विद्यालय संगठन / SCHOOL ORGANISATION

जनतान्त्रिक शिक्षा प्रशासन के नियम | Principles of Democratic Educational Administration in Hindi

जनतान्त्रिक शिक्षा प्रशासन के नियम | Principles of Democratic Educational Administration in Hindi
जनतान्त्रिक शिक्षा प्रशासन के नियम | Principles of Democratic Educational Administration in Hindi

जनतान्त्रिक शिक्षा प्रशासन के विभिन्न नियमों का वर्णन कीजिए। 

जनतान्त्रिक शिक्षा प्रशासन के नियम (Principles of Democratic Educational Administration)

जनतन्त्रात्मक शिक्षा प्रशासन के कुछ नियम होते हैं, जिनकी गणना निम्न प्रकार की जा सकती है-

  1. उत्तरदायित्वों में सहभागिता का नियम (Principle of sharing responsibility),
  2. समानता का नियम ( Principle of equality),
  3. स्वतन्त्रता का नियम (Principle of freedom),
  4. सहयोग का नियम (Principle of cooperation),
  5. न्याय का नियम (Principle of justice),
  6. वैयक्तिक क्षमताओं को पहचानने का नियम (Principle of recognition of the individual worth),
  7. नेतृत्व का नियम (Principle of Leadership) |

जनतन्त्रात्मक शैक्षिक प्रशासन को निरन्तर उत्तम बनाने के लिए उपर्युक्त सभी नियमों का निर्वाह किया जाना आवश्यक है। इन नियमों के सम्बन्ध में संक्षिप्त जानकारी निम्न प्रकार है-

1. उत्तरदायित्वों में सहभागिता का नियम (Principle of Sharing Responsibility)

प्रजातन्त्र का मूल उद्देश्य नागरिकों को लगभग सभी कार्यों में सक्रिय भागीदार बनाना समझा जाता है। यह देखा भी जाता है कि जहाँ जनतन्त्रात्मक प्रणाली होती है, वहाँ प्रबुद्ध एवं साधारण व्यक्ति सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक एवं शैक्षिक समस्याओं में खुल कर भाग लेते हैं। इसी प्रकार जनतन्त्रीय शैक्षिक प्रशासन के अन्तर्गत प्रशासन करना केवल प्रशासक का ही जन्मसिद्ध अधिकार नहीं समझा जाता, अपितु सभी शैक्षिक बातों में प्रधानाचार्य, अध्यापक, छात्र तथा संरक्षक मिल कर उन्नति का प्रयास करते हैं। विद्यालयों में “शिक्षक संघ” तथा “छात्र-परिषद्” का निर्माण करके विद्यालय की बहुभुखी उन्नति में सभी का सहयोग प्राप्त किया जाता है। इतना अवश्य है कि सुयोग्य तथा अनुभवी अध्यापकों के निर्देशन में ‘छात्र-परिषद्’ के कार्यों पर उचित नियन्त्रण होना ही चाहिए। विद्यालय या अन्य शिक्षा संगठनों का नियन्त्रण करने के लिए केवल प्रधानाचार्य की शक्ति ही पर्याप्त नहीं होती वरन् अध्यापकों तथा छात्रों की शक्ति तथा सम्मति भी आवश्यक होती है। इस दृष्टि के कुशल प्रशासक अपनी शक्ति तथा अधिकारों को अपने सभी साथियों में विभाजित कर देते हैं। वास्तव में, उत्तरदायित्वों में सभी को उचित सहभागी बनाने का कार्य प्रशासक की प्रेरणा पर अधिक अवलम्बित होता है। सुव्यवस्थित प्रशासन के लिए यह नियम अत्यन्त उपयोगी और आवश्यक है, इसमें सन्देह नहीं ।

2. समानता का नियम (Principle of Equality)

