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सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त | Theories of Social Change in Hindi

सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त | Theories of Social Change in Hindi
सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त | Theories of Social Change in Hindi

सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न सिद्धान्तों को संक्षेप में बताइये।

सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त (Theories of Social Change)

सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या हेतु अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है, परन्तु मुख्य रूप से सामाजिक परिवर्तन के दो प्रकार के सिद्धान्तों को ही अधिक मान्यता मिली है। ये सिद्धान्त अमांकित है-

सामाजिक परिवर्तन का रैखिक सिद्धान्त (Linear Theory of Social Change)

रैखिक सिद्धान्त में सामाजिक परिवर्तन को एक निश्चित पूर्व निर्धारित रूप में देखा जाता है। यह विकासवादी विचारधारा की तरह इस बात को स्वीकार करता है कि विकास या परिवर्तन की गति कुछ निश्चित स्तरों से गुजरती है दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि रैखिक सिद्धान्त में परिवर्तन को निरन्तर आगे की तरफ जैसे कि एक रेखा) बढ़ते हुए देखने का प्रयास किया गया है तथा यह इस मान्यता पर आधारित है कि इतिहास अपने आपको कभी दोहराता नहीं है। कॉम्ट (Comte), स्पेन्सर (Spencer), हॉबहाउस (Hobhouse) और मार्क्स (Marx) रैखिक सिद्धान्तों के समर्थक विद्वान् माने जाते हैं। रैखिक सिद्धान्त को कुछ विद्वानों ने दो प्रकार से देखने का प्रयास किया है-(1) समरेखीय सिद्धान्त, तथा (2) विविध रेखीय सिद्धान्त के रूप में।

1. समरेखीय सिद्धान्त (Unilinear Theory) – इस सिद्धान्त के समर्थकों के अनुसार समाज का लक्ष्य निश्चित है। और उसी लक्ष्य की ओर अपना ऊर्ध्वगामी विकास करता रहता है। यह परिवर्तन एक सीधी रेखा में होता है। इस सिद्धान्त में मॉर्गन वेकोफन हैड्डुन कॉम्ट तथा इसी प्रकार के अन्य विद्वानों के सिद्धान्त आते हैं। कभी-कभी भले ही हमें ऐसा दिखाई देता हो कि परिवर्तन को लक्ष्य से अलग करने के लिए उसके मार्ग में कुछ बाधाएँ रहती हैं, परन्तु अन्त में समाज को एक निश्चित लक्ष्य पर जाना है। समाज का विकास कुछ निश्चित स्तरों में होता है और ये स्तर सभी समाजों में एक ही क्रम में आते हैं अर्थात् विश्व के सभी समाज (जैसा कि कॉम्ट कहते हैं) पहले धार्मिक, फिर तात्विक और फिर वैज्ञानिक स्तर से गुजरते हैं। आर्थिक व्यवस्था सभी समाजों में भोजन संकलित करने तथा शिकार करने, पशु-पालन एवं चरागाह तथा कृषि एवं औद्योगिक स्तरों से गुजरेगी। कला सभी समाजों में पहले प्राकृतिक, फिर प्रतीकात्मक और फिर ज्यामितीय होगी। विवाह के स्तर पहले लिंग साम्यवाद, समूह विवाह, बहुपत्नी विवाह और फिर एक विवाह सभी समाजों में इसी क्रम में आएँगे। कहने का तात्पर्य यह कि सभी संस्थाओं एवं समितियों के सम्बन्ध में उद्विकास के चरण विश्व के सभी समाजों में एक ही क्रम से पदार्पण करेंगे और प्रगति एवं सभ्यता भी इसी से मापी जा सकेगी। आज जो समाज भोजन संकलन तथा शिकार करने के स्तर पर हैं, वह उन समाजों से पिछड़ा हुआ है, जोकि औद्योगिक युग में है, क्योंकि उसे अभी औद्योगिक युग तक आने में दो स्तर और पार करने हैं। इसी आधार पर हम न केवल जनजातीय समाज को पिछड़ा हुआ मानते हैं, बल्कि यूरोप तथा अमेरिका के लोग, जोकि औद्योगीकरण में हमसे कहीं आगे हैं, हमें भी पिछड़ा हुआ मानते हैं क्योंकि हम आज भी औद्योगीकरण का उतना विकास नहीं कर पाए हैं और कृषि युग में ही चल रहे हैं। शायद सांस्कृतिक ऊँच-नीच के भाव इसी दृष्टि से आरम्भ हुए होंगे, क्योंकि जनजातीय संस्कृति (जिससे धर्म का अत्यधिक महत्व है, जोकि जीवित सत्ता, ‘माना’ एवं अनेक देवी-देवताओं में विश्वास पर बल देती है, जिसमें पत्थर के ही आभूषणों एवं औजारों का प्रयोग होता है तथा जो बहुविवाही है) को हम अपने से बहुत नीचा मानते हैं। विकास के चरणों पर हम यह विश्वास करते हैं कि हम तक आने के लिए उसे अभी विकास के कई चरण पार करने हैं। इस प्रकार, ये लोग मानते हैं कि हमारे समाज का उद्विकास निरन्तर प्रगति की ओर हो रहा है।

