समाजशास्त्र एवं निर्देशन / SOCIOLOGY & GUIDANCE TOPICS

निर्देशन के प्रमुख सिद्धान्त | main principles of direction in Hindi

निर्देशन के प्रमुख सिद्धान्त | main principles of direction in Hindi
निर्देशन के प्रमुख सिद्धान्त | main principles of direction in Hindi

निर्देशन के प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।

निर्देशन की प्रक्रिया अत्यन्त व्यापक है। इस प्रक्रिया के सिद्धान्तों की संख्या भी निश्चित नहीं है। विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों एवं विद्वानों ने निर्देशन के सिद्धान्तों की संख्या भिन्न-भिन्न बतायी है। जौन्स (Jones) ने निर्देशन के सिद्धान्तों की संख्या 5 बताई है, जबकि हम्फ्रीज तथा टैक्सलर (Humpheris and Traxler) ने यह संख्या 7 बताई है। को एण्ड को ने निर्देशन के 14 सिद्धान्तों का उल्लेख किया है। लीफिवर तथा रसेल ने भी निर्देशन के 14 सिद्धान्तों को बताया है।

निर्देशन के सिद्धान्त (Principles of Guidance)

निर्देशन के सिद्धान्त निम्नलिखित है-

1. निर्देशन जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है- निर्देशन की जितनी आवश्यकता विशिष्ट समस्या वाले व्यक्ति को है, उतनी ही सामान्य व्यक्ति के लिए भी है। निर्देशन प्रक्रिया किसी विशेष आयु के लोगों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह प्रक्रिया पूरे जीवन भर चलती रहनी चाहिए। अधिकाँश समस्यायें ऐसी होती हैं, जिनका समाधान तुरन्त प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। इन समस्याओं के निर्णय सूझ-बूझ से कर लिए जाते हैं, जल्दबाजी में नहीं। इसके अतिरिक्त विशिष्ट समस्या का समाधान प्राप्त हो जाने के पश्चात् उपबोध्य के समक्ष अन्य बहुत-सी समस्यायें उत्पन्न रहती हैं, जिसके फलस्वरूप निर्देशन की आवश्यकता विद्यमान रहती है। इस प्रकार निर्देशन जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है।

2. निर्देशन प्रक्रिया से सम्बन्धित विभिन्न कार्यकर्ताओं के कार्यों में समन्वय- निर्देशन प्रक्रिया आधुनिक युग में व्यापक तथा विस्तृत होती जा रही है। निर्देशन सेवाओं का संगठन इस प्रकार से किया जाना चाहये कि समस्त निर्देशन कार्यकर्ताओं के प्रयत्नों में भी समन्वय की स्थापना की जा सके। प्रत्येक कार्यकर्ता अपनी योग्यता के अनुसार योगदान करे तथा सभी कार्यकर्त्ता अपने प्रयत्नों को समन्वय की दिशा में ले जायें। इसके लिए सबसे पहले निर्देशन सेवाओं को तर्कसंगत आधार पर संगठित किया जाये। दूसरे, विशिष्ट योग्यताओं के अनुसार अलग-अलग कार्यकर्ताओं को अलग-अलग भूमिकायें सौंपी जायें तथा निर्देशन सेवाओं से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सम्बद्ध प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे की सहायता करे।

3. विशिष्ट पहलू से होते हुये भी उपबोध्य का सर्वागीण विकास में निर्देशन कार्यक्रमों को सहयोग प्रदान करना चाहिए– निर्देशन का महत्वपूर्ण सिद्धान्त व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में सहायता करना है। यद्यपि निर्देशन के कार्य की शुरुआत किसी विशिष्ट समस्या के सन्दर्भ में होती है, फिर भी उसका प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में सहायक होता है। किसी भी कार्य को करते समय व्यक्ति के दृष्टिकोण, मान्यतायें, मूल्य तथा कार्य करने के तरीके इत्यादि में उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व प्रतिच्छायित होता है। अतः निर्देशन सेवाओं को व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास में सहायक होना चाहिए।

4. समकालीन राजनीतिक तथा सामाजिक परिस्थितियों से निर्देशकों को परिचित होना चाहिए- निर्देशकों को समकालीन राजनीतिक तथा सामाजिक जीवन से भी परिचित होना चाहिए। क्रो और क़ो के अनुसार व्यक्ति के अपसमायोजन में तत्कालीन राजनीतिक तथा सामाजिक अशान्ति का महत्वपूर्ण स्थान होता है। इसलिए समस्यायें ढूँढ़ते समय न राजनीतिक तथा सामाजिक संदर्भों को दृष्टिगत रखना चाहिए, जिनके कारण अपसमायोजन की स्थितियाँ उत्पन्न होती है।