समानता का नियम वास्तव में मनुष्य के स्वभाव एवं व्यवहार पर अधिक आधारित होता है। कुछ व्यक्ति जन्म से ही ऐसी प्रवृत्ति वाले होते हैं कि उन्हें अपने अतिरिक्त सभी व्यक्ति दीन-हीन, अकुशल और अयोग्य दिखायी देते हैं। यह विचार ही मानवता का विरोधी है। जनतन्त्रात्मक प्रणाली व्यक्ति को यह सोचने के लिए बाध्य करती है कि समाज में स्वयं ही नहीं, अपितु अन्य व्यक्ति भी समान अधिकारों के साथ जीने की इच्छा रखते हैं। विद्यालयों में प्रधानाचार्यों एवं अन्य सम्बन्धित प्रबन्धकों को भी समानता के नियम का निरन्तर पालन अवश्य करना चाहिए। इस नियम के अन्तर्गत प्रशासक को निरन्तर स्वामित्व की भावना का परित्याग करना पड़ता है। प्रशासक को यह समझने की भूल कदापि नहीं करनी चाहिए कि ईश्वर ने केवल उसे ही शासनकर्त्ता के रूप में संसार में भेजा है। सच तो यह है कि अवसर मिलने पर तथा परिस्थितियों के अनुकूल होने पर साधारण व्यक्तित्व भी निखर कर सामने आ सकता है। समानता के नियम के अनुसार कुशल प्रधानाचार्य या प्रशासक के द्वारा अन्य सहयोगियों को सहभागी के रूप में ही समझा जाना चाहिए। समान परिस्थितियों में आश्रितता तथा मानसिक दासता के लिए कोई स्थान नहीं होता। जनतन्त्रात्मक नीतियुक्त प्रशासक को सम्पूर्ण संगठन में भ्रातृभाव एवं उदारता का वातावरण बनाना चाहिए। उत्तम प्रशासन के मूल में समानता की भावना निश्चित रूप से निहित होती है।

3. स्वतन्त्रता का नियम (Principle of Freedom)

स्वतन्त्रता तो प्रजातन्त्र की प्रथम आवश्यकता होती हैं। भाषण, विचाराभिव्यक्ति एवं कार्यक्षेत्र में स्वतन्त्रता मिलने से ही व्यक्तित्व का पूर्ण विकास सम्भव होता है। अतएव शैक्षिक प्रशासन में भी स्वतन्त्रता के नियम का पालन अवश्य किया जाना चाहिए। अनावश्यक तथा अवांच्छनीय रूप में प्रशासक द्वारा आश्रितों की आलोचना एवं निन्दा करने से संगठन का नियन्त्रण तो दोषपूर्ण होता ही है, इसके अतिरिक्त कर्मचारियों की कार्यक्षमता में भी विराम लग जाता है। परतन्त्रता एवं आलोचना की आशंका व्यक्तियों को सदैव दुःखी, निराश तथा अकर्मण्य बना देती है। विद्यालयों में प्रधानाचार्यों, अध्यापकों तथा छात्रों को विद्यालय की उन्नति में सहायक सभी योजनाओं का निर्माण करने के लिए स्वतन्त्र अवसर दिया जाना चाहिए। किसी भी व्यक्ति पर विचारों का बोझ बलपूर्वक न लादा जाना स्वतन्त्रता का ही परिचायक है। जिस विद्यालय में छात्र एवं अध्यापक समस्याओं के सम्बन्ध में प्रश्न पूछ सकते हों, आलोचना करने का अधिकार रखते हों तथा सुधार हेतु उनके सुझावों का आदर किया जाता हो, उस विद्यालय में स्वतन्त्रता के नियम को स्वीकार किया जाता है।

स्वतन्त्रता का नियम केवल प्रशासनिक कार्यों में या अनुशासनात्मक कार्यों तक ही सीमित नहीं होना चाहिए, अपितु कक्षा भवनों में अध्यापकों द्वारा नवीन सामग्री का उपयोग करने में प्रयोगशालाओं में खेल के मैदानों तथा छात्रों के सभी कार्यकलापों में स्वतन्त्रता का निर्वाह किया जाना चाहिए। छात्रों की अतुलित शक्ति का उपयोग स्वतन्त्र वातावरण में ही हो सकता है। ऐसे स्वतन्त्रता युक्त वातावरण की सृष्टि करने के लिए प्रशासक को अपना व्यक्तित्व सर्वगुणसम्पन्न एवं हीन भावना-प्रन्थिरहित बनाना चाहिए। प्रशासक व्यक्तित्व में गुणों तथा क्षमताओं का ऐसा जादू होना चाहिए कि सभी क्षेत्रों में स्वतन्त्रता दिए जाने पर भी संगठन के कर्मचारी उसका निरन्तर आदर करते रहें। कुछ भी हो, स्वतन्त्रता के नियम का पालन किए बिना जनतन्त्रात्मक शैक्षिक प्रशासन पूर्णता को प्राप्त नहीं हो सकता।

4. सहयोग का नियम (Principle of Cooperation)