2. विविध रेखीय सिद्धान्त (Multilinear Theory) – इस सिद्धान्त के समर्थकों के अनुसार यह तो सत्य है कि समाज का विकास कुछ निश्चित स्तरों से होकर गुजरता है, किन्तु ये निश्चित स्तर सभी समाजों में एक ही क्रम में आते जाते हैं यह आवश्यक नहीं है। यह अनिवार्य नहीं कि कृषि युग में आने से पूर्व समाज को पशुपालन के स्तर से गुजरना ही पड़ेगा या एक विवाही होने से पूर्व हर समाज बहुविवाही रहा होगा अथवा एकेश्वरवाद तक आने के लिए बहुदेववाद से गुजरना ही होगा। इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि विविध रेखीय सिद्धान्त एक प्रकार से समरेखीय उद्विकास के सिद्धान्त की आलोचना के रूप में प्रतिपादित किया गया है।

रैखिक सिद्धान्त के कुछ प्रमुख समर्थकों के विचारों की संक्षिप्त विवेचना निम्नलिखित प्रकार से की जा सकती है-

1. ऑगस्त कॉम्ट (Auguste Comte)- इन्होंने बौद्धिक विकास के तीन स्तर बताए हैं, जिनमें से प्रत्येक समाज गुजरता है और ये स्तर सामाजिक परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये स्तर हैं-

  • (a) धार्मिक अवस्था (Theological Stage),
  • (b) तात्विक अवस्था (Metaphysical Stage), तथा
  • (c) वैज्ञानिक अवस्था (Positive Stage)।

धार्मिक अवस्था वह अवस्था है, जिसमें व्यक्ति सभी वस्तुओं की व्याख्या धार्मिक आधार पर ही देते हैं। तात्विक अवस्था में वस्तुओं के गुणों तथा व्यक्ति अपने अस्तित्व के बारे में थोड़ा-बहुत विचार करना प्रारम्भ कर देते हैं। वैज्ञानिक अवस्था में प्रत्येक प्रघटना की व्याख्या वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर की जाती है। यद्यपि कॉम्ट द्वारा सामाजिक उद्विकास, के नियमों की खोज के दावे, नैतिक एवं बौद्धिक विकास में सम्बन्ध तथा ज्ञान के स्तर एवं सामाजिक संरचना के सम्बन्धों को अनेक विद्वानों ने चुनौती दी है, फिर भी इनका विश्लेषण महत्वपूर्ण माना गया है। इसे सामाजिक परिवर्तन का उद्विकासवादी सिद्धान्त भी कहते हैं।

2. एल० टी० हॉवहाउस (L. T. Hobhouse) – यद्यपि हॉबहाउस, ऑगस्त कॉम्ट तथा हरबर्ट स्पेन्सर के विचारों से अत्यधिक प्रभावित था और उसने अपने सिद्धान्त में मानवशास्त्रीय तथा ऐतिहासिक आँकड़ों का प्रयोग किया, फिर भी इन्होंने न तो स्पष्ट रूप से समाजों का वर्गीकरण किया और न ही सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया का विश्लेषण। इन्होंने मानव इतिहास की बौद्धिक स्तर पर पाँच अवस्थाएँ बताई हैं-

