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बाल कल्याण का स्वरूप | बाल कल्याण तथा परिवार | आर्थिक तत्व तथा बाल कल्याण | बाल कल्याण सम्बन्धी अनुसंधान | भारत में बाल कल्याण सम्बन्धी स्थिति

बाल कल्याण का स्वरूप
बाल कल्याण का स्वरूप

बाल कल्याण के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखिए कि इसका सम्बन्ध किन-किन तत्वों के साथ है और क्यों ? भारत में बाल कल्याण सम्बन्धी जो भी कार्य हो रहा है, उस पर प्रकाश डालिए। 

बाल कल्याण

‘बाल-कल्याण’ शब्द बड़ा नमनीय है तथा भिन्न-भिन्न अर्थों में इसका प्रयोग होता है। इसमें बालक के जीवन का वह प्रत्येक पक्ष आ जाता है, जिसका सम्बन्ध उसके सम्यक् विकास के साथ है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी बाल अधिकारों की उद्घोषणा में बाल कल्याण की इसी भावना को लिया है।

बाल कल्याण का स्वरूप

बाल कल्याण के स्वरूप के सम्बन्ध में अलग-अलग अवधारणाएँ प्रचलित हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार है-

(i) परिवार का बालक के जीवन में बड़ा महत्व है। परिवार में रहकर बालक का समाजीकरण होता है, परिवार से बालक का व्यक्तित्व बनता है, परिवार ही बालक का समन्वय जातीय जीवन और विद्यालय के साथ करता है, परिवार बालक के लिए प्रेरक का काम करता है। अतः परिवार ही बाल कल्याण का उपयुक्त क्षेत्र हो सकता है।

(ii) बालकों की समस्याओं का निदान तथा उपचार बाल कल्याण का मुख्य क्षेत्र है

(iii) बाल कल्याण की तीसरी अवधारणा के अनुसार इसका सम्बन्ध बाल-जीवन के अभावों के साथ है। शिक्षा, स्वास्थ्य तथा बाल कल्याण सम्बन्धी संस्थाओं को बालकों के अभाव दूर करने होंगे। इसके लिए हमें बालकों की आवश्यकताओं का अध्ययन करना होगा।

बाल-कल्याण सम्बन्धी विविध अवधारणाओं का अवलोकन करने से स्पष्ट हो जाता है कि इनमें आपस में विरोध नहीं हैं। इन्हें हम बाल-कल्याण सम्बन्धी विभिन्न दिशाएँ कह सकते हैं और ये एक-दूसरे को पूरक हो सकती हैं।

बाल कल्याण तथा परिवार

आज भारत में परम्परागत संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और उसका स्थान विभक्त परिवार ले रहे हैं, किन्तु कोई भी रूप क्यों न हो, बालक के लिए परिवार की आवश्यकता सदा बनी रहेगी, कोई संस्था ऐसी नहीं है, जिसमें बालक की विविध आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जा सके। परिवार में रहकर ही बालक बदलते हुए सामाजिक मूल्यों के साथ समायोजन कर सकता है। परिवार में रहकर बालक को जो स्नेह, सहानुभूति और सुरक्षा प्राप्त होती है, वह और कहीं नहीं मिल सकती।

अतः बाल कल्याण सम्बन्धी कोई भी बात क्यों न हो, हम परिवार की उपेक्षा नहीं कर सकते

 आर्थिक तत्व तथा बाल कल्याण

यदि आर्थिक क्षमताएँ सीमित हों तथा बालक की आवश्यकतायें अधिक हो तो उसका प्रभाव भी बाल कल्याण पर पड़ेगा। ऐसी स्थिति, जो इस समय भारत में चल रही है, उसमें हम बालकों की कुछ आवश्यकताओं की ही पूर्ति कर सकेंगे।

यद्यपि बाल विकास सम्बन्धी सभी तत्व बाल कल्याण की श्रेणी में आ जाते हैं, किन्तु फिर भी आर्थिक क्षमताएँ सीमित होने पर, प्रत्येक परिवार बाल कल्याण की दृष्टि से कुछ प्राथमिकताएँ निर्धारित करता है और सबसे पूर्व बालकों की इन प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है।

बालकों के लिए प्राथमिक आवश्यकताएँ निर्धारित करते समय, विभिन्न देशों की अपनी विशिष्ट परम्पराएँ होती हैं। 1961 ई० में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा एक अध्ययन किया गया। इस अध्ययन के निम्न निष्कर्ष है-

  1. अफ्रीका के देशों में परिवार के लोग बालक की शिक्षा को सर्वोच्च स्थान देते हैं।
  2. एशिया के देशों में बालकों के स्वास्थ्य और पोषाहार को प्राथमिक स्थान दिया जाता है।
  3. दक्षिण अमेरिका के देशों में “त्यागे गये बालकों” की समस्या को प्राथमिक समझा जाता है।

