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सोरोकिन के सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त | Sorokin’s Theory of Social Change in Hindi

सोरोकिन के सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त | Sorokin's Theory of Social Change in Hindi
सोरोकिन के सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त | Sorokin’s Theory of Social Change in Hindi

सोरोकिन के सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।

सोरोकिन के सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त (Sorokin’s Theory of Social Change)

सोरोकिन की सामाजिक परिवर्तन के विषय में रुचि प्रारम्भ से ही थी। सन् 1925 में उन्होंने सामाजिक क्रान्ति पर The Sociology of Revolution’ नामक ग्रन्थ प्रकाशित किया। समाज में ही समूहों तथा व्यक्तियों के बीच होने वाले आन्तरिक परिवर्तन पर सन् 1927 में उन्होंने अपनी अमर कृति ‘Social Mobility’ प्रकाशित की।  सन् 1937-41 के बीच चार ग्रन्थों में उन्होंने Social and Cultural Dynamics प्रकाशित कराया, जो उनके पिछले 2500 वर्षों एवं 1622 क्रान्तियों के इतिहास के अध्ययन पर आधारित है। सन् 1946 से वे परमार्थवाद के अध्ययन पर लग गए तथा उन्होंने अनेक कृतियाँ मानवता की पुनर्रचना के विषय में प्रकाशित कीं।

सोरोकिन की इन्हीं भावनाओं को व्यक्त करते हुए स्टुवर्ट तथा ग्लिन (Stewart and Glynn) ने लिखा है कि, “भावात्मक सभ्यता की संस्कृति के अनुयायी आध्यात्मिक दृष्टि से ही वास्तविकता को देखते हैं। ये सभ्यताएँ अपने उन्मेष में गहरी धार्मिकता रखती हैं और सत्य का स्रोत विश्वास एवं दिव्यवाणी को मानती हैं। अस्तित्व के आनुभाविक पहलुओं में इनकी रुचि नहीं होती।” स्वयं सोरोकिन एवं लुण्डेन (Sorokin and Lunden) के अनुसार, “क्योंकि इन्द्रियपरक विश्व केवल मृगतृष्णा है, इसलिए ऐसी क्रियाएँ समय और क्षमता का अपव्यय हैं। यह वास्तविकता की तथा मूल्य की छाया से ही सम्बन्धित रह जाती है।”

सोरोकिन ने सामाजिक परिवर्तन के अपने सिद्धान्त को सांस्कृतिक आधार पर स्पष्ट किया है। उनका कथन है कि लोग समाज में सदैव ऊर्ध्वगामी विकास देखते हैं, वे सही नहीं हैं और न ही वे व्यक्ति सही हैं, जो सामाजिक परिवर्तन को चक्रीय गति से समझते हैं। सामाजिक परिवर्तन की गति चक्रीय भी है, परन्तु वास्तव में परिवर्तन सांस्कृतिक तत्वों में उतार-चढ़ाव (Fluctuation) के कारण होता है। उतार-चढ़ाव संस्कृति की विभिन्न अवस्थाओं में पाया जाता है। सोरोकिन के अनुसार, यह परिवर्तन स्वाभाविक है, क्योंकि यह स्वयं में निहित गुणों के विकास के फलस्वरूप होता है।

सोरोकिन ने पच्चीस सौ वर्ष पुरानी संस्कृति के इतिहास का अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला कि समाज में कोई प्रगति नहीं हुई है, क्योंकि कुछ दिन प्रगति होती है, परन्तु बाद में परिवर्तन के कारण समाज में अवनति होने लगती में है। प्रगति तथा अवनति दोनों का जोड़-घटाव अन्ततोगत्वा बराबर ही जाकर बैठता है। परिवर्तन एक अवश्यम्भावी तथा स्वाभाविक प्रक्रिया है, जो समाज एवं संस्कृति में अन्तर्निहित शक्तियों के कारण होती है। वह संवेदनात्मक संस्कृति को भावात्मक संस्कृति से अधिक जटिल मानते हैं, क्योंकि उद्विकास सरल से जटिल की ओर होने वाली एक प्रक्रिया है। सोरोकिन के अध्ययन का विषय यह नहीं है कि संस्कृति क्या है, बल्कि यह है कि सांस्कृतिक परिवर्तन (Cultural change) क्या है, इस परिवर्तन की प्रकृति कैसी है, इसकी दिशा क्या है तथा भविष्य में इसका क्या रूप हो सकता है।

सोरोकिन के अनुसार, इतिहास का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि सम्पूर्ण ऐतिहासिक काल में संस्कृति के तीन रूप स्पष्ट होते हैं। तीनों रूपों में कुछ विशेषताएँ होती हैं। उन्हीं के अनुरूप धर्म, कला, ज्ञान, दर्शन तथा विभिन्न दृष्टिकोण तथा सामाजिक मूल्य भी होते हैं। सोरोकिन के अनुसार संस्कृति के तीन रूप निम्नलिखित हैं-

