बाल अपराध की रोकथाम के उपाय बताइये।
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बाल अपराध की रोकथाम (Prevention of Delinquency)
बालापराध ऐसी समस्या नहीं है जो हल न की जा सकती हो, परन्तु इस समस्या के समाधान में समाज के सभी वर्गों का सहयोग अपेक्षित है। इस समस्या का समाधान करने में ये साधन पूर्णतः योग दे सकते हैं-
1. परिवार (Family)
परिवार इन प्रयत्नों के द्वारा बालापराध की रोकथाम कर सकता है-
(i) वातावरण (Environment)– बालकों को परिवार में ऐसा वातावरण दिया जाये, जिससे उन्हें किसी प्रकार असन्तोष न हो। साथ ही बच्चों में अच्छी आदतों का विकास किया जाये। यह कार्य बिना किसी अतिरिक्त व्यय के किया जा सकता है।
(ii) अनुशासन (Discipline) – परिवार का अनुशासन न तो बहुत कठोर हो और न बहुत ढीला। बच्चों को उचित प्यार दिया जाये तथा माँ-बाप को अपने बच्चों में किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं करना चाहिए। माता-पिता को यह चाहिए कि वे बालकों की जानकारी में ऐसा कार्य न करें, जिनसे माता-पिता बच्चों की दृष्टि से गिर जायें।
(iii) बच्चों की आवश्यकतायें (Needs of the Children)- परिवार में विभिन्न आयु-स्तर के बच्चों की आवश्यकतायें समझी जायें और उनको पूर्ण करने का उचित प्रबन्ध किया जाये। साथ ही उनके विचारों को घर में उचित स्थान मिलना चाहिए और उनकी उपेक्षा किसी स्थिति में नहीं करनी चाहिए। इससे उनमें संवेगात्मक विकास उचित ढंग से हो सकेगा।
2. समाज (Society)
बालापराध को रोकने के लिए समाज ये प्रयत्न कर सकता है-
(i) पुस्तकालय तथा वाचनालय (Libraries and Reading Rooms) – बच्चों को अच्छा साहित्य पढ़ने के लिए पुस्तकालय तथा वाचनालयों में प्रबन्ध होना चाहिए।
(ii) सामुदायिक संघ (Community Association) – बड़े-बड़े शहरों में सप्ताह में एक दिन ऐसा निर्धारित किया जाए, जब मुहल्ले के स्त्री-पुरुष बैठकर आपस में बातचीत कर सकें। साथ ही बच्चों के लिए भी सामाजिक संगठनों का आयोजन किया जाए, जहाँ पर बालक अपनी योग्यता का सदुपयोग कर सकें।
(iii) राजनीति से दूर (Faraway from Politics)- छात्रों को राजनीति से दूर रखा जाए।
(iv) मनोरंजन के साधन (Means of Recreation) – बच्चों के खेल तथा मनोरंजन के लिए समाज में स्थान-स्थान पर केन्द्र स्थापित किये जायें, जहाँ बच्चे अपने खाली समय का सदुपयोग कर सकें।
(v) चलचित्र (Movies) – बालापराधी बनाने में चलचित्र कई प्रकार के उपादान प्रस्तुत करता है, जिनसे बच्चे बालपराधों को करने के लिए विवश हो जाते हैं। बच्चों को आदर्श जीवन की प्रेरणा देने वाले चलचित्रों के प्रदर्शन की व्यवस्था होनी चाहिए। चलचित्रों में जीवन की वास्तविकता को दर्शाया जाये।
(vi) मान्यता प्राप्त सामाजिक संस्थायें (Recognised Social Institutions) – बच्चों के पढ़ाने के केन्द्र, समाज द्वारा मान्यता प्राप्त होने चाहिएं। उनमें उत्तरदायी व्यक्ति काम करें, जो अपने कर्त्तव्य को ठीक प्रकार से निभायें।