  • (a) पूर्व-शिक्षित (Pre-literate) समाजों में स्पष्ट विचारों का प्रारम्भ,
  • (b) प्राचीन पूर्व (Ancient East) में आद्य-विज्ञान (Proto-science) जैसे बेबीलन, मिस्र तथा प्राचीन चीन,
  • (c) बाद के पूर्व (Later East) में चिन्तन की अवस्था जैसे चीन, पेलेस्टीन तथा भारत में आठवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी तक,
  • (d) ग्रीक में आलोचनात्मक एवं व्यवस्थित विचारों की अवस्था तथा
  • (e) लगभग सोलहवीं शताब्दी से आधुनिक वैज्ञानिक विचारों का विकास।

परन्तु हॉबहाउस के विचार अमूर्त ही रहे और वास्तविक समाजों पर इन्हें लागू नहीं किया जा सकता है।

3. हरबर्ट स्पेन्सर (Herbert Spencer) – हरबर्ट स्पेन्सर ने सामाजिक परिवर्तन के समरैखिक उद्विकासवादी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। स्पेन्सर, हैड्डुन तथा एपिल इत्यादि विद्वानों का यह मत है कि सामाजिक परिवर्तन एक सरल रेखा में निरन्तर आगे कि ओर होता है। आज मानव तीन अवस्थाओं में से गुजर कर बना है-वन्यावस्था, बर्बर अवस्था तथा सभ्य अवस्था परिवार के विकास को क्रमशः यौन स्वच्छदता, सामूहिक विवाह, मातृसत्तात्मक, पितृसत्तात्मक और अन्त में एक विवाह प्रथा द्वारा समझाने का प्रयास किया गया है। आँकड़ों पर आधारित होने के कारण स्पेन्सर का सिद्धान्त कॉम्ट के सिद्धान्त से अधिक व्यापक माना गया है। इन्होंने प्रत्येक विशिष्ट समाज के विकास में आने वाली कठिनाइयों, विकास के लिए आकार तथा प्रकार में भेद इत्यादि महत्त्वपूर्ण बातों का भी उल्लेख किया है।

4. कार्ल मार्क्स (Karl Marx) – कार्ल मार्क्स का नाम रैखिक सिद्धान्त के प्रतिपादकों में मुख्य रूप से लिया जाता है। इनके सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त में प्रौद्योगिकी या तकनीकी का विकास तथा सामाजिक वर्गों में परस्पर सम्बन्धों को अत्यधिक महत्व दिया गया है। व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति एवं अन्य मनुष्यों पर आश्रित है। प्रकृति पर नियन्त्रण के प्रयास में व्यक्ति अपने भौतिक जीवन का विकास करते हैं। उत्पादन के साधनों के समरूप समाज में विशेष प्रकार का संगठन विकसित होता है। उत्पादन के साधनों पर भी सभी व्यक्तियों का एक समान अधिकार नहीं होता है। आर्थिक सामाजिक असमानताएँ आदिम साम्यवाद को छोड़कर प्रत्येक समाज में पाई जाती हैं। तकनीकी के विकास से श्रम-विभाजन तथा विशेषीकरण भी बढ़ता है तथा इससे भी समाज में असमानताएँ बढ़ती हैं। इस प्रकार, समाज में भिन्न वर्ग विकसित होते हैं तथा उनमें संघर्ष के परिणामस्वरूप सामाजिक परिवर्तन होते हैं। मार्क्स के शब्दों में, “आज तक अस्तित्व में जो समाज है, उनका इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है।” अतः यह कहा जा सकता है कि मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन का मुख्य कारण वर्ग संघर्ष माना है।

कार्ल मार्क्स ने आर्थिक आधारों पर सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या दी है। इनका विचार है कि प्रौद्योगिकी में परिवर्तन उत्पादन के साधनों में परिवर्तन करता है, जिससे समाज की आर्थिक संरचना बदलती है और आर्थिक संरचना में परिवर्तन के परिणामस्वरूप समाज की अन्य व्यवस्थाएँ, जैसे वैधानिक, सामाजिक, विचारवादी तथा राजनीतिक तथा आध्यात्मिक परिवर्तित होती हैं।

