मार्क्स के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
मार्क्स का सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त (Marx’s Theory of Social Change)
कार्ल मार्क्स का जन्म जर्मनी में हुआ था। पूँजीवादी व्यवस्था के विश्लेषण तथा श्रम की प्रक्रियाओं और समस्याओं के स्पष्टीकरण में वह अद्वितीय माने जाते हैं। वह श्रमिकों का मसीहा था, जिनके हितों की लड़ाई उन्होंने अनेक कष्ट सहते हुए जीवन पर्यन्त लड़ी। वह वैज्ञानिक समाजवाद या समाजवाद के पिता कहे जाते हैं। कार्ल मार्क्स एक ऐसे विचारक थे, जिनके विचारों के विश्लेषण, स्पष्टीकरण, पक्षपोषण और आलोचना एवं विरोध को लेकर इतना अधिक लिखा गया है, जितना किसी अन्य विचारक के लिए कभी नहीं लिखा गया। समाजशास्त्रीय एवं अर्थशास्त्रीय चिन्तन में कार्ल मार्क्स की उपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि या तो आप उनका समर्थन करेंगे या उनकी आलोचना करेंगे, लेकिन उनसे बचकर नहीं निकल सकेंगे ।
कार्ल मार्क्स के समाज तथा सामाजिक परिवर्तन सम्बन्धी विचारों की संक्षिप्त रूपरेखा हमें उनके ग्रन्थ ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान’ की प्रस्तावना से मिलती है। मौरिस डॉव ने उचित ही लिखा है कि, “इस कृति के सम्बन्ध में निस्सन्देह सबसे व्यापक रूप से ज्ञात, 1859 की प्रस्तावना का यह अंश है, जिसमें उनके सामान्य सिद्धान्त का सारांश दिया गया है।” प्रस्तावना का यह अंश उनके इतिहास के भौतिकवादी निर्वचन का भी आधार है। मार्क्स के विचार उनके इस विश्वास में निहित हैं कि न तो कानूनी सम्बन्धों की और न ही राजनीतिक ढाँचों को अपने आप में अथवा मानव मस्तिष्क के तथाकथित सामान्य विकास के आधार पर समझा जा सकता है, बल्कि इसके विपरीत वे जीवन की भौतिक परिस्थितियों में उत्पन्न होते हैं। उपर्युक्त प्रस्तावना में दिए गए उनके मूल विचारों को हम निम्नलिखित नौ सूत्रों के रूप में समझ सकते हैं—
1. अपने अस्तित्व के सामाजिक उत्पादन में मनुष्य अपरिहार्य रूप से ऐसे निश्चित सम्बन्धों में बँधते हैं, जो उनकी इच्छाओं से स्वतन्त्र होते हैं अर्थात् वे उत्पादन की अपनी भौतिक शक्तियों के विकास की निश्चित मंजिल के अनुरूप उत्पादन के सम्बन्धों में बँधते हैं। इस प्रकार, मार्क्स की मान्यता के अनुसार अस्तित्व की सामाजिक दशाएँ जीवन की भौतिक परिस्थितियों में प्रकट होती हैं। भौतिक दशाओं को मार्क्स ने दो भागों में बाँटा है- एक को उसने उत्पादन की शक्तियाँ कहा है तथा दूसरे को उत्पादन के सम्बन्ध उत्पादन की भौतिक शक्तियों में उत्पादन में संलग्न भौतिक खनिज पदार्थ, यन्त्र, मशीनें, अन्य वस्तुएँ एवं स्वयं श्रम इत्यादि सम्मिलित हैं। सरल शब्दों में, हम कह सकते हैं कि उत्पादन के साधन ही उत्पादन की भौतिक शक्तियाँ कहलाते हैं, किन्तु विकास के निश्चित स्तर पर ये शक्तियाँ विशिष्ट प्रकार के उत्पादन के सम्बन्धों में बँध जाती हैं। उत्पादन के सम्बन्धों से कार्ल मार्क्स का आशय उत्पादन के साधनों के अभिग्रहण या स्वामित्व से है अर्थात् सम्पत्ति सम्ब या स्वामित सम्बन्ध उत्पादन के सम्बन्धों को प्रकट करते हैं।