(vii) गन्दी बस्तियों का उद्धार (Reforms in Slums) – गन्दी बस्तियों को शहरों से हटा देना चाहिए, क्योंकि मनोवैज्ञानिकों का मत है कि बालापराध के विकास में गन्दी तथा औद्योगिक बस्तियों का योग अधिक रहता है।
3. विद्यालय के कर्त्तव्य (Duties of School)
बालापराध को रोकने के लिए विद्यालय अपने यहाँ इस प्रकार की व्यवस्था कर सकता है-
(i) स्वतन्त्रता (Freedom)- बच्चों को अपने कार्यों में उचित स्वतन्त्रता दी जाए, जिससे वे अपनी शक्तियों का विकास कर सकें।
(ii) अध्यापक का व्यवहार (Teacher’s Behaviour)- अध्यापक का बच्चों के प्रति व्यवहार पक्षपातरहित हो। उसका चरित्र बालकों के लिए आदर्श हो। वह बच्चों की आवश्यकता को समझता हो। व्यवहार में सहानुभूति, प्रेम, दया तथा सहयोग की भावना हो। इससे छात्र अध्यापक को प्रेम करते हैं तथा श्रद्धा रखते हैं।
(iii) मनोरंजन का प्रबन्ध (Provision of Recreation) – विद्यालय में बच्चों की आयु तथा रुचि के अनुसार खेल का प्रबन्ध होना आवश्यक है। इससे बालकों की दमित इच्छायें प्रकट हो जाती हैं।
(iv) संवेगात्मक वातावरण (Emotional Climate) – संवेगात्मक वातावरण बच्चों के मस्तिष्क पर प्रभाव डालता है। आपस में बच्चों के सम्बन्ध अच्छे हों। उनमें जाति के आधार पर कोई भेद नहीं होना चाहिए। अध्यापकों के आपस में तथा प्रधान अध्यापक के साथ सम्बन्ध अच्छे हों। बच्चों को सन्तोषजनक अनुभव मिलें। साथ ही अध्यापक की शिक्षण विधि भी रोचक हो और व्यक्तिगत भिन्नता पर आधारित हो।
(v) पुस्तकालय तथा वाचनालय (Reading Rooms & Libraries) – प्रत्येक विद्यालय में अच्छे पुस्तकालय तथा वाचनालय की व्यवस्था का होना आवश्यक है। उनमें छात्रों की रुचि के अनुसार पुस्तकों तथा पत्र-पत्रिकाओं की व्यवस्था की जाए। इससे उनकी रुचि परिष्कृत होती है।
(vi) धार्मिक व नैतिक शिक्षा (Religious and Moral Education) – धार्मिक और नैतिक शिक्षा का प्रबन्ध प्रत्येक विद्यालय में किया जाना चाहिए। बच्चों में उच्च आदर्श का विकास करना चाहिए। इससे आदर्शों की प्राप्ति का ढंग बालकों को ज्ञात होगा।
(vii) अध्यापक-अभिभावक संघ (Teacher’s Parents Association)- अध्यापक अभिभावकों के संघ का निर्माण किया जाए और बच्चों की समस्याओं का समाधान किया जाए। अध्यापक तथा अभिभावक विचारों के आदान-प्रदान से अनेक महत्वपूर्ण समस्याओं का समाधान कर लेते हैं।
(viii) परीक्षा प्रणाली (Examination System) – बच्चों का दैनिक कार्य देखना चाहिए एवं उसकी पूरे वर्ष की प्रगति को मापते हुए उसे कक्षा में उत्तीर्ण करना चाहिए।
(ix) पाठ्यक्रम में परिवर्तन (Change in Curriculum)- आजकल बच्चों को अपनी योग्यता के आधार पर विषय चुनने का अवसर नहीं दिया जाता है, जिससे पाठ्यक्रम में उनकी रुचि नहीं हो पाती और जिसका परिणाम छात्रों का कक्षा से भाग जाना, कक्षा में असामाजिक व्यवहार करना आदि होता है। पाठ्यक्रम का निर्माण इस ढंग से किया जाए, जिससे वह जीवन के साथ सम्पर्क कराने में उपयोगी सिद्ध हो सके।
(x) मार्ग-प्रदर्शन (Guidance) – व्यक्तिगत, शैक्षिक तथा व्यावसायिक निर्देशन के द्वारा बच्चों को बालापराधी बनने से रोका जा सकता है। बच्चों की व्यक्तिगत समस्याओं को समय-समय पर निर्देशन द्वारा सुलझाया जा सकता है। इससे उनमें निहित शक्तियों का उद्भव होता है
