सोरोकिन के परिवर्तन के सिद्धान्त की विशेषताएँ (Characteristics of Sorokin’s Theory of Change)
सोरोकिन के सिद्धान्त की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ हैं-
1. सांस्कृतिक अर्थों का केन्द्रीयता का सिद्धान ( (A theory of centrality of cultural meanings) – सोरोकिन के अनुसार, संस्कृति एक व्यवस्था है, जिसके संवेदनात्मक एवं भावात्मक दो विपरीत और है। इसेवाओं में जो उप व्यवस्थाएँ होती हैं, वे तार्किक अर्थपूर्ण ढंग में समन्वित होती है। इस समय से ही सांस्कृतिक व्यवस्था का होता है। इसी को स्पष्ट करते हुए सोरोकिन ने कहा है कि संस्कृति की वास्तविकता अशी में ही किती है। स्त्री तथा पुरुष के बीच मैथुन क्रिया जैविक तथा शारीरिक दृष्टि से एक-सी होते हुए भी अर्थपूर्ण सम्बन्ध में वैवाहिक आनंद, बलात्कार या अनैतिक व्यापार बन जाती है
2. प्रवृत्तियों एवं प्रतिमानों का सिद्धान्त (A theory of trends and patterns) – सोरोविन के अनुसार, परिवर्तन होता तो अवश्य है, परन्तु यह किधर को कम मुड़ जाए इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। परिवर्तन की दिशा को सीमा में नहीं बाँधा जा सकता है और न ही उसका कोई पूर्वानुमान ही लगाया जा सकता है। संस्कृति में होने वाले इस परिवर्तन को सदरलैण्ड एवं बुडवर्ड (Sutherland and Woodward) ने बालू पर घूमते हुए मुर्गी के बच्चे के उदाहरण से स्पष्ट किया है। मुर्गी का बच्चा इधर-उधर घूमता रहता है। वह कब गति को तीव्र या धीमा कर दे और कब किया चल पड़े यह निश्चित नहीं है। भावात्मक एवं संवेदनात्मक संस्कृति के बीच परिवर्तन की प्रक्रिया भी कुछ सीमा तक ऐसी ही है।
3. संस्कृति में प्रवाह का सिद्धान्त (A theory of cultural flux) – समाज कभी स्थिर नहीं रहता। सोरोकिन का परिवर्तन का सिद्धान्त उतार-चढ़ाव को अत्यधिक महत्व देता है। यह उतार-चढ़ाव संवेदनात्मक संस्कृति से भावात्मक तथा पुनः संवेदनात्मक में होता रहता है। इसी से हमारी सामाजिक संस्थाएँ, तथा समितियाँ, परिवार, राज्य, दर्शन, कला, विज्ञान, धर्म तथा कानूनी व्यवस्थाएँ आदि बदल जाती हैं।
4. अन्तःस्थ परिवर्तन का सिद्धान्त (A theory of immanent change)- सौरोकिन के सामाजिक परिवर्तन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता है परिवर्तन की स्वाभाविकता की व्याख्या। उनके अनुसार, यदि यह प्रश्न उठाया आए, कि परिवर्तन होता कहाँ से है या परिवर्तन का स्रोत कहाँ है तो उत्तर है ‘अन्तस्थ परिवर्तन का सिद्धान्त’, इसी के आधार पर सोरोकिन ने यह स्वीकार किया है कि परिवर्तन की शक्ति स्वयं पदार्थ में ही निहित रहती है। समाज तथा संस्कृति में विकास की क्षमताएँ (Potentialities) छिपी रहती हैं। यहाँ सोरोकिन हीगल तथा मार्क्स एवं एंगेल्स के समान परिवर्तन को संस्कृति का स्वभाव मानता है, क्योंकि मनुष्य का जन्म लेना, युवा होना, वृद्ध होना तथा मर जाना जीवन का स्वभाव है, उसी प्रकार संस्कृति का उत्थान एवं पतन बिल्कुल स्वाभाविक है। बाह्य स्वभाव संस्कृति को प्रभावित करते हैं, सामाजिक परिवर्तन को जन्म देते हैं, परन्तु उनकी भूमिका केवल मध्यस्थ कारकों (Intermediary factors) की होती है।
उपर्युक्त सिद्धान्त को जब सोरोकिन ने यूरोप तथा अमेरिका के समाज पर लागू किया तो उन्हें अनुभव हुआ कि अमेरिका एवं पश्चिम की संस्कृति अब संवेदनात्मक स्वरूप की अति परिएक्यावस्था पर पहुँच चुकी है, क्योंकि हर व्यक्ति विलासिता में लिप्त है। दर्शन, कला तथा साहित्य चरमोत्कर्ष रूप में भौतिकता के साधन मात्र हैं और जीवन मशीन बन गया है। सोरोकिन के अनुसार, शीघ्र ही उसका पतन निश्चित है। इसलिए आधुनिक युग को सोरोकिन ने संकट का युग (Age of crisis) कह कर पुकारा है। सोरोकिन ने इसकी पुष्टि के लिए पश्चिमी देशों के पिछले तीन हजार वर्षों के इतिहास का गहन अध्ययन किया तथा यह पाया कि वहाँ संस्कृति में उतार-चढ़ाव होता रहा है। यह अध्ययन सोरोकिन की भविष्यवाणी की पुनः पुष्टि करता है।
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