कार्ल मार्क्स के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त का सार इस प्रकार है-उत्पादन के साधनों के समरूप व्यक्तियों में आर्थिक सम्बन्ध विकसित होते हैं तथा इन आर्थिक सम्बन्धों के आधार पर समाज की आर्थिक संरचना का होता है, जिसे मार्क्स प्रासंरचना (Infrastructure) कहते हैं। उत्पादन के साधनों में परिवर्तन तकनीकी विकास के कारण होता रहता है और इससे प्रासंरचना प्रभावित होती है। आर्थिक संरचना या प्रासंरचना में परिवर्तन बाकी अधि-संरचनाओं (Super-structures), जैसे वैधानिक, धार्मिक, राजनीतिक तथा ललित कला सम्बन्धी इत्यादि में परिवर्तन होता है। इनका यह विचार भी था कि व्यक्ति की चेतना व्यक्ति के सामाजिक अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती, अपितु व्यक्तियों का सामाजिक अस्तित्व उसकी चेतना को निर्धारित करता है।

मार्क्स का समाज का वर्गीकरण भी इनके सामाजिक परिवर्तन के रैखिक सिद्धान्त के विचारों का समर्थन करता है। इन्होंने समाज के विकास की पाँच अवस्थाएँ बताई है-

  • (a) आदिम समाज (Primitive society),
  • (b) एशियाई समाज (Asiatic society),
  • (c) प्राचीन समाज (Ancient society),
  • (d) सामन्तवादी समाज (Feudal society), तथा
  • (c) पूँजीवादी समाज (Capitalist society) ।

मार्क्स के सिद्धान्त की अनेक विद्वानों ने कड़ी आलोचना की है। उनका कहना है कि मार्क्स ने आर्थिक संरचना को सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख कारक माना है, जोकि उचित नहीं है, क्योंकि अनेक अन्य कारणों से स्वयं आर्थिक संरचना भी प्रभावित होती रहती है। मार्क्स अपने सिद्धान्त में यह भी नहीं बताते कि स्वयं प्रौद्योगिकी एवं उत्पादन के साधनों में परिवर्तन कैसे होता है। उन्होंने आर्थिक सम्बन्ध, आर्थिक शक्ति तथा आर्थिक संरचना, जैसे शब्दों का प्रयोग तो किया, किन्तु इन्हें अधिक स्पष्ट नहीं कर पाए। इन आलोचनाओं के बावजूद मार्क्स का सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त एक प्रमुख सिद्धान्त माना जाता है।

रैखिक सिद्धान्तों की अनेक आधारों पर आलोचना की गई है। इन्हें काल्पनिक तथा अवैज्ञानिक कहा गया है, क्योंकि परिवर्तन को सीधी रेखा तथा विविध रेखाओं में होने वाला परिवर्तन मानना हमारा एक भ्रम मात्र है। इसे प्रगति मान लेना भी उचित नहीं है, क्योंकि प्रगति के साथ-साथ अवनति होती रहती है। एक तटस्थ अवधारणा होने के नाते इसका निरन्तर वृद्धि एवं मूल्यों पर आधारित होने से कोई अनिवार्य सह-सम्बन्ध नहीं है।

सामाजिक परिवर्तन का चक्रीय सिद्धान्त (Cyclic Theory of Social Change)

रैखिक सिद्धान्त के विपरीत चक्रीय सिद्धान्त में सामाजिक परिवर्तन की तुलना एक चक्र से की गई है। यह इस मान्यता पर आधारित है कि इतिहास अपने आप को पुनः दोहराता है। परिवर्तन की यद्यपि अनेक अवस्थाएँ है, किन्तु यह एक चक्र की तरह बार-बार आती रहती हैं। चक्रीय सिद्धान्त के समर्थकों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-

1. वे विद्वान् जो उद्विकास को दिशाहीन मानते हैं, उनका कथन है कि उतार-चढ़ाव की भाँति उद्विकास की दिशा कभी ऊपर और कभी नीचे रहती है। वाणिज्य तथा व्यापार, जनसंख्या तथा आर्थिक जगत में होने वाले परिवर्तन इस कथन की पुष्टि करते हैं।