4. अध्यापक का कर्त्तव्य (Teacher’s Role)
अध्यापक को कक्षा में बालापराध-व्यवहार को ठीक करने के लिए निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए-
(i) कक्षा में उत्पन्न समस्याओं को आत्म-नियन्त्रण द्वारा हल करना चाहिए। यदि अध्यापक आत्म-नियन्त्रण खोकर अपनी कक्षा के अनुशासन को ठीक करना चाहता है, तो वह गलती पर है।
(ii) अध्यापक को क्लीनिकल सुविधाओं का लाभ उठाना चाहिए। इससे वह बालकों का सुधार कर सकता है। ‘क्लीनिकल रिकार्ड्स से अध्यापक काफी लाभ उठा सकता है।
(iii) अध्यापक को यह न भूलना चाहिए कि किसी न किसी रूप में अपराधी व्यवहार उसके जीवन में भी हुआ है। अतः अपने व्यवहार को सामने रखकर वह छात्रों के व्यवहार को ठीक करे।
(iv) बालापराधी बालकों को संवेगात्मक रूप से अव्यवस्थित समझना चाहिए। अतः उनकी भावना का ध्यान रख कर उनके साथ उसी स्तर से व्यवहार करना चाहिए।
5. बालापराधी का उपचार तथा सुधार (Cure and Reform of Delinquent)
बालापराध के उपचार के लिए सबसे पहले हमें बाल-अपराधियों का पता लगा लेना चाहिए। यह जानकारी निम्नलिखित विधियों द्वारा प्राप्त की जा सकती है-
(i) मनोवैज्ञानिक परीक्षण (Psychological Tests) – मनोवैज्ञानिक परीक्षण के द्वारा अपराधी की बुद्धि, व्यक्तित्व. का विकास तथा यह निर्णय करना चाहिए कि बच्चा किस क्षेत्र में दोषी है।
(ii) शारीरिक परीक्षा (Physical Test) – सबसे पहले शारीरिक परीक्षण कराया जाये और यह देखा जाए कि उनमें कोई शारीरिक दोष तो नहीं है, क्योंकि बहुत से बालकों में अपराधों का कारण शारीरिक दोष होते हैं।
(iii) साक्षात्कार (Interview) – माँ-बाप, मित्र, अध्यापक आदि से साक्षात्कार करके बच्चे के बारे में अन्य बातों का पता लगाया जाये। बच्चों के अपराधों के कारणों को जानने के पश्चात् ही उपचार कार्य आरम्भ होता है।
6. बालापराध दूर करने की विधियाँ (Methods of Removal of Delinquency)
बालापराधी के उपचार की निम्न विधियाँ हैं-
1. मनोवैज्ञानिक विधि (Psychological Methods)
इस विधि को निम्न भागों में बाँटा जा सकता है
(i) सामाजिक विधि (Social Methods) – इसके अन्तर्गत बालक की समस्याओं का पता लगाकर बच्चे को उसके वातावरण से अलग नहीं किया जाता, अपितु उसके वातावरण में आवश्यक परिवर्तन कर दिए जाते हैं। बच्चे की आवश्यकता को पूरा किया जाता है। माँ-बाप के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने का प्रयत्न किया जाता है एवं अपराधी बालक को प्रोबेशन पर रखा जाता है। इस विधि में बच्चे के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार, अच्छे निर्देश इत्यादि दिए जाते हैं। बच्चे की समस्याओं को समझने तथा उनको स्वयं दूर करने का प्रयत्न किया जाता है।
(ii) खेल चिकित्सा (Play Therapy) – बालापराधियों की चिकित्सा के लिए खेल एक उत्तम साधन है, खेलों के द्वारा बालक की दमित भावनायें प्रकट होती हैं, अचेतन तन-मन स्वस्थ होने लगता है, बालक की अपराधी प्रवृत्ति में परिवर्तन होने लगता है, शोधन एवं मार्गान्तीकरण के द्वारा बालक के व्यवहार में परिवर्तन होने लगता है। रचनात्मक खेलों के माध्यम से बालक, में अपराधी प्रवृत्ति के बजाय सृजनात्मक प्रकृति का विकास होने लगता है।