2. उत्पादन के इन सम्बन्धों का पूर्ण समाहार ही समाज का आर्थिक ढाँचा है, जो समाज का असली आधार होता है, इसी पर कानूनी तथा राजनीतिक ऊपरी ढाँचा खड़ा होता है तथा सामाजिक चेतना के निश्चित स्वरूप उसी के अनुरूप होते हैं। कार्ल मार्क्स उत्पादन के सम्बन्धों को आर्थिक व्यवस्था की कुंजी मानते हैं और किसी समाज के आर्थिक ढाँचे को उस समाज की नींव घोषित करते हैं, जिस पर सामाजिक चेतना के सभी स्वरूप जैसे कानून, राजनीति, परिवार तथा नातेदारी, धर्म आदि ऊपरी ढाँचा खड़ा होता है। यह ऊपरी ढाँचा आर्थिक नींव के अनुरूप ही होता है अर्थात् उसके द्वारा निर्धारित होता है। मार्क्स की स्पष्ट घोषणा है कि, “भौतिक जीवन की उत्पादन पद्धति सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक जीवन की आम प्रक्रिया को प्रभावित करती है।”
3. यह मनुष्य की चेतना नहीं होती, जो उनके अस्तित्व को निर्धारित करती है, बल्कि यह उनका सामाजिक अस्तित्व होता है, जो उनकी चेतना को निर्धारित करता है। कार्ल मार्क्स के अनुसार, मनुष्य की समस्त विचारधाराएँ उनके अस्तित्व की भौतिक दशाओं से निर्धारित होती हैं। विचार भौतिक परिस्थितियों का प्रतिबिम्ब मात्र है।
4. उत्पादन के मौजूदा सम्बन्ध, अपने विकास के एक निश्चित चरण में पहुँचकर, उत्पादक शक्तियों के विकास के स्वरूप न रहकर उनके लिए बेड़ियाँ बन जाती हैं तथा फिर सामाजिक क्रान्ति का युग शुरू होता है। सचमुच ही समाज की भौतिक उत्पादन शक्तियों में कालान्तर में ऐसे परिवर्तन हो जाते हैं कि सम्पत्ति सम्बन्धों के जिस दायरे में वे अब तक कार्य करती रही थीं, उनके साथ उनका टकराव पैदा हो जाता है। ये सम्पत्ति के सम्बन्ध उनके पाँव की जंजीर बन जाते हैं। इनके लिए एक ही रास्ता रह जाता है कि क्रान्ति के द्वारा इन जंजीरों को तोड़ दें तथा आर्थिक ढाँचे में आमूल-चूल परिवर्तन कर दें।
5. आर्थिक ढाँचे में परिवर्तन से देर-सवेर समाज के समस्त वृहदाकार ऊपरी ढाँचे में भी रूपान्तरण हो जाता है। ऊपरी ढाँचे में समाज की वैधानिक, राजनीतिक, धार्मिक, कलात्मक या दार्शनिक संस्थाएँ सम्मिलित होती हैं।
6. ऐसे सामाजिक परिवर्तनों का अध्ययन करने के लिए यह आवश्यक है कि आर्थिक मूलाधार के भौतिक रूपान्तरण और ढाँचे के रूपान्तरण के बीच भेद किया जाए। पहले को सूक्ष्मता से मापा जा सकता है, दूसरे को सूक्ष्मता से माप तो नहीं सकते, किन्तु उस काल के भौतिक जीवन के अन्तर-विरोधों के आधार पर परख सकते हैं, उसकी व्याख्या कर सकते हैं। सल शब्दों में, यह कहा जाएगा कि सामाजिक परिवर्तन भौतिक जीवन के अन्तर-विरोधों द्वारा ही स्पष्ट किया जा सकता है। यहाँ भौतिक जीवन के अन्तर-विरोध से आशय उत्पादन का सामाजिक शक्तियों तथा उत्पादन के सम्बन्धों के बीच उत्पन्न टकराव से ही है।