2. द्वितीय श्रेणी के विद्वानों का कथन है कि सामाजिक परिवर्तन घड़ी के पैण्डुलम की भाँति इधर-उधर होता रहता है। ये विद्वान् उन्नति अवनति तथा समाज की क्रमिक स्थिति में परिवर्तन को पैराबोलिक (Parabolic) मानना अधिक उपयुक्त समझते हैं। सभी सामाजिक-सांस्कृतिक इकाइयों का विकास एक निश्चित दिशा की ओर होता है, किन्तु कुछ समय बाद यह विकास बिल्कुल विपरीत दिशा में होने लगता है तथा फिर यह पुनः पूर्व अवस्था एवं दिशा की ओर उन्मुख होने लगता है, परन्तु इस बार उन इकाइयों की दशा पहले की अपेक्षा अधिक उन्नत होती है।

3. तृतीय श्रेणी उन विद्वानों की है, जो उद्विकास के चक्र में विश्वास करते हैं। इनका कथन है कि संस्कृति तथा समाज में उतार-चढ़ाव के रूप में परिवर्तन होते रहते हैं, जो चक्रवत् होते हैं। सृष्टि उत्पन्न होती है, विकसित होती है, समाप्त हो जाती है तथा फिर इसका पुनः निर्माण होता है। व्यक्ति भी जन्म लेकर क्रमशः शिशु, किशोर, युवा, प्रौढ़ तथा वृद्ध होता है और मर जाता है। यह जीवन चक्र सदैव चलता रहता है। पौधा उत्पन्न होता है, विकास पाता है, पुष्मित तथा पल्लवित होता है और फिर सूख जाता है। अपनी पुस्तक डिवलाइन ऑफ दि बेस्ट (Decline of the West) में स्पेनगला (Spengler) सांस्कृतिक चक्र को मौसमों के चक्र के समान बताता है। क्रोवर, चेपिन तथा टॉयनवी जैसे विद्वानों ने भी जीवन के विविध पहलुओं से सम्बन्धित चक्र को समझाया है। पेरेटो के अनुसार, जितना यह सही है कि इतिहास अपनी पुनरावृत्ति करता है, उतना ही यह भी सही है कि इतिहास अपनी पुनरावृत्ति नहीं करता। हीगल और मार्क्स सभी ने समाजों में वाद (Thesis), प्रतिवाद (Antithesis) तथा सम्बाद (Synthesis) का चक्र देखा है। यह एक प्रक्रिया है, जिसमें स्तरों की पुनरावृत्ति एक निश्चित क्रम से होती ही रहेगी।

पेरेटो (Pareto) ने सामाजिक परिवर्तन के चक्र को समझाने के लिए सामान्य वर्ग या गैर-विशिष्टजन वर्ग (Non-elite class) एवं उच्च वर्ग अथवा विशिष्टजन वर्ग (Elite class) का वर्णन किया है। इन दोनों वर्गों की गति चक्रीय होती है। इसे इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है कि समाज का ऊपरी भाग (विशिष्टजन वर्ग) अपना वैभव और स्तर समाप्त होने पर निम्न वर्ग में आ जाता है तथा निम्न वर्ग अपने गुणों का विकास करके चक्रीय गति द्वारा उत्तरोत्तर ऊपरी भाग (विशिष्टजन वर्ग) में प्रविष्ट होने लगता है। इस प्रकार, समाज के आकार-प्रकार पर इसका प्रभाव पड़ता है, चाहे प्रभाव मन्द हो अथवा तीव्र । पेरेटो ने सांस्कृतिक चक्र तथा उतार-चढ़ाव को तीन स्तरों में बाँटकर समझाया है कि मानव समाजों के प्रारम्भिक काल में विवाह संस्था नहीं थी और यौन सम्बन्धों पर भी कोई नियन्त्रण नहीं था। उसके बाद आज समाज में यौन सम्बन्धी कठोर नैतिकता पाई जाती है। ब्रह्मचर्य एवं सतीत्व पर बहुत बल दिया जाने लगा है और एक विवाह की पद्धति विकसित है, परन्तु अब पुनः विवाह से पूर्व यौन सम्बन्ध समाज में दिखने लगे हैं, जिससे आभास होता है कि पुनः समाज में यौन साम्यवाद (Sex communism) आने लगा है।