जनतन्त्रात्मक प्रणाली में सहयोग भावना (Cooperation) का महत्व किसी की भी समझ से परे नहीं है। “कृषि, व्यापार, वाणिज्य” आदि सभी क्षेत्रों में तथा सम्पूर्ण देश की पंचवर्षीय योजनाओं में तभी सफलता मिलती है, जब जनता का तथा सम्बन्धित कर्मचारियों का सहयोग मिलता है। वास्तव में, जब व्यक्ति केवल अपनी ही स्वार्थपूर्ति की बात न सोचकर सम्पूर्ण समाज के हित को सर्वोपरि मानकर कार्य में उत्साहपूर्वक जुटते हैं, तब वे सहयोग के नियम का ही पालन करते हैं। सहयोगात्मक भावना के हृदय में आते ही व्यक्ति सभी की उन्नति को अपनी उन्नति समझने लगता है, व्यक्ति एवं समष्टि में भेद नहीं रह जाता तथा परोपकार, सहानुभूति, उदारता जैसे गुणों की हृदय में स्वयमेव उत्पत्ति होने लगती है। सहयोग मिलता तो अवश्य है, किन्तु सहयोग प्राप्त करने के लिए प्रशासक को कठिन तथा निरन्तर साधना करनी पड़ती है। प्रशासक को अपने स्वभाव एवं व्यवहार से “कटुता, पक्षपात, अनावश्यक निन्दा, खीझ, पूर्वाग्रह” आदि को सदैव के लिए दूर करना होता है। वास्तव में, सहयोग का नियम व्यक्ति के सद्व्यवहार, मृदुभाषण तथा निश्छल स्वभाव से घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित होता है। इस नियम को विद्यालयों में पालन करने के लिए नीचे पंक्तियों में विस्तारपूर्वक विचार किया जा रहा है।

उत्तम प्रशासक विद्यालय में यदि छात्रों एवं अध्यापकों को मिलकर कार्य करने की प्रेरणा देता है तथा उनके श्रेष्ठ कार्यों की प्रशंसा करता है तो उस विद्यालय में सहयोग की भावना अवश्य व्याप्त हो जाती है। विद्यालय तो समाज के लघुरूप हैं, जहाँ सहयोगिता के नियम का अभ्यास दिया ही जाना चाहिए।

विद्यालय से सभी कार्यों में अर्थात् अध्यापन कार्य, पाठ्येत्तर क्रियाओं, वार्षिक खेल-कूद, उत्सवों तथा विभिन्न प्रकार के आयोजनों में प्रधानाचार्य, अध्यापकों एवं छात्रों, प्रधानाचार्य तथा संरक्षकों के बीच सहयोग की भावना दिखाई देनी चाहिए। सहयोग केवल हृदय में रखने की वस्तु नहीं होती, यह तो व्यक्तियों की कार्यशैली में दिखाई पड़ा करती है। विद्यालय के कार्यों में मुट्ठी भर अध्यापकों का होकर कार्य करना या और अन्य अध्यापकों का तटस्थ भाव से मूकदर्शक होना या कार्यशील व्यक्तियों का उपहास करते रहना असहयोग की भावना का ही द्योतक होता है। किन्तु इस असहयोग का कुछ कारण अवश्य होता है। कारण को दूर करने पर कार्य ठीक होने लगता है। अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि समाज में या राष्ट्र में कोई भी न तो स्थायी मित्र होता है और न स्थायी शत्रु ही होता है। विशेष व्यवहार के बदले में वैसे ही व्यवहार की दूसरी ओर से प्रतिक्रिया होती है। प्रेम के बदले में प्रेम, घृणा के बदले घृणा एवं उपेक्षा के बदले में उपेक्षा मिला करती है। वास्तव में, दोषों को गुणों में बदलने में प्रशासक को जागरूक होना चाहिए। प्रशासक का व्यवहार यदि भयमुक्त, बदले की भावना से रहित तथा सर्वजनहितकारी होता है तो उसे सहयोग भी अवश्य मिला करता है। केवल विद्यालय में ही सहयोग की आवश्यकता नहीं है वरन् समूचे शिक्षा विभाग में इस सद्गुण की आवश्यकता होती है।

