें उत्पन्न हो जाती हैं। शिक्षक के लिए 40-50 छात्रों की कक्षा में ‘वैयक्तिक-विभिन्नता’ की ओर ध्यान देना कठिन होता है। छात्रों की वैयक्तिक रुचियों, योग्यताओं तथा समस्याओं से छात्रों तथा शिक्षकों को अवगत कराने के लिए ‘निर्देशन एवं मार्गदशन’ की सुव्यवस्था अत्यन्त आवश्यक है।
(ii) अवकाश काल का सदुपयोग (Utilisation of leisure time) – भौतिकता की अन्धी दौड़ में भी लोगों को पर्याप्त अवकाश काल मिल जाता है। प्रत्येक कार्यालय एवं संस्थाओं का कार्यकाल निश्चित होता है। उसके पश्चात् लोग क्या करें ? इसी अवकाश काल में किया गया कार्य व्यक्ति के विकास में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसी काल में व्यक्ति बुराइयों की ओर अग्रसर भी हो सकता है और रुचिपूर्ण कार्यों (Hobbies) को करके अपने व्यक्तित्व को रचनात्मक विकास की ओर अग्रसर कर सकता है, परन्तु कैसे ? इस प्रश्न का उत्तर ‘निर्देशन एवं मार्गदर्शन’ के पास है। अधिकांश व्यक्तियों को अपनी रुचियों, अभिरुचियों तथा आन्तरिक क्षमताओं का ज्ञान नहीं होता। फलस्वरूप वे अपना अवकाश काल व्यर्थ की बातों में बिता देते हैं, असामाजिक कार्यों में रुचि लेने लगते हैं। यदि स्कूल स्तर पर ‘निर्देशन एवं मार्गदर्शन की सुव्यवस्था हो तो छात्रों को उनकी रुचियों एवं अभिरुचियों का ज्ञान करा कर उन्हें अवकाश काल के सदुपयोग की ओर अग्रसर किया जा सकता है। इसलिए अवकाश काल के सदुपयोग के लिए ‘निर्देशन एवं मार्गदर्शन’ की सुव्यवस्था आवश्यक है।
(iii) सन्तोषप्रद समायोजन (Satisfactory Adjustment)- व्यक्तित्व के विकास के लिए सन्तोषप्रद समायोजन अत्यधिक आवश्यक है। स्कूल और परिवार के वातावरण से लेकर जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में व्यक्ति को समायोजन की समस्याओं का सामना करना होता है। यदि व्यक्ति को अपनी मानसिक और बौद्धिक योग्यताओं की पहचान हो और वह निरन्तर परिवर्तित होती स्थितियों में कार्यरत तत्वों एवं कारणों को समझ सके तो उसके लिए समायोजन की समस्या इतनी विकट सिद्ध नहीं होगी और उसका व्यक्तित्व निरन्तर विकास की ओर अग्रसर रहेगा। अपने आप को आस-पास के वातावरण तथा परिवर्तनशील स्थितियों को समझने के लिए छात्रों के लिए निर्देशन एवं मार्गदर्शन’ की कुशल व्यवस्था करना अत्यधिक आवश्यक है।
(iv) प्रतिभा सम्पन्न छात्रों का विकास (Development of gifted students) – कक्षा में अधिकतर छात्र सामान्य होते हैं, कई पिछड़े हुए होते हैं और कई प्रतिभा सम्पन्न होते हैं। शिक्षक अपना शिक्षण कार्य प्रायः सामान्य स्तर पर रखता है। इससे सामान्य छात्रों को तो लाभ होता ही है, पिछड़े हुए या मन्द बुद्धि छात्र भी कुछ ज्यादा ध्यान देने से और बार-बार अभ्यास कार्य करते रहने से सामान्य छात्रों के साथ कदम मिला लेते हैं, परन्तु सामान्य शिक्षण कार्य प्रखर बुद्धि छात्रों को पर्याप्त रूप से लाभान्वित नहीं कर सकता। ऐसे छात्रों की संख्या बहुत कम होती है। ऐसे छात्र अपनी मौन प्रवृत्ति के कारण या तो पहचाने नहीं जाते हैं या शिक्षक की उपेक्षा का शिकार हो जाते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि ऐसे छात्रों की ओर विशेष ध्यान दिया जाये ताकि इनकी प्रतिभा का पूर्ण विकास हो सके। अनेक बार ऐसे छात्र कक्षा के लिए। समस्या भी बन सकते हैं। ऐसे छात्रों के समुचित विकास के लिए इनकी पहचान तो जरूरी ही है, साथ में इनके समुचित विकास के लिए इनका पथ-प्रदर्शन भी आवश्यक है और इस आवश्यकता को निर्देशन के द्वारा पूरा किया जा सकता है।
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