7. उपर्युक्त सूत्र से यह भी स्पष्ट होता है कि प्रत्येक समाज व्यवस्था की संरचना में ही सामाजिक परिवर्तन का स्रोत निहित होता है। किसी भी समाज व्यवस्था का खात्मा तब तक नहीं होता, जब तक उसके अन्दर की सभी उत्पादन शक्तियाँ, जिनके लिए वह पर्याप्त है, विकसित नहीं हो जातीं तथा उत्पादन के नए श्रेष्ठतर सम्बन्ध तब तक पुराने सम्बन्धों की जगह नहीं लेते, जब तक पुराने समाज के ढाँचे में उनके अस्तित्व की भौतिक परिस्थितियाँ परिपक्व नहीं हो जातीं। उदाहरण के लिए, केतली में पानी भरकर जब आँच पर चढ़ाया जाता है तो धीरे-धीरे पानी का तापमान बढ़ता है, कुछ देर बाद नीचे से छोटे-छोटे बुलबुले ऊपर सतह की ओर उठने लगते हैं और तत्पश्चात् स्थिति वह आ जाती है कि पानी की सतह पर हलचल हो जाती है और वह खौलने लगता है। पुराने बिन्दु पर सन्तुलन की जगह असन्तुलन पैदा होता है। इसी प्रकार, समाज के अन्तर-विरोध, धीरे-धीरे सामाजिक क्रान्ति के ताप को बढ़ाते रहते हैं तथा जब नए सन्तुलन के लिए आवश्यक अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा हो जाती हैं, तब क्रान्ति घटित हो जाती है। मार्क्स ने उचित ही लिखा है कि, “कोई भी समस्या स्वयं तभी खड़ी होती है, जब उसके समाधान की भौतिक परिस्थितियाँ पहले से या तो मौजूद हों या कम से कम निर्माण के दौर में हों।”
8. मार्क्स ने अपने उपर्युक्त आर्थिक नियम को मानव समाज के इतिहास के निर्वचन पर भी लागू किया है। यह उसका ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ कहलाता है। मार्क्स के अनुसार, मानव के पूरे इतिहास को, “व्यापक रूपरेखा के तौर पर, उत्पादन की एशियाई, सामंती और आधुनिक पूँजीवादी युगों के रूप में रखा जा सकता है।”
9. उत्पादन की पूँजीवादी पद्धति उत्पादन की सामाजिक प्रक्रिया का अन्तिम रूप है। पूँजीवादी व्यवस्था स्वयं ही ऐसा विरोध उत्पन्न कर रही है कि क्रान्ति द्वारा उसका विनाश निश्चित है। इस व्यवस्था में धन का संकेन्द्रण कुछ ही परिवारों में होता चला जाता है। श्रमिकों की संख्या बढ़ती चली जाती है। मजदूरी के लिए उनकी पारस्परिक प्रतिस्पर्द्धा मजदूरी को और घटाती चली जाती है। मजदूरों में वर्ग चेतना जागती है तथा वे क्रान्ति के लिए प्रेरित होते हैं, किन्तु वह क्रान्ति शोषण के विरुद्ध अन्तिम क्रान्ति होगी, क्योंकि सर्वहारा मजदूर अपने हाथ में राज्य सत्ता लेकर निजी सम्पत्ति के अधिकार को सदा-सदा के लिए खत्म कर देंगे।
मार्क्स के उपर्युक्त मूल आर्थिक विचारों में हमें दो महत्वपूर्ण बातें स्पष्ट नहीं दिखाई देतीं, जिन्हें उन्होंने बाद में कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र में लिखा। वे हैं-एक, सामाजिक वर्गों का स्पष्ट विभाजन एवं द्वितीय, वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त। कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र में उन्होंने बताया है कि, “अभी तक आविर्भूत समाज का इतिहास वर्ग संघर्षो का इतिहास रहा है।” समाज, सिवाय आदिम साम्यवादी युग को छोड़ कर, सदैव दो स्पष्ट वर्गों में विभाजित होता रहा है-एक शोषक वर्ग जो सम्पत्तिशाली रहा तथा दूसरा