आजकल देखा जाता है कि जिला विद्यालय निरीक्षक अथवा शिक्षा निदेशक वढी सफल समझा जाता है जो अध्यापकों, छात्रों, प्रधानाचार्यो एवं अन्य कर्मचारियों के सच्चे सहयोग को प्राप्त करता है। प्रत्येक वर्ष शिक्षा विभाग की ओर से खेलकूद तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए जिलों तथा प्रान्तों में बड़ी-बड़ी रैलियाँ (समारोह) आयोजित की जाती हैं, विज्ञान प्रदर्शनियाँ लगाई जाती है, विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण शिविर लगाए जाते हैं, जिनकी सफलता सभी के सहयोग पर अवलम्बित होती है। शिक्षा संगठन में लगे हुए सभी कर्मचारियों की पारस्परिक सहयोग भावना प्रशासक को स्थायी यश दिलाने में सहायक होती है, इसमें सन्देह नहीं किया जा सकता सहयोग- भावना को विद्यालय में निरन्तर विकसित किया जाना चाहिए।

जॉन डीवी के अनुसार- “जो समाज अपने व्यक्तियों में अन्तक्रिया सम्बन्ध स्थापित करके एक साथ कार्य करने के अवसर प्रदान करता है तथा समानता एवं सहयोग की भावना को विकसित करता है, सच्चे रूप में जनतन्त्रात्मक होता है।”

वास्तव में विद्यालयों में सहयोग के नियम का पालन करने हेतु उचित एवं अनुकूल शिक्षा व्यवस्था की भी नितान्त आवश्यकता है।

5. न्याय का नियम (Principle of Justice)

न्याय की भावना प्रशासक के स्वभाव की सर्वोपरि भावना होती है। जनतन्त्र के मूल अधिकारों तथा तत्वों में न्याय की सर्वप्रमुख प्रधानता है। शैक्षिक प्रशासन में प्रशासक का यह पुनीत कर्तव्य है कि वह किसी व्यक्ति के प्रति अनुचित रूप से पक्ष लेने का प्रदर्शन न करे। विद्यालय में सभी व्यक्तियों के साथ एक सा व्यवहार किया जाना परमावश्यक है। कर्मचारियों में यदि कोई विवाद उठ खड़ा हो तो उसका निर्णय तुरन्त करना तथा किसी के प्रति भी पक्षपात न करना प्रशासक का सर्वोत्तम गुण कहा जाता है। वास्तव में, न्याय भावना का अभाव ही कर्मचारियों को निराश करता है तथा बड़े-बड़े आन्दोलनों को जन्म भी देता है। विद्यालय में या किसी संगठन में जो व्यक्ति सर्वथा योग्य है, उसकी प्रशंसा तथा उन्नति की जानी चाहिए तथा जो व्यक्ति अयोग्य तथा अकर्मण्य है, उन्हें समझाया जाना चाहिए और उनके कार्य के अनुसार ही पारिश्रमिक दिया जाना चाहिए। प्रशासक को नियम तथा कानून से ऊपर उठकर किसी भी व्यक्ति को अनुचित लाभ देने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। संगठन के सभी कार्यों तथा व्यक्तियों का ठीक एवं निष्पक्ष लेखा-जोखा प्रशासक के पास होना चाहिए तथा कोई भी निर्णय लेने से पूर्व प्रशासक द्वारा उचित छानबीन की जानी चाहिए। विद्यालयों में भी अध्यापकों एवं छात्रों द्वारा यह अनुभव दिया जाना चाहिए कि विद्यालय के प्रधानाचार्य शुद्धाचरण तथा न्याय के प्रतीक हैं। वास्तव में, न्याय की भावना का यदि ठीक रूप से पालन किया जाए तो अनेक समस्याओं का अन्त स्वतः ही हो जाता है।

6. वैयक्तिक क्षमताओं को पहचानने का नियम (Principle of Individuality)