(iii) संवेगात्मक आघात (Emotional Therapy)- बाल अपराधी को अचानक ही उसका हृदय परिवर्तन करने के लिए संवेगात्मक आघात दिया जाता है। इस आघात से उसे अपराध के प्रति घृणा उत्पन्न हो जाती है। वह अपराध करना छोड़ देता है।
(iv) वातावरणीय विधि (Environmental Method)- इसके अनुसार उस बालक का उपचार किया जाता है, जिसको वर्तमान वातावरण में सुधार कर सकना सम्भव नहीं है। ऐसे बालकों को दूसरे वातावरण में रखा जाता है। सुधारगृह या पालनगृह आदि में रखकर उचित रूप से बाल अपराधियों का उपचार किया जाता है।
(v) बाल केन्द्रित उपचार (Child Central Therapy) – इस विधि के द्वारा बालक को केन्द्र मानकर उसकी अपराधी प्रवृत्तियों में शोधन किया जाता है, बालकों को अच्छा वातावरण प्रदान किया जाता है। योग्य शिक्षक, वैयक्तिक भिन्नता को ध्यान में रखकर उन्हें व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करते हैं।
2. मनोविश्लेषण विधि (Psychoanalysis Method)
इस विधि में बच्चे के अवचेतन मन का विश्लेषण किया जाता है। उसकी दबी हुई इच्छाओं तथा संवेगों का पता स्वतन्त्र साहचर्य, स्वप्न विश्लेषण द्वारा लगाया जाता है। उसके दबे हुए द्वन्द्व को किसी प्रकार निकाला जाता है। इस विधि में समय अधिक लगता है और इसमें बाल-अपराधी के सहयोगी की बहुत आवश्यकता रहती है। कभी-कभी अपराधी अपनी दबी हुई इच्छाओं को प्रकट करने में असहयोग करता है।
3. मानसिक चिकित्सा (Mental Therapy)
यह विधि छोटे-छोटे अपराधों की चिकित्सा के लिए उपयोग की जाती है। इस विधि में मानसिक द्वन्द्व तथा तनाव को अचेतन मन में भेजने का प्रयत्न किया जाता है। इस विधि में सबसे बड़ा भय यह रहता है कि बालकों की एक समस्या तो ठीक हो जाती है, किन्तु दूसरी उत्पन्न हो जाती है। यह विधि व्यक्तिगत तथा सामूहिक दोनों ही रूपों में प्रयोग की जा सकती है।
4. सामाजिक चिकित्सा (Social Therapy)
समाज भी बालापराधियों की चिकित्सा के लिए सजग रहता है, ऐसे बालक, जिनको अपराध के कारण सजा मिलती है, उन्हें सजा के माध्यम से सुधारने का प्रयास किया जाता है, समाज बालापराधियों को सुधारने के लिए निम्न कार्य करता है-
(i) सुधारगृह (Reformaterics) – इन सुधारगृहों में बाल अपराधियों को रखा जाता है। यहाँ उन्हें औद्योगिक प्रशिक्षण दिया जाता है। भारत में ये सुधारगृह हिसार, लखनऊ, जबलपुर, हजारीबाग एवं पूना में हैं।
(ii) परिवीक्षण (Probation)- अपराधी बालक को सुधार के आश्वासन के साथ जमानत पर छोड़ दिया जाता है। समाज में उसके व्यवहार पर कड़ी नजर रखी जाती है। अच्छे आचरण पर उसका दण्ड समाप्त कर दिया जाता है।
(iii) बाल बन्दीगृह (Juvenile Jail) – अपराधी बालकों को सुधारने के लिए पृथक् बाल बन्दीगृहों की स्थापना की जाती है। इनमें बालकों को सामान्य बन्दियों से अलग रखा जाता है। यहाँ पर विद्यालय होते हैं। उन्हें पढ़ाया जाता है। विभिन्न व्यवसायों का प्रशिक्षण दिया जाता है और उन्हें इस लायक बना दिया जाता है कि वे सजा पूरी होने के बाद अपना व्यवसाय आरम्भ कर सकें।