शोषित वर्ग जो सम्पत्तिविहीन रहा। उन्हीं के शब्दों में, “स्वतन्त्र मनुष्य और दास, पैट्रीशियन और प्लेवियन, सामन्ती प्रभु और भूदास, शिल्प-संघ का उस्ताद कारीगर और मजदूर कारीगर-संक्षेप में उत्पीड़क तथा उत्पीड़ित बराबर एक-दूसरे का विरोध करते आए हैं। वे सभी छिपे, कभी प्रकट रूप से लगातार एक-दूसरे से लड़ते रहते हैं, जिस लड़ाई का अन्त हर बार या तो पूरे समाज के क्रान्तिकारी पुनर्गठन में, या संघर्षरत वर्गों की बर्बादी में हुआ है।” मानव समाज की दृष्टि से यदि कहें तो हर युग के बाद शोषितों द्वारा शोषकों का उन्मूलन हुआ है और नई व्यवस्था कायम हुई है। वर्तमान युग का पूँजीवाद भी अपनी क्रान्तिकारी भूमिका पूरी कर चुका है। अतः पूँजीपति वर्ग सर्वोपरि अपने कब खोदने वालों को पैदा कर रहा है। उसका पतन और सर्वहारा वर्ग की विजय दोनों समान रूप से अनिवार्य है।
कार्ल मार्क्स ने पूँजीवादी व्यवस्था की कड़ी आलोचना प्रस्तुत की है तथा तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि उसने इतने अन्तर-विरोध पैदा कर दिए हैं कि उसका ढाँचा चरमरा गया है। इसीलिए मार्क्स ने सर्वहारा वर्ग का क्रान्ति के लिए आह्वान किया है। उनके शब्द विशाल सर्वहारा को निश्चित ही प्रेरणा देते हैं। घोषणापत्र की अन्तिम पंक्तियाँ निस्सन्देह बड़ी मार्मिक और प्रेरणादायक हैं-“कम्युनिस्ट क्रान्ति के भय से शासक वर्ग कांपा करें। सर्वहारा के पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवा कुछ नहीं है। जीतने के लिए सारी दुनिया है। दुनिया के मजदूरों एक हो।”
कार्ल मार्क्स एक वैज्ञानिक तथा समाज विचारक ही नहीं थे वरन् क्रान्तिकारी भी थे। उन्होंने सर्वहारा क्रान्ति के लिए नैतिक और तार्किक विचारधारा प्रस्तुत की है। उसमें उन्होंने भावी समाज की रूपरेखा भी खींची है, इस क्रान्ति के बाद स्थापित होगा। भावी समाज दो चरणों में स्थापित होगा। पहला चरण समाजवाद का होगा, जिसमें उत्पादन के सभी साधन • राज्य के स्वामित्व में चले जाएँगे। श्रम के गुण के अनुसार मजदूरी दी जाएगी। शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य तथा बुढ़ापा सभी की व्यवस्था करना राज्य का कर्त्तव्य होगा। श्रम अपनी प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकेगा और श्रम करना अनिवार्य भी होगा। समाजवाद स्पष्ट घोषणा करता है कि काम नहीं तो रोटी भी नहीं। इस पहले चरण के बाद समाज साम्यवाद में प्रवेश करेगा, जहाँ व्यक्ति के लिए ऐसे उत्पादन की सामाजिक शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो चुकी होंगी कि उसके व्यक्तित्व के विकास की पूरी सम्भावनाओं को मूर्त होने के सभी अवसर प्राप्त होंगे। साम्यवाद का मूल मन्त्र होगा प्रत्येक से क्षमतानुसार और प्रत्येक को आवश्यकतानुसार विकास के इस चरमोत्कर्ष पर समाज पूर्णतः वर्गविहीन हो जाएगा। ऐसी स्थिति में राज्य का महत्व भी समाप्त हो जाएगा और वह भी धीरे-धीरे विलीन हो जाएगा।
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