1. भावात्मक संस्कृति (Ideational culture) – भावात्मक संस्कृति में हमारे विचारों, भावनाओं, मनोधारणाओं, नैतिकता, सामाजिक मूल्यों, आदर्शों एवं जीवन के प्रति दृष्टिकोणों का भावात्मक विकास होता है। भौतिक सुख की अपेक्षा मानसिक या आध्यात्मिक उन्नति ही इसका लक्ष्य है। भौतिक सुख की आध्यात्मिक कल्पना को ही सर्वोपरि मानकर ईश्वर में एकाकार होना और पारलौकिक सुख के लिए रात-दिन पुरुषार्थ करना आवश्यक है। इसमें वस्तुगत सत्य की नहीं परम् सत्य की चाह होती है।

इस संस्कृति में सत्य वही है, जिसे हमारी आत्मा सत्य स्वीकार करे, ज्ञान वहीं है, जो ईश्वर के बारे में पता दे, कानून वह है, जो नैतिक आदर्शों से ओत-प्रोत है। दर्शन तथा कला इस संस्कृति में ईश्वर के गुणगान को ही अपना उद्देश्य मानती हैं तथा उसी परम सत्य तक पहुँचने के विभिन्न मार्गों को खोज निकालती हैं। परिवार का उद्देश्य ईश्वर भक्ति के पाठ पढ़ाना होता है। विवाह में पत्नी इसलिए ग्रहण की जाती है कि वह मोक्ष प्राप्ति में बाधक नहीं, साधक हो। इसमें विवाह का उद्देश्य लैंगिक सन्तुष्टि नहीं होता। इस संस्कृति में मस्तिष्क की नहीं, बल्कि हृदय एवं दृष्टिकोण को विशाल बनाने के लिए प्रयत्न किए जाते हैं। जो भौतिक उपकरण हमारी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं, उनकी माँग नहीं के बराबर होती है, जिसके कारण भौतिक आविष्कार ही नहीं होते वरन् सामाजिक आविष्कार भी होते हैं। इसी कारण हमारे पूर्वज भौतिक आविष्कार नहीं कर सके, परन्तु संसार को आश्चर्यचकित कर देने वाले उच्च कोटि के दर्शन ‘अध्यात्मवाद’ को उन्होंने ही विश्व को दिया है। वास्तव में, समाज में कोई भी सामाजिक-सांस्कृतिक आविष्कार तभी हो सकता है, जब समाज उसकी निरन्तर आवश्यकता अनुभव करता है। प्राचीन भारत में हम किसी भी प्रकार की भौतिक उपलब्धि की इच्छा नहीं करते थे। अतः भौतिक आविष्कारों का न होना स्वाभाविक ही था।

2. संवेदनात्मक संस्कृति (Sensate culture) – संवेदनात्मक संस्कृति भौतिकतायुक्त संस्कृति होती है, इसमें आध्यात्मिकता और कल्पना का स्थान यथार्थता तथा व्यावहारिकता ग्रहण कर लेती है। इसके मुख्य उपादान विचार, आदर्श, कला, साहित्य, कानून और विज्ञान का विकास माने जाते हैं। इसमें हमारी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले भौतिक उपकरण हो आविष्कृत होते हैं तथा वही सत्य है, जिसे हम अपनी आँखों से देख सकते हैं, जो हमारी वासना तथा जैविक आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करे। इस संस्कृति का उद्देश्य जीवन में अधिक से अधिक भौतिक सुविधाएँ लेना है। इसीलिए हम अधिकाधिक भौतिक सुविधाएँ जुटाने में लगे रहते हैं। इहलौकिक सुख ही सब कुछ होता है। ईश्वर तथा धर्म में लोगों का विश्वास नहीं रहता है यदि रहता भी है तो धर्म को हम ऐसा रूप देने का प्रयत्न करते हैं, जो हमारे भौतिक सुख-साधनों को एकत्रित करने में हमें सुविधा प्रदान करें जैसा कि वेबर ने प्रोटेस्टेंट धर्म की व्याख्या करके दिखाया है। इसीलिए आज के इंग्लैण्ड, अमेरिका एवं हॉलैण्ड में आधुनिक पूँजीवाद विकसित हुआ है। हम यह समझते हैं कि यह पृथ्वी एवं संसार एक स्वयं सिद्ध है। ईश्वर, आत्मा तथा अन्तर्दृष्टि काल्पनिक है। ऐसे युग में आर्थिक प्रतिस्पर्द्धा तीव्र होती है, क्योंकि हमारा उद्देश्य अधिक से अधिक विलासिता की वस्तुएँ एवं धन एकत्रित करना रहता है। न्याय वही किया जाता है, जिसे न्यायाधीश कानून की दृष्टि से उचित समझता है। कानून का आधार प्रत्यक्ष भौतिकवादी तथा व्यावहारिक हो जाता है। जीवन मूल्य तथा हमारे दृष्टिकोण बहुत सीमित हो जाते हैं। नौतिक आदर्शों का कोई मूल्य नहीं होता। संवेदनात्मक संस्कृति में विवाह का उद्देश्य होता है सहयोगात्मक विधि से अधिकाधिक धन कमाना, भौतिक सुख-साधनों की उपलब्धि तथा अधिक जैविक एवं लैंगिक सुख प्राप्त करना। परिवार तथा शिक्षा संस्थाएँ दोनों ही यह पाठ पढ़ाती हैं कि कैसे अधिक से अधिक धन कमाया जाए। पत्नी मोक्ष या ईश्वर की प्राप्ति में सहायक नहीं वरन् अधिक धन उपार्जित कर कार खरीदवाने एवं बंगला बनवाने में सहायक होती है। प्रत्येक बात में वैज्ञानिक तथ्यों का सहारा लिया जाता है। हम इतने आत्मकेन्द्रित हो जाते हैं कि दूसरों के विषय में सोचने के लिए हमारे पास कोई समय नहीं रहता। इस प्रकार, यह संस्कृति भावात्मक संस्कृति से विपरीत विशेषताओं को प्रकट करती है। वर्तमान काल में यूरोप और अमरीका की संस्कृति इसी प्रकार की है।