(iv) बाल परामर्श केन्द्र (Juvenile Guidance Bureau)- इस प्रकार का एक केन्द्र दिल्ली में खोला गया है जहाँ बाल अपराधियों को मनोवैज्ञानिक परामर्श दिया जाता है।
(v) बोर्टल स्कूल (Borstal School) – इनमें 16-21 वर्ष के अपराधी रखे जाते हैं। ये संस्थायें राज्य के जिले प्रशासन के नियन्त्रण में चलाई जाती हैं। तमिलनाडु, महाराष्ट्र, बंगाल, मैसूर एवं मध्य प्रदेश में इस प्रकार के स्कूल चलाये जा रहे हैं।
(vi) किशोर न्यायालय (Juvenile Courts) – इन अदालतों में अनौपचारिक ढंग से न्यायाधीश अपराधियों को दण्ड न देकर सुधार अधिकारी की देखरेख में सुधारगृह में रखा जाता है। अनेक राज्यों में किशोर न्यायालयों की स्थापना की गई है।
(vii) सर्टिफाइड स्कूल (Certified School) – हल्के अपराधियों को इन विद्यालयों में रखा जाता है। इनमें व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाता है। भारत के हर प्रदेश में इस तरह के विद्यालय हैं।
विशिष्ट बालकों (Exceptional Children) की परिभाषा करना अत्यन्त कठिन कार्य है। विलियम एस० क्रूयिसेक के अनुसार– “विशिष्ट बालक वह है, जो मानसिक, शारीरिक, सामाजिक या संवेगात्मक रूप से उनसे भिन्न है, जिनकी अभिवृद्धि तथा विकास सामान्य रूप से होता है, विशिष्ट बालक सामान्य विद्यालयी क्रम का अधिकतम लाभ नहीं उठा पाता है। उसे विशेष कक्षा या सहायता की आवश्यकता पड़ती है।” विशिष्ट बालकों की पहचान, सामान्य बालकों की पहचान के साथ सापेक्ष है, जो सामान्य नहीं है, वह विशिष्ट है। चाहे वह मानसिक रूप से हो अथवा शारीरिक रूप से, सामाजिक रूप से हो या शैक्षिक रूप से, यदि कहीं भी असामान्यता या विशिष्टता दिखाई पड़ती है, वहीं बालकों को विशिष्ट श्रेणी प्रदान करती है।
प्रत्येक प्रकार के असामान्य या विशिष्ट बालक की पहचान अलग प्रकार से होती है। जैसे मानसिक रूप से पिछड़े, बालकों में अमूर्त चिन्तन का अभाव होता है, सीखने की गति तीव्र नहीं होती, रुचियाँ सीमित होती हैं, मौलिकता का अभाव होता है, शब्दावली दोषपूर्ण होती है, संवेगात्मक अस्थिरता के कारण इनके ध्यान का विस्तार अत्यन्त कम होता है, समान्यीकरण नहीं कर पाते तथा अनैतिक व्यवहार की ओर अग्रसर हो जाते हैं।
पिछड़े बालकों की पहचान उनकी शैक्षिक निष्पत्ति के आधार पर की जाती है। सामूहिक उपलब्धि तथा व्यक्तिगत बुद्धि परीक्षणों द्वारा पिछड़े बालकों की पहचान की जाती है।
प्रतिभावान बालक आसानी से किसी भी बात को सीख लेते हैं। सामान्य बुद्धि का प्रयोग अधिक करते हैं तथा इनका चिन्तन स्पष्ट होता है। ये कठिन कार्यों को आसानी से कर लेते हैं और इनके चिन्तन में मौलिकता पाई जाती है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बालापराधियों के उपचार के लिए किसी एक विधि का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। प्रत्येक बालापराधी के लिए अलग-अलग पद्धतियों का प्रयोग किया जाता है।
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