भारत एक विकासशील देश है। भारत के सामने सबसे बड़ी समस्या है—“अपर्याप्त आय तथा अपर्याप्त जीवन-यापन” । भारतीय प्रशासन ने बालकों की शिक्षा को ही उनकी प्राथमिक आवश्यकता के रूप में ग्रहण किया है। इस सम्बन्ध में ‘बाल-कल्याण राज्य प्रदर्शनात्मक परियोजना’ हाथ में ली गयी है। इस परियोजना के अनुसार कोई क्षेत्र चुन लिया जाता है। और फिर उस क्षेत्र के बालकों की आवश्यकताओं का अध्ययन समग्र रूप से किया जाता है। फिर उसके बाद बालकों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सभी संस्थाओं का सहयोग प्राप्त किया जाता है।

बाल कल्याण सम्बन्धी अनुसंधान

भिन्न-भिन्न देशों में बाल-कल्याण सम्बन्धी जो अनुसंधान हो रहे हैं, उनसे पता चलता है कि किसी देश में बाल-कल्याण सम्बन्धी कितना कार्य हो चुका है। पश्चिमी देशों में शोध के विषय निम्न हैं-

  1. बाल अपराध,
  2. सांवेगिक रूप से उपेक्षित बालक,
  3. कुसमायोजित बालकों के लिए विशिष्ट शिक्षा,
  4. मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक कुसमायोजन,
  5. उपचारात्मक विधियाँ,
  6. मानसिक रूप से पिछड़े बालक

इन विषयों का अवलोकन करने पर पता चलता है कि पश्चिमी देश उस अवस्था को पार कर चुके हैं, जिनमें बालकों की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति करनी होती है।

भारत में सीमित साधनों के कारण हमारा ध्यान इस बात पर है कि सर्वप्रथम बालकों की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जाये। इसलिए हमारे देश में अनुसंधान के निम्न विषय रहे हैं-

  1. व्यापक सर्वेक्षण,
  2. शारीरिक स्वास्थ्य की सुविधाएँ,
  3. अन्य विद्यालयों की स्थापना,
  4. बालकों सम्बन्धी आँकड़े एकत्रित करना,
  5. मनोवैज्ञानिक-सामाजिक समस्याओं का समाधान,
  6. कौन-से कार्यक्रम अपनाये जायें,
  7. सन्तुलित पोषाहार।

बाल कल्याण सम्बन्धी अध्ययन दो प्रकार से किया जा सकता है-

  1. व्यक्तिगत अध्ययन,
  2. सामूहिक अध्ययन

व्यक्तिगत अध्ययन हमें व्यक्तिगत किसी बालक की विभिन्न आवश्यकताओं को मालूम कराते हैं। सामूहिक अध्ययन में जब बालक समूह में काम करते हैं, तब उनका अध्ययन किया जाता है; जैसे-खेल के मैदान में।

भारत में प्रशिक्षित व्यक्तियों का अभाव है, इसलिए यहाँ पर अध्ययन व्यक्तिगत न होकर सामूहिक होता है। प्रशासन द्वारा बाल कल्याण सम्बन्धी नीति निर्धारित करते समय, पृष्ठभूमि में, यह सामूहिक अध्ययन ही रहता है।

भारत में बाल कल्याण सम्बन्धी स्थिति

भारत में बाल कल्याण सम्बन्धी जो भी कार्य हुआ है, उसमें व्यक्तिगत दानशीलता तथा जातीय संस्थाओं का ही मुख्य रूप से योगदान रहा है। ब्राह्मण परिवारों में मधुकरी की प्रथा प्रचलित थी। जो निर्धन तथा सुयोग्य विद्यार्थी अपने माता-पिता के अर्थाभाव के कारण अपना अध्ययन जारी नहीं रख सकते थे, उनके लिए सम्पन्न ब्राह्मण परिवारों के द्वार सदा खुले रहते थे, जहाँ उन्हें भोजन तथा पुस्तकें मिल जाती थीं।

19वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही भारत में अनाथ बालकों के लिए कई अनाथालय खोले गये। 1950 और 1989 के अधिनियमों द्वारा भारत में कई रिफॉमेंटरी स्कूल (Reformatory Schools) खोले गये, जहाँ निर्धन, असहाय तथा अनाथ बालकों को रखा जाता था ताकि वे अनुशासन में रहकर किसी न किसी व्यवसाय का प्रशिक्षण प्राप्त कर सकें तथा उनकी प्रवृत्ति अपराध की ओर न हो । 1922 तथा 1924 में मद्रास, बंगाल तथा बम्बई प्रान्तों में बाल कल्याण सम्बन्धी कई अधिनियम पारित किये गये। इन सबका उद्देश्य बालापराध की प्रवृत्ति को रोकना था।

‘चिल्ड्रन एण्ड सोसाइटी’, मुम्बई तथा ‘पाइलट रिसर्च सेन्टर’ हजारीबाग (बिहार) आदि संस्थाओं ने बालापराधियों को सुधारने की दिशा में पर्याप्त काम किया है।

