मार्क्स के सिद्धान्त की आलोचना (Criticism of Marxian Theory)
यद्यपि मार्क्स की व्याख्या शुद्ध अर्थशास्त्रीय एवं वैज्ञानिक है, फिर भी मार्क्स को भी अन्य सिद्धान्त प्रतिपादकों के समान आलोचकों का शिकार होना पड़ा है। आलोचकों के प्रमुख आलोचना के बिन्दु इस प्रकार हैं-
1. मार्क्स का सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त वर्ग संघर्ष पर आधारित है। यह समाज में निरन्तर द्वन्द्ववाद की विद्यमानता में विश्वास रखता है। यह बात ठीक नहीं, क्योंकि समाज का आधार सहयोग है, संघर्ष नहीं। इसके उत्तर में मार्क्स का कथन है कि उत्पादन के साधनों के स्वामित्व को लेकर समाज के इन दोनों स्पष्ट वर्गों में सदैव संघर्ष चलता रहता है। यह सत्य है कि इतिहास के हर काल में यह संघर्ष रहा है, आज भी है और हमेशा रहेगा, भले ही समाज का आधार सहयोग ही क्यों न हो।
2. मैक्स वेबर के अनुसार, कहीं-कहीं आर्थिक व्यवस्था धार्मिक व्यवस्था से प्रभावित होती है। अतः मुख्य ढाँचा आर्थिक नहीं, बल्कि धार्मिक है जैसे भारत में। अतः यह सिद्धान्त भारत जैसे देश में लागू नहीं होता है।
3. मार्क्स के अनुसार, उत्पादन को भौतिक एवं प्रौद्योगिकी की शक्ति के अनुरूप ही आर्थिक सम्बन्ध भी विकसित होते हैं, किन्तु फिर भी एक-सी उत्पादन की भौतिक शक्ति एवं प्रौद्योगिकी वाले दो देश अमेरिका एवं रूस में भिन्न प्रकार के आर्थिक ढाँचे पूँजीवाद और साम्यवाद कैसे विकसित हुए ? इसका उत्तर इस सिद्धान्त में नहीं मिलता।
4. मार्क्स का सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त निर्णायकवादी है। उनके अनुसार समाज में परिवर्तन होने का एकमात्र कारक आर्थिक है। यह उचित नहीं है। यह आलोचना ठीक प्रतीत नहीं होती, क्योंकि मार्क्स कहता है कि सामाजिक परिवर्तन के कई कारक हैं, किन्तु वे सब आर्थिक कारक पर आधारित हैं। आर्थिक ढाँचे को उसने समाज का मुख्य आधार कहा है, एकमात्र ढाँचा नहीं। समाज में राजनीतिक, वैधानिक, सांस्कृतिक, धार्मिक ढाँचे भी हैं, किन्तु वे सब आर्थिक ढाँचे पर ही टिके हुए हैं। अतः मार्क्स की बात अपने स्थान पर ही उचित प्रतीत होती है।
5. पूंजीवाद की समाप्ति और वर्गविहीन समाज की स्थापना की बात मार्क्स की कल्पना जो वास्तविक नहीं हो सकती। रूस एवं चीन में पूँजीवादी व्यवस्था समाप्त होने पर भी वहाँ वर्ग भेद विद्यमान है और राज्य भी है। मार्क्स के अनुसार, वर्गों का अस्तित्व तब तक है जब तक उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व व्यक्तिगत है। यदि उत्पादन के साधनों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाए तो वर्ग अस्तित्व का प्रश्न ही नहीं रह जाता। रही राज्य समाप्ति की बात तो मार्क्स के अनुसार राज्य की उत्पत्ति ही सामाजिक विकास की प्रक्रिया के उस चरण में हुई, जब उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व का झगड़ा था। यदि झगड़ा ही न रहे तो राज्य की उत्पत्ति का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है। अतः फिर राज्य किस हेतु रहेगा ? प्रोफेसरों, क्लकों और मिनिस्टरों के समूहों को मार्क्स के अनुसार वर्ग नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इनके विभिन्नीकरण का आधार आर्थिक नहीं है। ये पेशेवर समूह हैं, आर्थिक वर्ग नहीं।
6. मार्क्स ने केवल दो वर्गों का ही वर्णन किया है, जबकि समाज कई वर्गों में विभाजित रहता है, किन्तु वास्तविकता यह है कि मार्क्स ने उत्पादन के साधनों के स्वामित्व पर दो स्पष्ट वर्गों की बात की है। समाज को अन्य आधार पर विभाजित करने पर भी कई वर्ग हो जाते हैं।
7. मार्क्स ने ‘आर्थिक सम्बन्ध’, ‘उत्पादन की भौतिक शक्ति’, ‘मुख्य ढाँचा’ इत्यादि शब्दों का अधिक सन्तोषजनक स्पष्टीकरण नहीं किया है।
इस प्रकार, यद्यपि मार्क्स की आलोचना की जाती है, फिर भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि आर्थिक क्रियाएँ मानव की मुख्य क्रियाएँ हैं और उनमें आने वाला कोई भी परिवर्तन समाज के अन्य पहलुओं में परिवर्तन लाता है।
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