सोरोकिन तथा लुण्डेण के ही शब्दों में, “संवेदनात्मक संस्कृति तथा समाज इस अन्तिम सिद्धान्त पर आधारित है कि सच्ची वास्तविकता और मूल्य ऐन्द्रिक होते हैं और हमारी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अनुभूत वास्तविकता व मूल्यों से कोई और सत्य नहीं है।”

3. आदर्शात्मक संस्कृति (Idealistic culture) – आदर्शात्मक संस्कृति वह संस्कृति है, जो दोनों संस्कृतियों का समन्वयकारी बोध कराती है। भावात्मक एवं संवेदनात्मक संस्कृतियाँ परस्पर विरोधी विशेषताओं को प्रकट करने वाली सांस्कृतिक व्यवस्था के दो विपरीत छोर हैं। वास्तव में, इन दोनों के मध्य की अवस्था ही श्रेष्ठ है, क्योंकि वह दोनों के श्रेष्ठ गुणों एवं समभागों को अपने में समेकित करती है। इसीलिए इस संस्कृति को समेकित (Integral) संस्कृति भी कहा गया । ज्ञान के स्रोत यहाँ एक सुन्दर त्रिकोण में उपस्थित होते हैं, जिसके निचले दो सिरों पर इन्द्रियाँ तथा अन्तर्दृष्टि हैं तो शिखर पर तर्क को स्थान दिया गया है। इसी अवस्था को आदर्शात्मक संस्कृति का नाम दिया गया है। यह संस्कृति तब आती है जब या तो भावात्मक संस्कृति संवेदनात्मक में या संवेदनात्मक भावात्मक में बदल रही होती है। इस संस्कृति में न तो किसी इहलौकिक या पारलौकिक वस्तु पर अधिक बल ही दिया जाता है और न किसी वस्तु की उपेक्षा ही की जाती है। कला तथा ज्ञान कला व ज्ञान के लिए तो हैं ही, वे व्यावहारिक उपयोगिता भी रखते हैं अर्थात् इनमें वस्तुगत सत्य एवं परम सत्य दोनों को ही महत्व दिया जाता है, किन्तु तार्किक दृष्टिकोण से भौतिक उपकरण भी एकत्रित किए जाते हैं, किन्तु परोपकार भी लुप्त नहीं हो जाता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि वास्तविक सन्तुलन की स्थिति ही आदर्शात्मक संस्कृति है। सोरोकिन इसी संस्कृति को सर्वोत्तम कहते हैं।

उपर्युक्त सभी प्रकार की संस्कृतियाँ आदर्श प्ररूप हैं। इसलिए सोरोकिन ने व्यवहार में एक उस संस्कृति का भी उल्लेख किया है जो मिश्रित (Mixed) संस्कृति होती है। ऐसी संस्कृति भावात्मक तथा संवेदनात्मक संस्कृति के असन्तुलित योग को प्रकट करती है।

सोरोकिन ने सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या सांस्कृतिक तत्वों में उतार-चढ़ाव के आधार पर दी है। इन्होंने निस्सन्देह स्पष्ट किया है कि विकास की चरम सीमा के पश्चात् गति रुकती नहीं है, किन्तु विपरीत प्रक्रिया अर्थात् पतन प्रारम्भ हो जाता है। जैसे कैरमबोर्ड की गोटी स्ट्राइगर से टकराने के बाद पुनः पहले स्थान पर लौट आती है, ठीक इसी प्रकार परिवर्तन की गति भी उतार-चढ़ाव पर चलती रहती है। सोरोकिन का यह सिद्धान्त सर्वथा मौलिक है। सोरोकिन के अनुसार, पिछले पच्चीस सौ समाज में जो भी परिवर्तन हुए हैं, वे उतार-चढ़ाव के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। हैसस्पीयर के अनुसार, यह उतार-चढ़ाव हमारे समाज में पाए जाने वाले सामाजिक सम्बन्धों में, संस्कृति के विभिन्न रूपों में, जनसंख्या में तथा आर्थिक जगत में देखे जा सकते हैं। सामाजिक घटनाएँ इन्हीं उतार-चढ़ाव के कारण बनती-बिगड़ती रहती हैं और इसी से सामाजिक परिवर्तन होते हैं।

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Anjali Yadav

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