“बालकों का समुचित विकास सभी दिशाओं में हो” बाल कल्याण सम्बन्धी इस भावना को लेकर सर्वप्रथम भारत में इण्डियन कॉन्फ्रेन्स ऑफ सोशल वर्क ने अपनी गतिविधियाँ प्रारम्भ की थीं।

1920 ई० में भारत में “बालकनजी बाड़ी” की स्थापना हुई। इसका उद्देश्य है—बालक-बालिकाओं के लिए मनोरंजक क्रियाओं की व्यवस्था करना। इसी समय भारत में पूर्व प्राथमिक शिक्षा का आरम्भ हुआ और ईसाई प्रचारकों ने कई बालोद्यान (किण्डरगार्टन) पाठशालाओं की स्थापना की।

1946 ई० के बाद भारत में बाल कल्याण के आन्दोलन में गतिशीलता आई। 1947 में संयुक्त राष्ट्र संघ की अपील पर पुष्प दिवस (Flower Day) आयोजित किया गया, ताकि बाल कल्याण के लिए धन एकत्रित किया जा सके। 1952 में अखिल भारतीय महिला परिषद् के तत्वावधान में भारतीय बाल कल्याण परिषद् का गठन किया गया। इसके साथ-साथ कई और व्यक्तिगत प्रयास भी चलते रहे, परन्तु प्रशासन अभी भी इस दिशा में उदासीन था।

1956 ई० में भारत के प्रधानमन्त्री ने अपने एक भाषण में कहा-

“इधर-उधर हो रहे व्यक्तिगत प्रयास कितने भी महान् क्यों न हों, वे बाल कल्याण की दृष्टि से देश भर में अपना काम सुचारु रूप से नहीं कर सकते। अन्त में, यह दायित्व प्रशासन का तथा जनता का है कि बालकों सम्बन्धी समस्याओं का समाधान करें। “

प्रथम तथा द्वितीय पंचवर्षीय योजनाओं में बालकल्याण सम्बन्धी प्रशासकीय उत्तरदायित्व को सिद्धान्त रूप में स्वीकार कर लिया गया। तृतीय पंचवर्षीय योजना में इसे व्यावहारिक रूप दिया गया तथा बाल कल्याण की दिशा में 3 करोड़ को धनराशि निर्धारित की गई।

शिक्षा मन्त्रालयं ने बाल कल्याण की दिशा में जो धनराशियाँ निर्धारित की, वे निम्न प्रकार हैं-

  1. 12,50,00,000 रुपये-पूर्व प्राथमिक पाठशालायें, जिनमें बाल-सेविका प्रशिक्षण भी सम्मिलित है।
  2. 3,75,000 रुपये भारतीय बाल कल्याण परिषद् ।
  3. 16,62,50,000 रुपये- बाल कल्याण परियोजनायें ।
  4. 5,00,000 रुपये – बाल विकास अनुसंधान ।

केन्द्रीय समाज कल्याण परिषद् द्वारा बाल कल्याण की दिशा में निम्नलिखित कार्य हो रहे हैं-

  1. सीमित साधनों वाले परिवारों के बालकों के लिए “अवकाश-गृह” (Holiday Home) की व्यवस्था
  2. बाल कल्याण विश्व कोष तैयार करना।
  3. बालवाड़ी कार्यक्रमों को शक्तिशाली बनाना।
  4. पूर्व प्राथमिक शिक्षा का राष्ट्रीय स्तर पर सर्वेक्षण ।

बाल कल्याण के क्षेत्र में शिक्षा मंत्रालय का योगदान है-

  1. बाल कल्याण सम्बन्धी परियोजनायें हाथ में लेना।
  2. इस सम्बन्ध में कार्यक्रम निर्धारित करना ।
  3. बाल सेविका प्रशिक्षण कार्यक्रम के माध्यम से कार्यकर्ताओं को तैयार करना।
  4. विद्यालयीय बालकों की स्वास्थ्य सम्बन्धी आवश्यकताओं का अध्ययन करना

स्वास्थ्य मन्त्रालय ने इस दिशा में ये कार्य अपने जिम्मे लिए हैं-

  1. बालवाड़ियों की स्थापना ।
  2. महिला-मण्डलों की स्थापना ।
  3. स्वास्थ्य केन्द्रों तथा उपकेन्द्रों की स्थापना ।

संयुक्त राष्ट्र संघ की सहायता से विद्यालयों में निम्नलिखित योजनायें अमल में लायी जा रही हैं-

  1. मध्यान्ह भोजन ।
  2. दुग्ध वितरण।
  3. पोषाहार कार्यक्रम।

इसके अतिरिक्त बाल कल्याण सम्बन्धी संस्थाओं को सहायता अनुदान भी दिया जाता है।

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Anjali Yadav

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