5. निर्देशन कार्यकर्त्ताओं को आवश्यक गोपनीयता बनाये रखकर नैतिक आचरण संहिता का पालन करना चाहिए- निर्देशकों को विद्यार्थियों अथवा निर्देशन प्राप्त करने वाले व्यक्तियों का विश्वास अटूट रखने के लिए उनके द्वारा प्रदत्त व्यक्तिगत सूचनाओं को अनिवार्य रूप से सभी के सामने नहीं बताना चाहिए। गोपनीयता के नैतिक मानदण्डों का पालन उन्हें कठोरता से करना चाहिए। निर्देशन सेवाओं में लगे हुये व्यक्तियों को यदि इस प्रकार की जानकारी देनी हो तो भी उसे व्यक्तिगत रूप से मिलकर बताना चाहिए न कि उसे फाइल इत्यादि पर नोट देकर।

6. व्यक्ति के महत्व तथा प्रतिष्ठा की स्वीकृति- प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शक्तियों सम्भाव्यताओं तथा क्षमताओं के अनुसार पूर्ण विकास तक ले जाना निर्देशन का लक्ष्य है तथा तभी समाज संगठित रूप से अधिगम उन्नति कर सकता है। इसी सिद्धान्त से सम्बन्धित निर्देशन का एक और सिद्धान्त यह है कि निर्देशन की सुविधा सभी को उपलब्ध हो, केवल कुछ विशेष आवश्यकता वाले व्यक्ति के लिए ही नहीं। साधारण व्यक्ति के जीवन में उन्नति के लिए तथा समस्याओं के समाधान के लिए भी निर्देशन उतना ही आवश्यक है, जितना कि विशिष्ट समस्या वाले व्यक्ति के लिए।

7. निर्देशन सेवा में कार्य करने वाले व्यक्तियों को विशेष प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए- आधुनिक युग में विज्ञान तथा अध्ययन की व्यापकता के साथ ही प्रत्येक क्षेत्र में विशेषीकरण का जोर है। आज नयी-नयी समस्याओं तथा परिस्थितियों में व्यक्ति साधारण अनुभव प्राप्त करके सफल निर्देशक नहीं हो सकता। इसके लिए निर्देशन कार्यकर्ताओं को अपने-अपने कार्य की विशेष दीक्षा की व्यवस्था की जाती है। मूल्याँकन तथा व्यवहार के अध्ययन हेतु व्यावसायिक योग्यता को जात करने के लिए, व्यक्ति की समस्या का अध्ययन करने के लिए विशेष योग्यता प्राप्त व्यक्ति की आवश्यकता होती है। इसीलिए कुशल निर्देशन के लिए निर्देशन कार्यकर्ताओं के विशेष प्रशिक्षण का प्रावधान जरूरी है।

8. निर्देशन कार्य में विशिष्ट पहलू पर ध्यान रखते हुये व्यक्ति को सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर दृष्टि रखनी चाहिए-व्यक्ति की समस्यायें शैक्षिक, व्यावसायिक, व्यक्तिगत अथवा अन्य प्रकार की हो सकती हैं, पर उनका सम्बन्ध एक-दूसरे से बना रहता है। उदाहरणार्थ-व्यावसायिक निर्देशन में व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास तथा उसके समायोजन से सम्बन्धित कठिनाइयों को भी दृष्टिगत रखना होता है। व्यक्ति एक संश्लिष्ट इकाई के रूप में कार्य करता है। आवश्यकता के अनुसार तथ्यों, रुचियों तथा अन्य मानसिक शक्तियों का विश्लेषण अध्ययन अलग-अलग कर सकता है।

9. निर्देशन सेवा पर्याप्त आँकड़ों के वस्तुगत अध्ययन और पर्याप्त विश्लेषण पर आधारित होनी चाहिए-आज के युग में निर्देशन की प्रक्रिया बहुत आगे बढ़ चुकी है। समस्याओं का अध्ययन अब विस्तृत परिप्रेक्ष्य में किया जाता है तथा प्राप्त आँकड़ों के आधार पर निर्देशन कार्य चलता है। बिना गहराई से अध्ययन किये हुये यदि कोई परामर्शदाता अपना कार्य करता है तो उपबोध्य को लाभ के स्थान पर हानि पहुँचा सकता है। शैक्षिक, व्यावसायिक एवं निजी किसी भी क्षेत्र में निर्देशन की सफलता के लिए निर्देशन के पास विभिन्न संस्थाओं, व्यावसायिक सूचना प्राप्ति के सूत्रों और व्यक्ति को रोजगार प्रदान करने में सहायता देने वाली संस्थाओं के विकास में पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए।