किसी भी समाज में वैसे तो सभी व्यक्ति साधारण रूप में समान होते हैं तथा सभी के प्रति समानता एवं न्याय का व्यवहार किया ही जाना चाहिए, परन्तु व्यक्तिगत विभिन्नता सिद्धान्त के आधार पर सभी व्यक्ति समान योग्यता वाले नहीं होते। इसके अतिरिक्त स्वभाव की विचित्रता, व्यवहार की विभिन्नता एवं वंशानुक्रम की पृथकता सभी व्यक्तियों में अन्तर उत्पन्न करती रहती है। फिर भी इन सभी प्रकार के व्यक्तियों को एक ही संगठन के अन्तर्गत कार्य करना पड़ता है। जनतन्त्र की भावना से युक्त प्रशासक का यह कर्तव्य है कि उसे अपने सभी आश्रितों का आदर करना चाहिए। कोई भी व्यक्ति किसी भी वंश में उत्पन्न हुआ हो या किसी भी जाति से सम्बन्धित हो प्रशासक द्वारा सद्कार्यों की प्रशंसा की जानी चाहिए। अपने अध्यापकों या छात्रों की भावनाओं का अकारण दमन करके प्रशासक का व्यक्तित्व भी शून्य हो जाता है। विद्यालय में जो कठिन परिश्रमी, सच्चा सहयोगी एवं योग्य होता है, वह प्रशासक के हृदय में समा जाता है और प्रशासक का भी यही कर्त्तव्य होना चाहिए कि ऐसे व्यक्तियों की क्षमताओं को पहचानकर निरन्तर अग्रसर होने का अवसर प्रदान करे। इसके साथ यह भी कहना उचित है कि जिन छात्रों, अध्यापकों या अन्य कर्मचारियों को बाल्यकाल से ही सुन्दर तथा सम्पन्न वातावरण मिलता है, जिसका सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, भावात्मक आदि विकास उपयुक्त वातावरण में होता है। ऐसा व्यक्ति किसी भी संगठन में पहुँचकर अनुभवी तथा उपयोगी सिद्ध होता है। प्रशासक को विद्यालय में सभी कर्मचारियों के स्वभाव, व्यवहार एवं कार्यों का गम्भीर अध्ययन करना चाहिए। प्रशासक यदि उचित कार्यों के लिए उचित प्रशंसा करता है तो कर्मचारियों के लिए इससे बड़ा वरदान कोई नहीं हो सकता। इस सम्बन्ध में शिक्षा शास्त्री “रायबर्न” का विचार है कि विद्यालयों में कर्मचारियों के श्रेष्ठ कार्यों के लिए उत्साहवर्धन करना प्रशासक का उत्तम स्वभाव है। प्रशासक यदि प्रशासन की उत्तमता में विश्वास करते हैं तो उन्हें अपने आश्रितों की योग्यताओं तथा क्षमताओं को द्वेष भावनारहित होकर पहचानना चाहिए।

7. नेतृत्व का नियम (Principle of Leadership)

नेतृत्व के उचित शिक्षण बिना जनतन्त्रात्मक प्रणाली सफल नहीं हो सकती। जब किसी समाज या राष्ट्र के व्यक्ति अपने उत्तरदायित्वों का ठीक पालन करते हैं, अनुशासित होते हैं तथा नेतृत्व शक्ति का सदुपयोग करते हैं तो वह समाज या राष्ट्र निरन्तर उन्नतिशील होता है। किसी भी विद्यालय का प्रशासक अनेक व्यक्तियों तथा समुदायों का नेता होता है। यदि उसमें नेतृत्व शक्ति के सभी गुण विद्यमान होते हैं तो वह योग्य प्रशासक सिद्ध होता है। नेतृत्व शक्ति का विकास करने के लिए प्रशासक में अनेक गुणों का होना परमावश्यक है। उचित नेतृत्व प्राप्त करने के लिए प्रशासक में तत्क्षण बुद्धि होनी चाहिए, समस्याओं को पहचानने की शक्ति होनी चाहिए, सेवा भावना होनी चाहिए, सामाजिक व्यवहार में कुशल होना चाहिए। कठिन एवं संकटकालीन क्षणों में प्रशासक के नेतृत्व की परख होती है। अतएव ऐसे अवसरों पर उसमें धैर्य, साहस, दृढ़ निश्चय और विवेक का अभाव नहीं होना चाहिए। जिस प्रशासन में दूरदर्शिता, योजना निर्माण की कुशलता, निष्पक्षता, व्यक्तियों को पहचानने की परख, अप्रदर्शिता, भाषण, लेखन तथा सामाजिक उत्सवों में योग्यता आदि अनेक गुण विद्यमान होते हैं, वही उपयुक्त नेता भी बन सकता है। इसमें सन्देह नहीं कि प्रशासक नेतृत्व शक्ति के अभाव में अपना कार्य सफलतापूर्वक नहीं कर सकता।

प्रजातांत्रिक शिक्षा प्रशासन की सफलता के लिए उपर्युक्त सभी नियमों का पालन किया जाना आवश्यक है। विद्यालयों में जो प्रशासक गुणों से युक्त होते और इन गुणों का पालन करते हैं, वही प्रशंसा एवं स्थायी यश के भागी होते हैं।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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