इस प्रकार, वस्त्र विन्यास, केश विन्यास इत्यादि में भी यही चक्र-क्रम दृष्टिगोचर होता है। जो प्रचलन लगभग बीस वर्ष पूर्व था, मध्य में परिवर्तित होकर अब फिर वैसा ही प्रचलित हो गया है। प्रत्येक वस्तु कुछ अवधि के बाद अपनी प्रारम्भिक अवस्था में फिर आ जाती है। यही सामाजिक परिवर्तन का चक्र (Cycle of social change) है। सोरोकिन ने सांस्कृतिक तत्वों में उतार-चढ़ाव के आधार पर सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या की है। इनके अनुसार, संस्कृति के तीन रूप हैं— भावात्मक संस्कृति, संवेदनात्मक संस्कृति तथा आदर्शात्मक संस्कृति । इन तीनों रूपों में उतार-चढ़ाव होता रहता है। इनके अनुसार पिछले पच्चीस वर्षों में जो परिवर्तन हुए हैं, वे इन रूपों में उतार-चढ़ाव के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं।

स्पेन्गलर (Spengler) ने भी सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त का विकास किया है। जिस प्रकार, ऋतुओं में एक निश्चित क्रम चलता रहता है, ठीक उसी प्रकार संस्कृतियाँ निश्चित अवस्था में परिवर्तित होती रहती हैं। टॉयनवी (Toynbee) ने सभ्यताओं के विकास, स्थिरता तथा पतन को चक्रवत् रूप में समझाया है। उनका विचार था कि प्रत्येक सभ्यता की उन्नति एवं अवनति होती है।

चक्रीय सिद्धान्त भी दोषरहित नहीं है। इसमें परिवर्तन को अनिवार्य और दार्शनिक तथा चक्रीय गति से होने वाला माना जाता है, जोकि सदैव ठीक नहीं है। यह सैद्धान्तिक तथ्यों पर आधारित है तथा सामाजिक परिवर्तन को पूरी तरह से समझने में सहायक नहीं है। इतिहास में सदैव पुनरावृत्ति नहीं होती। अतः यह सिद्धान्त भी रैखिक सिद्धान्त की तरह एकपक्षीय तथा अधूरा है।

रैखिक तथा चक्रीय सिद्धान्तों में अन्तर (Distinction between Linear and Cyclic Theories)

सामाजिक परिवर्तन के रैखिक और चक्रीय सिद्धान्तों में निम्नलिखित प्रमुख अन्तर पाए जाते हैं-

1. रैखिक सिद्धान्त विकासवादी विचारधारा पर आधारित है, जबकि चक्रीय सिद्धान्त इस विचारधारा को अस्वीकार करता है

2. रैखिक सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि इतिहास अपने आप को कभी दोहराता नहीं है, जबकि चक्रीय सिद्धान्त इसके विपरीत इस मान्यता पर आधारित है कि इतिहास अपने आप को दोहराता है।

3. रैखिक सिद्धान्त सामाजिक परिवर्तन को निश्चित एवं पूर्व निर्धारित मानता है, जबकि चक्रीय सिद्धान्त में ऐसी मान्यता अस्वीकार की जाती है।

4. रैखिक सिद्धान्त के अनुसार परिवर्तन सदैव निरन्तर रूप से आगे की तरफ होता रहता है, जबकि चक्रीय सिद्धान्त के अनुसार इसकी गति चक्रीय होती है

आज रैखिक तथा चक्रीय दोनों सिद्धान्तों को एकपक्षीय माना जाता है तथा दोनों के समन्वय की बात कही जाती है। आज तक कोई ऐसा प्रयास नहीं हुआ है, परन्तु इस दिशा की ओर सामाजिक, वैज्ञानिक निरन्तर प्रयत्नशील हैं।

रैखिक सिद्धान्त के सन्दर्भ में कार्ल मार्क्स एवं चक्रीय सिद्धान्त के सन्दर्भ में सोरोकिन तथा पेरेटो को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। अतः इनके सिद्धान्तों को थोड़ा विस्तार से समझ लेना जरूरी है।

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Anjali Yadav

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