10. निर्देशन व्यक्ति को अपनी समस्याओं में स्वयं निर्देशन करने की योग्यता विकसित करने में सहायता प्रदान करता है- निर्देशन का महत्वपूर्ण सिद्धान्त है कि वह निर्देशन प्राप्त करने वाले व्यक्ति की इस प्रकार सहायता करे कि वह समस्याओं के प्रति अपने-अपने विवेक, सूझ तथा निर्णय की योग्यता का विकास करे। इसके लिए व्यक्ति को अपनी परिस्थितियों को समझने, उनमें समायोजन करने तथा अपनी क्षमताओं से परिचित होने में निर्देशन सहायता करता है। व्यक्ति को धीरे-धीरे उत्तरदायित्वों को वहन करने में सहायता प्रदान कर निर्देशन उसे प्रौढ़ता की ओर ले जाता है तथा फिर धीरे-धीरे व्यक्ति समस्याओं के बारे में आत्मनिर्भरता तथा आत्मविश्वास विकसित कर लेता है।

11. निर्देशन व्यवस्था में समाज तथा व्यक्ति की आवश्यकतानुसार परिवर्तन किये जा सकने के लिए कुछ लचीलापन होना चाहिए – व्यक्तियों की समस्या उस परिवेश में उत्पन्न होती है, जहाँ वह जीवन व्यतीत करता है। परिवेश के परिवर्तित होने से समस्याओं का रूप भी परिवर्तित होता रहता है। इसलिए निर्देशन में आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन के लिए लचीलापन होना चाहिए। व्यवस्थित निर्देशन कार्यक्रम रूढ़ियों पर आधारित न होकर समाज तथा व्यक्ति की आवश्यकतानुसार सतत परिवर्तन का प्रावधान रखता है।

12. अधिकांश व्यक्तियों को सामान्य व्यक्ति मानकर निर्देशन कार्यक्रमों को परिचालित करना चाहिए निर्देशन सेवाओं की व्यवस्था करते समय अधिकाँश व्यक्ति को सामान्य मानना चाहिए। कुछ विशिष्ट व्यक्ति बौद्धिक अथवा शारीरिक रूप से पिछड़े हों अथवा जिनका संवेगात्मक विकास अत्यधिक अपर्याप्त हो, विशेष निर्देशन की आवश्यकता का अनुभव करते हैं। ऐसे लोगों के लिए निर्देशन की विशिष्ट सुविधायें प्रदान की जा सकती हैं, परन्तु अधिकांश व्यक्ति जो ‘सामान्य’ के अन्तर्गत रखे जा सकते हैं। समस्याओं तथा समायोजन के लिए निर्देशन सेवाओं की व्यवस्था की जानी चाहिए। विद्यार्थियों के मन पर ऐसा प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए कि निर्देशन कार्यकर्त्ता केवल ‘समस्या विद्यार्थियों’ पर ही अपना ध्यान केन्द्रित रखते हैं। इसके लिए विशिष्ट समस्या वाले विद्यार्थियों को विशेष योग्यता प्राप्त निर्देशकों को सौंपकर सामान्य निर्देशन सामान्य विद्यार्थियों के लिए अधिक समय निकाल सकता है।

13. निर्देशन सेवायें प्रदान करते समय वैयक्तिक मिन्नताओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए- यद्यपि सामान्य व्यक्तियों की अनेक समस्याओं में बहुत कुछ समानता होती है, परन्तु फिर भी परिवेश आनुवांशिकता के कारण समस्याओं का स्रोत अलग-अलग हो सकता है। निर्देशन कार्यकर्त्ता को निर्देशन सेवायें प्रदान करते समय वैयक्तिक भिन्नताओं को अपनी दृष्टि में रखना चाहिए।

14. शैक्षिक प्रक्रिया का अंग-निर्देशन को शिक्षा की सम्पूर्ण प्रक्रिया को ही एक उप-क्रिया के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। निर्देशन को मात्र शिक्षण कार्य से सम्बद्ध करना ही उचित नहीं है, बल्कि इसे तो शिक्षा की समस्त क्रियाओं जैसे—अनुशासन, उपस्थिति, सहगामी क्रियाओं तथा मूल्यांकन से भी जोड़ा जाना चाहिए। शिक्षा का एक अभिन्न अंग मानकर ही निर्देशन को सफलता से चलाया जा सकता है।

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Anjali Yadav

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